कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।
।।2.47।।कर्तव्यकर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है फलोंमें कभी नहीं। अतः तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और तेरी अकर्मण्यतामें भी आसक्ति न हो।
2.47।। व्याख्या कर्मण्येवाधिकारस्ते प्राप्त कर्तव्य कर्मका पालन करनेमें ही तेरा अधिकार है। इसमें तू स्वतन्त्र है। कारण कि मनुष्य कर्मयोनि है। मनुष्यके सिवाय दूसरी कोई भी योनि नया कर्म करनेके लिये नहीं है। पशुपक्षी आदि जङ्गम और वृक्ष लता आदि स्थावर प्राणी नया कर्म नहीं कर सकते। देवता आदिमें नया कर्म करनेकी सामर्थ्य तो है पर वे केवल पहले किये गये यज्ञ दान आदि शुभ कर्मोंका फल भोगनेके लिये ही हैं। वे भगवान्के विधानके अनुसार मनुष्योंके लिये कर्म करनेकी सामग्री दे सकते हैं पर केवल सुखभोगमें ही लिप्त रहनेके कारण स्वयं नया कर्म नहीं कर सकते। नारकीय जीव भी भोगयोनि होनेके कारण अपने दुष्कर्मोंका फल भोगते हैं नया कर्म नहीं कर सकते। नया कर्म करनेमें तो केवलमनुष्यका ही अधिकार है। भगवान्ने सेवारूप नया कर्म करके केवल अपना उद्धार करनेके लिये यह अन्तिम मनुष्यजन्म दिया है। अगर यह कर्मोंको अपने लिये करेगा तो बन्धनमें पड़ जायगा और अगर कर्मोंको न करके आलस्यप्रमादमें पड़ा रहेगा तो बारबार जन्मतामरता रहेगा। अतः भगवान् कहते हैं कि तेरा केवल सेवारूप कर्तव्यकर्म करनेमें ही अधिकार है। कर्मणि पदमें एकवचन देनेका तात्पर्य है कि मनुष्यके सामने देश काल घटना परिस्थिति आदिको लेकर शास्त्रविहित कर्म तो अलगअलग होंगे पर एक समयमें एक मनुष्य किसी एक कर्मको ही तत्परतापूर्वक कर सकता है। जैसे क्षत्रिय होनेके कारण अर्जुनके लिये युद्ध करना दान देना आदि कर्तव्यकर्मोंका विधान है पर वर्तमानमें युद्धके समय वह एक युद्धरूप कर्तव्यकर्म ही कर सकता है दान आदि कर्तव्यकर्म नहीं कर सकता। मार्मिक बात मनुष्यशरीरमें दो बातें हैं पुराने कर्मोंका फलभोग और नया पुरुषार्थ। दूसरी योनियोंमें केवल पुराने कर्मोंका फलभोग है अर्थात् कीटपतंग पशुपक्षी देवता ब्रह्मलोकतककी योनियाँ भोगयोनियाँ हैं। इसलिये उनके लिये ऐसा करो और ऐसा मत करो यह विधान नहीं है। पशुपक्षी कीटपतंग आदि जो कुछ भी कर्म करते हैं उनका वह कर्म भी फलभोगमें है। कारण कि उनके द्वारा किया जानेवाला कर्म उनके प्रारब्धके अनुसार पहलेसे ही रचा हुआ है। उनके जीवनमें अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितिका जो कुछ भोग होता है वह भोग भी फलभोगमें ही है। परन्तु मनुष्यशरीर तो केवल नये पुरुषार्थके लिये ही मिला है जिससे यह अपना उद्धार कर ले।इस मनुष्यशरीरमें दो विभाग हैं एक तो इसके सामने पुराने कर्मोंके फलरूपमें अनुकूलप्रतिकूल परिस्थिति आती है और दूसरा यह नया पुरुषार्थ (नये कर्म) करता है। नये कर्मोंके अनुसार ही इसके भविष्यका निर्माण होता है। इसलिये शास्त्र सन्तमहापुरुषोंका विधिनिषेध राज्य आदिका शासन केवल मनुष्योंके लिये ही होता है क्योंकि मनुष्यमें पुरुषार्थकी प्रघानता है नये कर्मोंको करनेकी स्वतन्त्रता है। परन्तु पिछले कर्मोंके फलस्वरूप मिलनेवाली अनुकूलप्रतिकूलरूप परिस्थितिको बदलनेमें यह परतन्त्र है। तात्पर्य है कि मनुष्य कर्म करनेमें स्वतन्त्र और फलप्राप्तिमें परतन्त्र है। परन्तु अनुकूलप्रतिकूलरूपसे प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करके मनुष्य उसको अपने उद्धारकी साधन सामग्री बना सकता है क्योंकि यह मनुष्यशरीर अपने उद्धारके लिये ही मिला है। इसलिये इसमें नया पुरुषार्थ भी उद्धारके लिये है और पुराने कर्मोंके फल फलरूपसे प्राप्त परिस्थिति भी उद्धारके लिये ही है।इसमें एक विशेष समझनेकी बात है कि इस मनुष्यजीवनमें प्रारब्धके अनुसार जो भी शुभ या अशुभ परिस्थिति आती है उस परिस्थितिको मनुष्य सुखदायी या दुःखदायी तो मान सकता है पर वास्तवमें देखा जाय तो उस परिस्थितिसे सुखी या दुःखी होना कर्मोंका फल नहीं हैं प्रत्युत मूर्खताका फल है। कारण कि परिस्थिति तो बाहरसे बनती हैऔर सुखीदुःखी होता है यह स्वयं। उस परिस्थितिके साथ तादात्म्य करके ही यह सुखदुःखका भोक्ता बनता है। अगर मनुष्य उस परिस्थितिके साथ तादात्म्य न करके उसका सदुपयोग करे तो वही परिस्थिति उसका उद्धार करनेके लिये साधनसामग्री बन जायगी। सुखदायी परिस्थितिका सदुपयोग है दूसरोंकी सेवा करना और दुःखदायी परिस्थितिका सदुपयोग है सुखभोगकी इच्छाका त्याग करना।दुःखदायी परिस्थिति आनेपर मनुष्यको कभी भी घबराना नहीं चाहिये प्रत्युत यह विचार करना चाहिये कि हमने पहले सुखभोगकी इच्छासे ही पाप किये थे और वे ही पाप दुःखदायी परिस्थितिके रूपमें आकर नष्ट हो रहे हैं। इसमें एक लाभ यह है कि उन पापोंका प्रायश्चित्त हो रहा है। और हम शुद्ध हो रहे हैं। दूसरा लाभ यह है कि हमें इस बातकी चेतावनी मिलती है कि अब हम सुखभोगके लिये पाप करेंगे तो आगे भी इसी प्रकार दुःखदायी परिस्थिति आयेगी। इसलिये सुखभोगकी इच्छासे अब कोई काम करना ही नहीं है प्रत्युत प्राणिमात्रके हितके लिये ही काम करना है।तात्पर्य यह हुआ है पशुपक्षी कीटपतंग आदि योनियोंके लिये पुराने कर्मोंका फल और नया कर्म ये दोनों ही भोगरूपमें हैं और मनुष्यके लिये पुराने कर्मोंका फल और नया कर्म (पुरुषार्थ) ये दोनों ही उद्धारके साधन हैं। मा फलेषु कदाचन फलमें तेरा किञ्चिन्मात्र भी अधिकार नहीं है अर्थात् फलकी प्राप्तिमें तेरी स्वतन्त्रता नहीं है क्योंकि फलका विधान तो मेरे अधीन है। अतः फलकी इच्छा न रखकर कर्तव्यकर्म कर। अगर तू फलकी इच्छा रखकर कर्म करेगा तो तू बँध जायेगा फले सक्तो निबध्यते (गीता 5। 12)। कारण कि फलेच्छा अर्थात् भोक्तृत्वपर ही कर्तव्य टिका हुआ है अर्थात् भोक्तृत्वसे ही कर्त्तृत्व आता है। फलेच्छा सर्वथा मिटनेसे कर्तृत्व मिट जाता है और कर्तृत्व मिटनेसे मनुष्य कर्म करता हुआ भी नहीं बँधता। भाव यह हुआ कि वास्तवमें मनुष्य कर्तृत्वमें उतना फँसा हुआ नहीं है जितना फलेच्छा अर्थात् भोक्तृत्वमें फँसा हुआ है (टिप्पणी प0 84) । दूसरी बात जितने भी कर्म होते हैं वे सभी प्राकृत पदार्थों और व्यक्तियोंके संगठनसे ही होते हैं। पदार्थों और व्यक्तियोंके संगठनके बिना स्वयं कर्म कर ही नहीं सकता अतः इनके संगठनके द्वारा किये हुए कर्मका फल अपने लिये चाहना ईमानदारी नहीं है। अतः कर्मका फल चाहना मनुष्यके लिये हितकारक नहीं है।फलमें तेरा अधिकार नहीं है इससे यह बात सिद्ध हो जाती है कि फलके साथ सम्बन्ध जोड़नेमें अथवा न जोड़नेमें मात्र मनुष्य स्वतन्त्र हैं सबल हैं। इसमें वे पराधीन और निर्बल नहीं है। फलेषु पदमें बहुवचन देनेका तात्पर्य है कि मनुष्य कर्म तो एक करता है पर उस कर्मके फल अनेक चाहता है। जैसे मैं अमुक कर्म कर रहा हूँ तो इससे मेरेको पुण्य हो जाय संसारमें मेरी कीर्ति हो जाय लोग मेरेको अच्छा समझें मेरा आदरसत्कार करें मेरेको इतना धन प्राप्त हो जाय आदिआदि।निष्काम होनेके उपाय (1) कामना पैदा होनेसे अभाव होता है कामनाकी पूर्ति होनेसे परतन्त्रता और पूर्ति न होनेसे दुःख होता है तथा कामनापूर्तिका सुख लेनेसे नयी कामनाकी उत्पत्ति होती है और सकामभावपूर्वक नयेनये कर्म करनेकी रुचि बढ़ती चली जाती है ऐसा ठीकठीक समझ लेनेसे निष्कामता स्वतः आ जाती है।(2) कर्म नित्य नहीं है क्योंकि उनका आरम्भ और अन्त होता है तथा उन कर्मोंका फल भी नित्य नहीं है क्योंकि उनका भी संयोग और वियोग होता है। परन्तु स्वयं नित्य है। अनित्य कर्म और कर्मफलसे नित्य स्वरूपको कोई लाभ नहीं होता। ऐसा ठीक समझ लेनेसे निष्कामता आ जाती है। निष्काम होनेसे संसारका सम्बन्ध छूट जाता है और परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है।कर्मोंमें निष्काम होनेके लिये साधकमें तेजीका विवेक भी होना चाहिये और सेवाभाव भी होना चाहिये क्योंकि इन दोनोंके होनेसे ही कर्मयोग ठीक तरहसे आचरणमें आयेगा नहीं तो कर्म हो जायँगे पर योग नहीं होगा। तात्पर्य है कि अपने सुखआरामका त्याग करनेमें तो विवेक की प्रधानता होना चाहिये और दूसरोंको सुखआराम पहुँचानेमें सेवाभाव की प्रधानता होना चाहिये। मा कर्मफलहेतुर्भूः तू कर्मफलका हेतु भी मत बन। तात्पर्य है कि शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदि कर्मसामग्रीके साथ अपनी किञ्चिन्मात्र भी ममता नहीं रखनी चाहिये क्योंकि इनमें ममता होनेसे मनुष्यकर्मफलका हेतु बन जाता है। आगे पाँचवें अध्यायके ग्यारहवें श्लोकमें भी भगवान्ने शरीर मन बुद्धि और इन्द्रियोंके साथ केवलैः पद देकर बताया है कि शरीर आदिके साथ किञ्चिन्मात्र भी ममता नहीं होनी चाहिये।शुभ क्रियाओंमें फलकी इच्छा न होनेपर भी मेरे द्वारा किसीका उपकार हो गया किसीका हित हो गया किसीको सुख पहुँचा ऐसा भाव हो जाता है तो यह कर्मफलका हेतु बनना है। कारण कि ऐसा भाव होनेसे शुभ कर्मके साथ और मन बुद्धि इन्द्रियों आदिके साथ सम्बन्ध हो जाता है जोकि असत्का सङ्ग है। वास्तवमें अन्तःकरण बहिःकरण और क्रियाओंके साथ हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है। इनका सम्बन्ध समष्टि संसारके साथ है। जैसे दूसरे किसी व्यक्तिके द्वारा दूसरे किसीका हित होता है तो उसमें हम अपना सम्बन्ध नहीं मानते उसमें अपनेको निमित्त नहीं मानतो। ऐसे ही अपने कहलानेवाले शरीर आदिसे किसीका हित हो जाय तो उसमें अपनेको निमित्त न माने। जब अपनेको किसी भी क्रियामें निमित्त हेतु नहीं मानेंगे तो कर्मफलका हेतु भी नहीं बनेंगे। मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि कर्म न करनेमें भी तेरी आसक्ति नहीं होनी चाहिये। कारण कि कर्म न करनेमें आसक्ति होनेसे आलस्य प्रमाद आदि होंगे। कर्मफलमें आसक्ति रहनेसे जैसा बन्धन होता है वैसा ही बन्धन कर्म न करनेमें आलस्य प्रमाद आदि होनेसे होता है क्योंकि आलस्यप्रमादका भी एक भोग होता है अर्थात् उनका भी एक सुख होता है जो तमोगुण है निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् (गीता 18। 39) और जिसका फल अधोगति होता है अधो गच्छन्ति तामसाः (गीता 14। 18)। तात्पर्य यह हुआ है कि राग आसक्ति कहीं भी होगी तो वह बाँधनेवाली हो ही जायगी कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु (गीता 13। 21)।कर्मरहित होनेसे हमें लौकिक लाभ होगा संसारमें हमारी प्रसिद्धि होगी आदि कोई सासारिक प्रयोजन भी नहीं होना चाहिये और समाधि लग जानेसे आध्यात्मिक तत्त्वमें हमारी स्थिति होगी आदि कोई पारमार्थिक प्रयोजन भी नहीं होना चाहिये। तात्पर्य है कि कर्म न करनेसे सांसारिक और पारमार्थिक उन्नति होगी यह भी कर्म न करनेमें आसक्ति है क्योंकि वास्तविक तत्त्व कर्म करने और न करनेसे अतीत है।इस श्लोकमें भगवान्का यह तात्पर्य मालूम देता है कि परिवर्तनशील वस्तु व्यक्ति पदार्थ क्रिया घटना परिस्थिति अवस्था स्थूलसूक्ष्मकारण शरीर आदिके साथ साधककी सर्वथा निर्लिप्तता होनी चाहिये। इनकेसाथ किञ्चिन्मात्र भी किसी तरहका सम्बन्ध नहीं होना चाहिये।इस श्लोकके चार चरणोंमें चार बातें आयी हैं (1) कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है (2) फलमें कभी तेरा अधिकार नहीं है (3) तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और (4) कर्म न करनेमें भी तेरी आसक्ति न हो। इनमेंसे पहले और चौथे चरणकी बात एक है तथा दूसरे और तीसरे चरणकी बात एक है। पहले चरणमें कर्म करनेमें अधिकार बताया है और चौथे चरणमें कर्म न करनेमें आसक्ति होनेका निषेध किया है। दूसरे चरणमें फलकी इच्छाका निषेध किया है और तीसरे चरणमें फलका हेतु बननेका निषेध किया है।तात्पर्य यह हुआ कि अकर्मण्यतामें रुचि होनेसे प्रमाद आलस्य आदि तामसी वृत्ति के साथ तेरा सम्बन्ध हो जायगा। कर्म एवं कर्मफलके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे तेरा राजसी वृत्ति के साथ सम्बन्ध हो जायगा। प्रमाद आलस्य कर्म कर्मफल आदिका सम्बन्ध न रहनेपर जो विवेकजन्य सुख होता है प्रकाश मिलता है ज्ञान मिलता है उसके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे सात्त्विकी वृत्ति के साथ सम्बन्ध हो जायगा। इनके साथ सम्बन्ध होना ही जन्ममरणका कारण है। अतः साधक कर्म कर्मफल और इनके त्यागका सुख इनमेंसे किसीके भी साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े इनमें राग या आसक्ति न करे। कर्म करते हुए इनके साथ सम्बन्ध न रखना ही कर्मयोग है। सम्बन्ध पूर्वश्लोकमें कर्म करनेकी आज्ञा देनेके बाद अब भगवान् कर्म करते हुए सम रहनेका प्रकार बताते हैं।