दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।2.49।।
।।2.49।।बुद्धियोग(समता) की अपेक्षा सकामकर्म दूरसे (अत्यन्त) ही निकृष्ट है। अतः हे धनञ्जय तू बुद्धि (समता) का आश्रय ले क्योंकि फलके हेतु बननेवाले अत्यन्त दीन हैं।
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