बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।2.50।।
।।2.50।। समत्वबुद्धि युक्त पुरुष यहां (इस जीवन में) पुण्य और पाप इन दोनों कर्मों को त्याग देता है? इसलिये तुम योग से युक्त हो जाओ। कर्मों में कुशलता योग है।।
।।2.50।। भावनाओं की दुर्बलताओं से ऊपर उठकर जो पुरुष समत्व बुद्धियुक्त हो जाता है वह पाप और पुण्य दोनों के बन्धनों से मुक्त हो जाता है। पाप और पुण्य मन की धारणायें हैं और उनकी प्रतिक्रियाएँ मन पर वासनाओं के रूप में अंकित होती हैं। मनरूपी विक्षुब्ध समुद्र के साथ जो व्यक्ति तादात्म्य नहीं करता वह वासनाओं की ऊँचीऊँची तरंगों के द्वारा न तो ऊपर फेंका जायेगा और न नीचे ही डुबोया जायेगा। यहाँ वर्णित मन का बुद्धि के साथ युक्त होना ही बुद्धियुक्त शब्द का अर्थ है।इस सम्पूर्ण प्रकरण में गीता का मानव मात्र को आह्वान है कि वह केवल इन्द्रियों के विषय स्थूल देह और मन के स्तर पर ही न रहे जो उसके व्यक्तित्व का बाह्यतम पक्ष है। इनसे सूक्ष्मतर बुद्धि का उपयोग कर उसको अपने वास्तविक पुरुषत्व को व्यक्त करना चाहिये। प्राणियों की सृष्टि में केवल बौद्धिक क्षमताओं के कारण ही मनुष्य को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। जब तक मनुष्य प्रकृति के इस विशिष्ट उपहार का सम्यक् प्रकार से उपयोग नहीं करता तब तक वह अपने मनुष्यत्व के अधिकार से वंचित ही रह जाता है।अर्जुन से मानसिक उन्माद त्यागकर वीर पुरुष के समान परिस्थितियों का स्वामी बनकर रहने के लिये भगवान् कहते हैं। उस समय अर्जुन इतना भावुक और दुर्बल हो गया था कि वह अपनी व अन्यों के शारीरिक सुरक्षा की चिन्ता करने लगा था। विकास की सीढ़ी पर मनुष्यत्व को प्राप्त कर जो अपनी विशेष क्षमताओं का पूर्ण उपयोग करता है वही व्यक्ति जन्म जन्मान्तरों में अर्जित वासनाओं के बन्धन से मुक्त हो जाता है। इसलिये तुम योग से युक्त हो जाओ यह भगवान् श्रीकृष्ण का उपदेश है। इसके पूर्व समत्व को योग कहा गया था। अब इस सन्दर्भ में व्यासजी योग की और विशद परिभाषा देते हैं कि कर्म में कुशलता योग है।किसी भी विषय के शास्त्रीय ग्रन्थ में यदि भिन्नभिन्न अध्यायों में एक ही शब्द की विभिन्न परिभाषायें दी गई हों तो समझने में कठिनाई और भ्रांति होगी। फिर धर्म के इस शास्त्रीय ग्रन्थ में एक ही शब्द की विभिन्न परिभाषायें कैसे बताई हुई हैं उपर्युक्त परिभाषा को ठीक से समझने पर इस समस्या का स्वयं समाधान हो जायेगा। योग की पूर्वोक्त परिभाषा यहाँ भी संग्रहीत है अन्यथा मन के समभाव का अर्थ अकर्मण्यता एवं शिथिलता उत्पन्न करने वाली मन की समता को ही कोई समझ सकता है। इस श्लोक में ऐसी त्रुटिपूर्ण धारणा को दूर करते हुये कहा गया है कि समस्त प्रकार के द्वन्द्वों में मन के सन्तुलन को न खोकर कुशलतापूर्वक कर्म करना ही कम्र्ायोग है।इस श्लोक के स्पष्टीकरण से श्रीकृष्ण का उद्देश्य ज्ञात होता है कि कर्मयोग की भावना से कर्म करने पर वासनाओं का क्षय होता है। वासनाओं के दबाव से ही मन में विक्षेप उठते हैं। किन्तु वासना क्षय के कारण मन स्थिर और शुद्ध होकर मनन निदिध्यासन और आत्मानुभूति के योग्य बन जाता है।योग शब्द का इस अथ मेंर् प्रयोग कर व्यास जी हमारे मन में उसके प्रति व्याप्त भ्राँति को दूर कर देते हैं।समत्व भाव एवं कर्म में कुशलता की क्या आवश्यकता है उत्तर में कहते हैं