कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्।।2.51।।
।।2.51।।समतायुक्त मनीषी साधक कर्मजन्य फलका त्याग करके जन्मरूप बन्धनसे मुक्त होकर निर्विकार पदको प्राप्त हो जाते हैं।
।।2.51।। बुद्धियोग युक्त मनीषी लोग कर्मजन्य फलों को त्यागकर जन्मरूप बन्धन से मुक्त हुये अनामय अर्थात् निर्दोष पद को प्राप्त होते हैं।।
2.51।। व्याख्या कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः जो समतासे युक्त हैं वे ही वास्तवमें मनीषी अर्थात् बुद्धिमान् हैं। अठारहवें अध्यायके दसवें श्लोकमें भी कहा है कि जो मनुष्य अकुशल कर्मोंसे द्वेष नहीं करता और कुशल कर्मोंमें राग नहीं करता वह मेधावी (बुद्धिमान्) है।कर्म तो फलके रूपमें परिणत होता ही है। उसके फलका त्याग कोई कर ही नहीं सकता। जैसे कोई खेतीमें निष्कामभावसे बीज बोये तो क्य खेतीमें अनाज नहीं होगा बोया है तो पैदा अवश्य होगा। ऐसे ही कोई निष्कामभावपूर्वक कर्म करता है तो उसको कर्मका फल तो मिलेगा ही। अतः यहाँ कर्मजन्य फलका त्याग करनेका अर्थ है कर्मजन्य फलकी इच्छा कामना ममता वासनाका त्याग करना। इसका त्याग करनेमें सभी समर्थ हैं। जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः समतायुक्त मनीषी साधक जन्मरूप बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। कारण कि समतामें स्थित हो जानेसे उनमें रागद्वेष कामना वासना ममता आदि दोष किञ्चिन्मात्र भी नहीं रहते अतः उनके पुनर्जन्मका कारण ही नहीं रहता। वे जन्ममरणरूप बन्धनसे सदाके लिये मुक्त हो जाते हैं। पदं गच्छन्त्यनामयम् आमय नाम रोगका है। रोग एक विकार है। जिसमें किञ्चिन्मात्र भी किसी प्रकारका विकार न हो उसको अनामय अर्थात् निर्विकार कहते हैं। समतायुक्त मनीषीलोग ऐसे निर्विकार पदको प्राप्त हो जाते हैं। इसी निर्विकार पदको पन्द्रहवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें अव्यय पद और अठारहवें अध्यायके छप्पनवें श्लोकमें शाश्वत अव्यय पद नामसे कहा गया है।यद्यपि गीतामें सत्त्वगुणको भी अनामय कहा गया है (14। 6) पर वास्तवमें अनामय (निर्विकार) तो अपना स्वरूप अथवा परमात्मतत्त्व ही है क्योंकि वह गुणातीत तत्त्व है जिसको प्राप्त होकर फिर किसीको भी जन्ममरणके चक्करमें नहीं आना पड़ता। परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें हेतु होनेसे भगवान्ने सत्त्वगुणको भी अनामय कह दिया है।अनामय पदको प्राप्त होना क्या है प्रकृति विकारशील है तो उसका कार्य शरीरसंसार भी विकारशील हैं। स्वयं निर्विकार होते हुए भी जब यह विकारी शरीरके साथ तादात्म्य कर लेता है तब यह अपनेको भी विकारी मान लेता है। परन्तु जब यह शरीरके साथ माने हुए सम्बन्धका त्याग कर देता है तब इसको अपने सहज निर्विकार स्वरूपका अनुभव हो जाता है। इस स्वाभाविक निर्विकारताका अनुभव होनेको ही यहाँ अनामय पदको प्राप्त होना कहा गया है।इस श्लोकमें बुद्धियुक्ताः और मनीषिणः पदमें बहुवचन देनेका तात्पर्य है कि जो भी समतामें स्थित हो जाते हैं वे सबकेसब अनामय पदको प्राप्त हो जाते हैं मुक्त हो जाते हैं। उनमेंसे कोई भी बाकी नहीं रहता। इस तरह समता अनामय पदकी प्राप्तिका अचूक उपाय है। इससे यह नियम सिद्ध होता है कि जब उत्पत्तिविनाशशील पदार्थोंके साथ सम्बन्ध नहीं रहता तब स्वतः सिद्ध निर्विकारताका अनुभव हो जाता है। इसके लिये कुछ भी परिश्रम नहीं करना पड़ता क्योंकि उस निर्विकारताका निर्माण नहीं करना पड़ता वह तो स्वतः स्वाभाविक ही है। सम्बन्ध पूर्वश्लोकमें बताये अनामय पदकी प्राप्तिका क्रम क्या है इसे आगेके दो श्लोकोंमें बताते हैं।
।।2.51।। योगयुक्त बनने के उपदेश को सुनकर अर्जुन के मन में प्रश्न उठा कि आखिर समभाव से उसको कर्म क्यों करने चाहिये। भगवान् इस प्रश्न का कुछ पूर्वानुमान कर इस श्लोक में उसका उत्तर देते हैं। बुद्धियुक्त मनीषी का अर्थ है वह पुरुष जो जीने की कला को जानता हुआ फल की चिन्ताओं से मुक्त होकर मन के पूर्ण सन्तुलन को बनाये हुये सभी कर्म करता है। दूसरे शब्दों में अहंकार और स्वार्थ से रहित व्यक्ति ही मनीषी कहलाता है।मन के साथ तादात्म्य से अहंकार उत्पन्न होता है और वह फलासक्ति के कारण बन्धनों में फँस जाता है। जीवन में उच्च लक्ष्य को रखने पर ही अहंकार और स्वार्थ का त्याग संभव है।
2.51 Because, those who are devoted to wisdom, (they) becoming men of Enlightenment by giving up the fruits produced by actions, reach the state beyond evils by having become freed from the bondage of birth.
2.51 The wise, possessed of knowledge, having abandoned the fruits of their actions, and being freed from the fetters of birth, go to the place which is beyond all evil.
2.51. By renouncing the fruit, born of action, the intelligent ones endowed with determining faculty and freed from the bond of birth, go to the place that is devoid of illness.
2.51 कर्मजम् actionborn? बुद्धियुक्ताः possessed of knowledsge? हि indeed? फलम् the fruit? त्यक्त्वा having abandoned? मनीषिणः the wise? जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः freed from the fetters of birth? पदम् the abode? गच्छन्ति go? अनामयम् beyond evil.Commentary Clinging to the fruits of actions is the cause of rirth. Man takes a body to enjoy them. If anyone performs actions for the sake of God in fulfilment of His purpose without desire for the fruits? he is released from the bonds of birth and attains to the blissful state or the immortal abode.Sages who possess evenness of mind abandon the fruits of their actions and thus escape from good and bad actions.Buddhi referred to in the three verses 49? 50 and 51 may be the wisdom of the Sankhyas? i.e.? the knowledge of the Self or AtmaJnana which dawns when the mind is purified by Karma Yoga.
2.51 The words phalam tyaktva, by giving up the fruits are connected with the remote word karmajam, produced by actions. Hi, because; [Because, when actions are performed with an attitude of eanimity, it leads to becoming freed from sin etc. Therefore, by stages, it becomes the cause of Liberation as well.] buddhi-yuktah, those who are devoted to wisdom, who are imbued with the wisdom of eanimity; (they) becoming manisinah, men of Enlightenment; tyaktva, by giving up; phalam, the fruit, the acisition of desirable and undesriable bodies; [Desirable: the bodies of gods and others; undesirable: the bodies of animals etc.] karmajam, produced by actions; gacchanti, reach; padam, the state, the supreme state of Visnu, called Liberation; anamayam, beyond evils, i.e. beyond all evils; by having become janma-bandha-vinirmuktah, freed from the bondage of birth birth (janma) itself is a bondage (bandha); becoming freed from that , even while living. Or: Since it (buddhi) has been mentioned as the direct cause of the elimination of righteousness and unrighteousness, and so on, therefore what has been presented (in the three verses) beginning with, O Dhananjaya,৷৷.to the yoga of wisdom (49), is enlightenment itself, which consists in the realization of the supreme Goal, which is comparable to a flood all around, and which arises from the purification of the mind as a result of Karma-yoga. [In the first portion of the Commentary buddhi has been taken to mean samattva buddhi (wisdom of eanimity); the alternative meaning of buddhi has been taken as enlightenment. So, action is to be performed by taking the help of the wisdom about the supreme Reality which has been chosen as ones Goal.]
2.51 Karmajam etc. The persons who are endowed with the determining faculty with regard to the Yoga, renounce the birth-bondage, by renouncing the fruit of actions; and they attain the Brahman-existence.
2.51 Those who possess this evenness of mind while performing actions and relinish their fruits, are freed from the bondage of rirth, and go to the region beyond all ills. Hi means that this dictum or teaching is well known in all the Upanisads.
No commentary by Sri Visvanatha Cakravarti Thakur.
How actions are able to turn out to be the means of liberation are being now given. Those with spiritual intelligence who relinquish all fruitive desires for the results of all actions, perform in righteousness activities as an offering unto the Supreme Lord are blessed with self-realisation, and being released from the bondage of birth and death they being liberated attain the eternal and everlasting spiritual worlds of the Supreme Lord Krishna.
Lord Krishna instructs the solution in this verse. That is to perform all actions free from fruitive craving. Offer all actions to the Supreme Lord without desiring rewards. Endowed with spiritual intelligence and comprehension of reality one attains the supreme stage. To get there the performance of actions with equanimity is the way to wisdom and is the means for assured liberation.
Those who are factually situated in spiritual intelligence perform activities as a matter of duty free from conceptions of gain and loss, unconcerned about the resultant rewards. They are assuredly delivered from the bondage of birth and death in the material existence and are liberated to the spiritual realms. This information is well documented in the Vedic scriptures.
Those who are factually situated in spiritual intelligence perform activities as a matter of duty free from conceptions of gain and loss, unconcerned about the resultant rewards. They are assuredly delivered from the bondage of birth and death in the material existence and are liberated to the spiritual realms. This information is well documented in the Vedic scriptures.
Karmajam buddhiyuktaa hi phalam tyaktwaa maneeshinah; Janmabandha vinirmuktaah padam gacchantyanaamayam.
karma-jam—born of fruitive actions; buddhi-yuktāḥ—endowed with equanimity of intellect; hi—as; phalam—fruits; tyaktvā—abandoning; manīṣhiṇaḥ—the wise; janma-bandha-vinirmuktāḥ—freedom from the bondage of life and death; padam—state; gachchhanti—attain; anāmayam—devoid of sufferings