श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।2.53।।
।।2.53।। जब अनेक प्रकार के विषयों को सुनने से विचलित हुई तुम्हारी बुद्धि आत्मस्वरूप में अचल और स्थिर हो जायेगी तब तुम (परमार्थ) योग को प्राप्त करोगे।।
।।2.53।। जब पाँचो ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण करने पर भी जिसकी बुद्धि अविचलित रहती है तब उसे योग में स्थित समझा जाता है। सामान्यत इन्द्रियों के विषय ग्रहण के कारण मन में अनेक विक्षेप उठते हैं। योगस्थ पुरुष का मन इन सबमें निश्चल रहता है। उसके विषय में आगे स्थितप्रज्ञ के लक्षण और अधिक विस्तार से बताते हैं।अनेक व्याख्याकार इसका अर्थ इस प्रकार करते हैं कि विभिन्न दार्शनिकों के परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले सिद्धान्तों को सुनकर जिसकी बुद्धि विचलित नहीं होती वह योग में स्थित हुआ समझा जाता है।अब तक के प्रस्तुत किये गये तर्कों से इस विषय में अर्जुन की रुचि बढ़ने लगती है और उन्माद का प्रभाव कम होने लगता है। अपने विषाद और दुख को भूलकर श्रीकृष्ण के प्रवचन में स्वयं रुचि लेते हुये ज्ञानी पुरुष के लक्षणों को जानने की अपनी उत्सुकता को वह नहीं रोक सका। उसके प्रश्न से स्पष्ट दिखाई देता है कि वह भगवान् के सिद्धान्त को ग्रहण कर रहा है फिर भी उसके मन में कुछ है जिसके कारण वह इसे पूर्णत स्वीकार नहीं कर पा रहा था।प्रश्न पूछने के लिए अवसर पाकर समत्व में स्थित बुद्धि वाले पुरुष के लक्षणों को जानने की उत्सुकता से अर्जुन प्रश्न करता है