श्री भगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।2.55।।
।।2.55।।श्रीभगवान् बोले हे पृथानन्दन जिस कालमें साधक मनोगत सम्पूर्ण कामनाओंका अच्छी तरह त्याग कर देता है और अपनेआपसे अपनेआपमें ही सन्तुष्ट रहता है उस कालमें वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।
।।2.55।। श्री भगवान् ने कहा -- हे पार्थ? जिस समय पुरुष मन में स्थित सब कामनाओं को त्याग देता है और आत्मा से ही आत्मा में सन्तुष्ट रहता है? उस समय वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है।।
2.55।। व्याख्या गीताकी यह एक शैली है कि जो साधक जिस साधन (कर्मयोग भक्तियोग आदि) के द्वारा सिद्ध होता है उसी साधनसे उसकी पूर्णताका वर्णन किया जाता है। जैसे भक्तियोगमें साधक भगवान्के सिवाय और कुछ है ही नहीं ऐसे अनन्ययोगसे उपासना करता है (12। 6) अतः सिद्धावस्थामें वह सम्पूर्ण प्राणियोंमें द्वेषभावसे रहित हो जाता है (12। 13)। ज्ञानयोगमें साधक स्वयंको गुणोंसे सर्वथा असम्बद्ध एवं निर्लिप्त देखता है (14। 19) अतः सिद्धावस्थामें वह सम्पूर्ण गुणोंसे सर्वथा अतीत हो जाता है (14। 22 25)। ऐसे ही कर्मयोगमें कामनाके त्यागकी बात मुख्य कही गयी है अतः सिद्धावस्थामें वह सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग कर देता है यह बात इस श्लोकमें बताते हैं। प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् इन पदोंका तात्पर्य यह हुआ कि कामना न तो स्वयंमें है और न मनमें ही है। कामना तो आनेजानेवाली है और स्वयं निरन्तर रहनेवाला है अतः स्वयंमें कामना कैसे हो सकती है मन एक करण है और उसमें भी कामना निरन्तर नहीं रहती प्रत्युत उसमें आती है मनोगतान् अतः मनमें भी कामना कैसे हो सकती है परन्तु शरीरइन्द्रयाँमनबुद्धिसे तादात्म्य होनेके कारण मनुष्य मनमें आनेवाली कामनाओंको अपनेमें मान लेता है। जहाति क्रियाके साथ प्र उपसर्ग देनेका तात्पर्य है कि साधक कामनाओंका सर्वथा त्याग कर देता है किसी भी कामनाका कोई भी अंश किञ्चिन्मात्र भी नहीं रहता।अपने स्वरूपका कभी त्याग नहीं होता और जिससे अपना कुछ भी सम्बन्ध नहीं है उसका भी त्याग नहीं होता। त्याग उसीका होता है जो अपना नहीं है पर उसको अपना मान लिया है। ऐसे ही कामना अपनेमें नहीं है पर उसको अपनेमें मान लिया है। इस मान्यताका त्याग करनेको ही यहाँ प्रजहाति पदसे कहा गया है।यहाँ कामान् शब्दमें बहुवचन होनेसे सर्वान् पद उसीके अन्तर्गत आ जाता है फिर भी सर्वान् पद देनेका तात्पर्य है कि कोई भी कामना न रहे और किसी भी कामनाका कोई भी अंश बाकी न रहे। आत्मन्येवात्मना तुष्टः जिस कालमें सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग कर देता है और अपनेआपसे अपनेआपमें ही सन्तुष्ट रहता है अर्थात् अपनेआपमें सहज स्वाभाविक सन्तोष होता है।सन्तोष दो तरहका होता है एक सन्तोष गुण है और एक सन्तोष स्वरूप है। अन्तःकरणमें किसी प्रकारकी कोई भी इच्छा न हो यह सन्तोष गुण है और स्वयंमें असन्तोषका अत्यन्ताभाव है यह सन्तोष स्वरूप है। यह स्वरुपभूत सन्तोष स्वतः सर्वदा रहता है। इसके लिये कोई अभ्यास या विचार नहीं करना पड़ता। स्वरूपभूत सन्तोषमें प्रज्ञा (बुद्धि) स्वतः स्थिर रहती है। स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते स्वयं जब बहुशाखाओंवाली अनन्त कामनाओंको अपनेमें मानता था उस समय भी वास्तवमें कामनाएँ अपनेमें नहीं थीं और स्वयं स्थितप्रज्ञ ही था। परन्तु उस समय अपनेमें कामनाएँ माननेके कारण बुद्धि स्थिर न होनेसे वह स्थितप्रज्ञ नहीं कहा जाता था अर्थात उसको अपनी स्थितप्रज्ञताका अनुभव नहीं होता था। अब उसने अपनेमें से सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग कर दिया अर्थात् उनकी मान्यताको हटा दिया तब वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है अर्थात् उसको अपनी स्थितप्रज्ञताका अनुभव हो जाता है।साधक तो बुद्धिको स्थिर बनाता है। परन्तु कामनाओंका सर्वथा त्याग होनेपर बुद्धिको स्थिर बनाना नहीं पड़ता वह स्वतःस्वाभाविक स्थिर हो जाती है।कर्मयोगमें साधकका कर्मोंसे ज्यादा सम्बन्ध रहता है। उसके लिये योगमें आरूढ़ होनेमें भी कर्म कारण हैं आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते (गीता 6। 3)। इसलिये कर्मयोगीका कर्मोंके साथ सम्बन्ध साधकअवस्थामें भी रहता है और सिद्धावस्थामें भी। सिद्धावस्थामें कर्मयोगीके द्वारा मर्यादाके अनुसार कर्म होते रहते हैं जो दूसरोंके लिये आदर्श होते हैं (गीता 3। 21)। इसी बातको भगवान्ने चौथे अध्यायमें कहा है कि कर्मयोगी कर्म करते हुए निर्लिप्त रहता है और निर्लिप्त रहते हुए ही कर्म करता है कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः (4। 18)।भगवान्ने तिरपनवें श्लोकमें योगकी प्राप्तिमें बुद्धिकी दो बातें कही थीं संसारसे हटनेमें तो बुद्धि निश्चल हो और परमात्मामें लगनेमें बुद्धि अचल हो अर्थात् निश्चल कहकर संसारका त्याग बताया और अचल कहकर परमात्मामें स्थिति बतायी। उन्हीं दो बातोंको लेकर यहाँ यदा और तदा पदसे कहा गया है कि जब साधक कामनाओंसे सर्वथा रहित हो जाता है और अपने स्वरूपमें ही सन्तुष्ट रहता है तब वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। तात्पर्य है कि जबतक कामनाका अंश रहता है तबतक वह साधक कहलाता है और जब कामनाओंका सर्वथा अभाव हो जाता है तब वह सिद्ध कहलाता है। इन्हीं दो बातोंका वर्णन भगवान्ने इस अध्यायकी समाप्तितक किया है जैसे यहाँ प्रजहाति यदा कामान्सर्वान् पदोंसे संसारका त्याग बताया और फिर आत्मन्येवात्मना तुष्टः पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी।छप्पनवें श्लोकके पहले भागमें (तीन चरणोंमें) संसारका त्याग और स्थितधीर्मुनिः पदसे परमात्मामें स्थित बतायी। सत्तावनवें और अट्ठावनवें श्लोकमें पहले संसारका त्याग बताया और फिर तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी। उनसठवें श्लोकके पहले भागमें संसारका त्याग बताया और परं दृष्ट्वा पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी। साठवें श्लोकसे इकसठवें श्लोकतक पहले संसारका त्याग बताया और फिर युक्त आसीत मत्परः आदि पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी। बासठवेंसे पैंसठवें श्लोकतक पहले संसारका त्याग बताया और फिर बुद्धिः पर्यवतिष्ठते पदोंसे परमात्मानें स्थित बतायी। छाछठवेंसे अड़सठवें श्लोकतक पहले संसारका त्याग बताया और फिर तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठता पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी। उन्हत्तरवें श्लोकमें या निशा सर्वभूतानाम् तथा यस्यां जाग्रति भूतानि पदोंसे संसारका त्याग बताया और तस्यां जागर्ति संयमी तथा सा निशा पश्यतो मुनेः पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी। सत्तरवें और इकहत्तरवें श्लोकमें पहले संसारका त्याग बताया और फिर स शान्तिमधिगच्छति पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी। बहत्तरवें श्लोकमें नैनां प्राप्य विमुह्यति पदोंसे संसारका त्याग बताया और ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति आदि पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी। सम्बन्ध अब आगेके दो श्लोकोंमें स्थितप्रज्ञ कैसे बोलता है इस दूसरे प्रश्नका उत्तर देते हैं।
।।2.55।। आत्मानुभवी पुरुष के आन्तरिक और बाह्य जीवन का वर्णन कर भेड़ की खाल में छिपे भालुओं के समान पाखण्डी गुरुओं से भिन्न सच्चे गुरु को पहचानने में गीता हमारी सहायता करती है। इसके अतिरिक्त यह प्रकरण साधकों के लिये विशेष महत्त्व का है क्योंकि इसमें आत्मानुभूति के लिये आवश्यक जीवन मूल्यों एवं विभिन्न परिस्थितियों में मन की स्थिति कैसी होनी चाहिये इसका विस्तार से वर्णन है।इस विषय के प्रारम्भिक श्लोक में ही ज्ञानी पुरुष की आन्तरिक मनस्थिति के वे समस्त लक्षण वर्णित हैं जिन्हे हमको जानना चाहिये। उपनिषद् रूपी उद्यान में खिले शब्द रूपी सुमनों की इस विशिष्ट सुगन्ध से सुपरिचित होने पर ही हमें इस श्लोक में प्रयुक्त शब्दोंें का सम्यक् ज्ञान हो सकता है। जिसने मन में स्थित सभी कामनाओं को त्याग दिया वह पुरुष स्थितप्रज्ञ कहलाता है। श्रीकृष्ण ने अब तक जो कहा उसके सन्दर्भ में इस श्लोक का अध्ययन करने पर हम वास्तव में व्यास जी के प्रेरणाप्रद शब्दों के द्वारा औपनिषदीय सुरभि का अनुभव कर सकते हैं।आत्मस्वरूप अज्ञान से दूषित बुद्धि कामनाओं के पल्लवित होने के लिये योग्य क्षेत्र बन जाती है। परन्तु जिस पुरुष का अज्ञान आत्मानुभव के सम्यक् ज्ञान से निवृत्त हो जाता है उसका निष्काम हो जाना स्वाभाविक है। यहाँ कार्य के निषेध से कारण का निषेध किया गया है। जहाँ कामनायें नहीं वहाँ अज्ञान नष्ट हो चुका है और ज्ञान तो वहाँ प्रकाशित हो ही रहा है।यदि सामान्य जनों से ज्ञानी को विशिष्टता प्रदान करने वाला यही एक मात्र लक्षण हो तो आज का कोई भी शिक्षित व्यक्ति हिन्दू महात्मा को पागल ही समझेगा क्योंकि आत्मानुभव के बाद उस ज्ञानी में इतनी भी सार्मथ्य नहीं रहेगी कि वह इच्छा कर सके इच्छा क्या है इच्छा मन की वह क्षमता है जो भविष्य में ऐसी वस्तु को पाने की योजना बनाये जिससे कि मनुष्य पहले से अधिक सुखी बन सके। ज्ञानी पुरुष इस सार्मथ्य को भी खो देगा यह है भौतिकवादियों द्वारा की जाने वाली आलोचना।उपर्युक्त प्रकार से इस श्लोक की आलोचना नहीं की जा सकती क्योंकि दूसरी पंक्ति में यह बताया गया है कि ज्ञानी पुरुष अपने आनन्दस्वरूप में सन्तुष्ट रहता है। केवल यह नहीं कहा कि वह सब कामनाओं को त्याग देता है वरन् निश्चित रूप से वह आत्मानन्द का अनुभव करता है।यह सर्वविदित तथ्य है कि बाल्यावस्था में जिन खिलौनों के साथ बालक रमता है उनको युवावस्था में वह छोड़ देता है। आगे वृद्ध होने पर उसकी इच्छायें परिवर्तित हो जाती हैं और युवावस्था में आकर्षक प्रतीत होने वाली वस्तुओं के प्रति उसके मन में कुछ राग नहीं रह जाता।अज्ञान दशा में मनुष्य स्वयं को परिच्छिन्न अहंकार के रूप में जानता है। इसलिये विषयोपभोग की स्पृहा अपनी भावनाओं एवं विचारों के साथ आसक्ति स्वाभाविक होती है। अज्ञान के नष्ट होने पर यह अहंकार अपने शुद्ध अनन्त स्वरूप में विलीन हो जाता है और स्थितप्रज्ञ पुरुष आत्मा द्वारा आत्मा में ही सन्तुष्ट रहता है। सब कामनायें समाप्त हो जाती हैं क्योंकि वह स्वयं आनन्दस्वरूप बनकर स्थित हो जाता है।