यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.57।।
।।2.57।।सब जगह आसक्तिरहित हुआ जो मनुष्य उसउस शुभअशुभको प्राप्त करके न तो अभिनन्दित होता है और न द्वेष करता है उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है।
।।2.57।। जो सर्वत्र अति स्नेह से रहित हुआ उन शुभ तथा अशुभ वस्तुओं को प्राप्त कर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है? उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित (स्थिर) है।।
2.57।। व्याख्या पूर्वश्लोकमें तो भगवान्ने कर्तव्यकर्म करते हुए निर्विकार रहनेकी बात बतायी। अब इस श्लोकमें कर्मोंके अनुसार प्राप्त होनेवाली अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितियोंमें सम निर्विकार रहनेकी बात बताते हैं। यः सर्वत्रानभिस्नेहः जो सब जगह स्नेहरहित है अर्थात् जिसकी अपने कहलानेवाले शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि एवं स्त्री पुत्र घर धन आदि किसीमें भी आसक्ति लगाव नहीं रहा है।वस्तु आदिके बने रहनेसे मैं बना रहा और उनके बिगड़ जानेसे मैं बिगड़ गया धनके आनेसे मैं बड़ा हो गया और धनके चले जानेसे मैं मारा गया यह जो वस्तु आदिमें एकात्मताकी तरह स्नेह है उसका नाम अभिस्नेह है। स्थितप्रज्ञ कर्मयोगीका किसी भी वस्तु आदिमें यह अभिस्नेह बिलकुल नहीं रहता। बाहरसे वस्तु व्यक्ति पदार्थ आदिका संयोग रहते हुए भी वह भीतरसे सर्वथा निर्लिप्त रहता है। तत्तत्प्राप्य शुभाशुभं नाभिनन्दति न द्वेष्टि जब उस मनुष्यके सामने प्रारब्धवशात् शुभअशुभ शोभनीयअशोभनीय अच्छीमन्दी अनुकूलप्रतिकूल परिस्थिति आती है तब वह अनुकूल परिस्थितिको लेकर अभिनन्दित नहीं होता और प्रतिकूल परिस्थितिको लेकर द्वेष नहीं करता।अनुकूल परिस्थितिको लेकर मनमें जो प्रसन्नता आती है और वाणीसे भी प्रसन्नता प्रकट की जाती है तथा बाहरसे भी उत्सव मनाया जाता है यह उस परिस्थितिका अभिनन्दन करना है। ऐसे ही प्रतिकूल परिस्थितिको लेकर मनमें जो दुःख होता है खिन्नता होती है कि यह कैसे और क्यों हो गया यह नहीं होता तो अच्छा था अब यह जल्दी मिट जाय तो ठीक है यह उस परिस्थितिसे द्वेष करना है। सर्वत्र स्नेहरहित निर्लिप्त हुआ मनुष्य अनुकूलताको लेकर अभिनन्दन नहीं करता और प्रतिकूलताको लेकर द्वेष नहीं करता। तात्पर्य है कि उसको अनुकूलप्रतिकूल अच्छेमन्दे अवसर प्राप्त होते रहते हैं पर उसके भीतर सदा निर्लिप्तता बनी रहती है। तत् तत् कहनेका तात्पर्य है कि जिनजिन अनुकूल और प्रतिकूल वस्तु व्यक्ति घटना परिस्थिति आदिसे विकार होनेकी सम्भावना रहती है और साधारण लोगोंमें विकार होते हैं उनउन अनुकूलप्रतिकूल वस्तु आदिके कहीं भी कभी भी और कैसे भी प्राप्त होनेपर उसको अभिनन्दन और द्वेष नहीं होता। तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है एकरस और एकरूप है। साधनावस्थामें उसकी जो व्यवसायात्मिका बुद्धि थी वह अब परमात्मामें अचलअटल हो गयी है। उसकी बुद्धिमें यह विवेक पूर्णरूपसे जाग्रत् हो गया है कि संसारमें अच्छेमन्देके साथ वास्तवमें मेरा कोई भी सम्बन्ध नहीं है। कारण कि ये अच्छेमन्दे अवसर तो बदलनेवाले हैं पर मेरा स्वरूप न बदलनेवाला है अतः बदलनेवालेके साथ न बदलनेवालेका सम्बन्ध कैसे हो सकता हैवास्तवमें देखा जाय तो फरक न तो स्वरूपमें पड़ता है और न शरीरइन्द्रियाँमनबुद्धिमें। कारण कि अपना जो स्वरूप है उसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी कोई परिवर्तन नहीं होता और प्रकृति तथा प्रकृतिके कार्य शरीरादि स्वाभाविक ही बदलते रहते हैं। तो फरक कहाँ पड़ता है शरीरसे तादात्म्य होनेके कारण बुद्धिमें फरक पड़ता है। जब यह तादात्म्य मिट जाता है तब बुद्धिमें जो फरक पड़ता था वह मिट जाता है और बुद्धि प्रतिष्ठित हो जाती है।दूसरा भाव यह है कि किसीकी बुद्धि कितनी ही तेज क्यों न हो और वह अपनी बुद्धिसे परमात्माके विषयमें कितना ही विचार क्यों न करता हो पर वह परमात्माको अपनी बुद्धिके अन्तर्गत नहीं ला सकता। कारण कि बुद्धि सीमित है और परमात्मा असीमअनन्त हैं। परन्तु उस असीम परमात्मामें जब बुद्धि लीन हो जाती है तब उस सीमित बुद्धिमें परमात्माके सिवाय दूसरी कोई सत्ता ही नहीं रहती यही बुद्धिका परमात्मामें प्रतिष्ठित होना है।कर्मयोगी क्रियाशील होता है। अतः भगवान्ने छप्पनवें श्लोकमें क्रियाकी सिद्धिअसिद्धिमें अस्पृहा और उद्वेगरहित होनेकी बात कही तथा इस श्लोकमें प्रारब्धके अनुसार अपनेआप अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितिके प्राप्त होनेपर अभिनन्दन और द्वेषसे रहित होनेकी बात कहते हैं। सम्बन्ध अब भगवान् आगेके श्लोकसे स्थितप्रज्ञ कैसे बैठता है इस तीसरे प्रश्नका उत्तर आरम्भ करते हैं।
।।2.57।। स्फूर्ति और प्रेरणा से भरा एक कुशल चित्रकार अपनी कल्पनाओं को विभिन्न रंगों के माध्यम से एक फलक पर व्यक्त करते समय बारम्बार अपने स्थान से पीछे हट कर चित्र को देखता है और प्रत्येक बार अत्यन्त प्रेम से अपनी तूलिका से चित्र का सौन्दर्य वर्धन करता है। यहाँ भगवान् श्री कृष्ण ज्ञानी पुरुष के चित्र को अर्जुन के हृदय पटल पर चित्रित करते हुये चुने हुये शब्दों में ज्ञानी के व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों पर और अधिक प्रकाश डालते हैं।यहाँ स्थितप्रज्ञ पुरुष की अनासक्ति का वर्णन है। इस श्लोक को भी प्रकरण के सन्दर्भ में उचित प्रकार से समझना चाहिये अन्यथा कोई भी उसका विपरीत अर्थ कर सकता है। जीवन से अनासक्ति मात्र विवेक का लक्षण नहीं हो सकता। अनेक मूढ़ उत्साही लोग जीवन में अपने कर्तव्यों को त्यागकर जंगलों में इस आशा से पलायन कर जाते हैं कि इस प्रकार के वैराग्य से उन्हें लक्ष्य की प्राप्ति हो जायेगी। अर्जुन भी पहले यही करना चाहता था। अर्जुन को इस अनर्थकारी निर्णय से विरत करने के लिये ही भगवान् ने उसे उपदेश देना प्रारम्भ किया।विषयों के साथ आत्मघातक संग और मूढ़ आसक्ति से स्वयं को इस प्रकार दूर कर लेने मात्र से ही उच्च दिव्य लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती। बाह्य विषयों से वैराग्य होने के साथसाथ सभी परिस्थितियों का सामना करने के लिए मन के आन्तरिक सन्तुलन की भी आवश्यकता होती है। शुभ प्राप्ति में हर्षातिरेक का और अशुभ प्राप्ति में द्वेष और विषाद का अभाव ये आत्मज्ञानी के लक्षण हैं।अनासक्ति अपने आप में श्रेष्ठ जीवन का मार्ग नहीं है क्योंकि वह तो जीवन से निरन्तर पलायन ही समझा जायेगा। उसी प्रकार जगत् में आसक्त होना परवशता का लक्षण है। ज्ञानी पुरुष में ये दोनों ही बातें नहीं होतीं वह तो जीवन में आने वाली सभी परिस्थितियों में समान भाव से रहता है। शीत ऋतु में घर के बाहर सूर्य की धूप सेंकना जहाँ आनन्द है वहीं उसकी चमक कष्ट का कारण भी है। सूर्य की चमक के प्रति असन्तोष प्रकट करना धूप के आनन्द को नष्ट करना है। बुद्धिमान पुरुष या तो उस चमक की ओर ध्यान नहीं देता अथवा चमक से अपने को सुरक्षित रखते हुये धूप का आनन्द उठाता है।हमारा जीवन भी शुभअशुभ का मिश्रण है। यह तो उसका स्वभाव ही है। अत सदैव अशुभ के प्रति असंतोष व्यक्त करते हुये उससे पलायन और शुभ की स्पृहा लगी रहना अविवेक के कारण ही सम्भव है। ज्ञानी पुरुष अपने नित्य स्वरूप में स्थित होने के कारण जीवन की उत्कृष्ट एवं निकृष्ट परिस्थितियों में पूर्ण वैराग्य के साथ रहता है।अर्जुन का प्रश्न था कि स्थित प्रज्ञ किस प्रकार बोलता है यह श्लोक उसके उत्तर स्वरूप है। शुभअशुभ हर्ष और विषाद के द्वन्द्वों से सर्वथा मुक्त ज्ञानी पुरुष के लिये सब सुन्दर ही है। अपनी कल्पनाओं का आरोप किये बिना वस्तुएँ जैसी हैं वह उनका वैसा ही अवलोकन करता है। ऐसा स्थितप्रज्ञ पुरुष पाश्चात्य मनोविज्ञान द्वारा ज्ञात व्यवहार के सभी नियमों से परे है।
2.57 The wisdom of that person remains established who has not attachment for anything anywhere, who neither welcomes nor rejects anything whatever good or bad when he comes across it.
2.57 He who is everywhere without attachment, on meeting with anything good or bad, who neither rejoices not hastes, his wisdom is fixed.
2.57. He, who has no desire in anything; and who neither rejoices nor hates on getting this or that, good or bad-his intellect is properly stabilized.
2.57 यः he who? सर्वत्र everywhere? अनभिस्नेहः without attachment? तत् that? तत् that? प्राप्य having obtained? शुभाशुभम् good and evil? न not? अभिनन्दति rejoices? न not? द्वेष्टि hates? तस्य of him? प्रज्ञा wisdom? प्रतिष्ठिता is fixed.Commentary The sage possesses poised understanding or evenness of mind. He does not rejoice in pleasure nor is he averse to pain that may befall him. He is ite indifferent as he is rooted in the Self. He has no attachment even for his life or body as he identifies himself with Brahman or the Supreme Self. He will not praise anybody when the latter does any good to him nor censure anyone when one does him any harm. This is the answer given by the Lord to Arjunas ery How does a sage of steady wisdom talk
2.57 Further, prajna, the wisdom; tasya, of that person, fo that sannyasin; pratisthita, remains established; yah, who; anabhi-snehah, has no attachment for; sarvatra, anything anywhere, even for body, life, etc.; who na abhinanadati, neither welcomes; na dvesti, nor rejects; tat tat, anything whatever; subha-asubham, good or bad; propya, when he comes across it, i.e. who does not rejoice on meeting with the good, nor reject the bad on meeting with it. Of such a person, who is thus free from elation or dejection, the wisdom arising from discrimination remains established.
2.57 Yah sarvatra etc. There is no joy or sorrow in him while meeting the good or the bad.
2.57 He, who, has no love for all pleasing objects, i.e., who is indifferent to them, and who does not feel attraction or repulsion when he is united with or separated from attractive or repulsive objects respectively, who neither rejoices at the former, nor hates the latter - he also is of firm wisdom. Sri Krsna now mentions the next lower state.
That person is without affections which are subject to conditions (anabhisneha). Unconditional affection out of mercifulness however should remain to some degree. He is fixed in those qualities On receiving something favorable to himself (subham), through respect or feeding for instance, he does not approve, and receiving disrespect (asubham), such as a punch of the fist, he does not disapprove. He does not say, “Oh, you are so religious, serving a great devotee. I bless you with happiness.” Nor does he curse the disrespectful person saying, “Go to hell, you sinful creature.” He is prajna pratisthita, situated in samadhi (samadhim prati sthita), or well situated in prajna or samadhi.
The question how does such a person talk is now being answered. He who is without affection even towards friends and relatives, neither praising what is congenial or criticising what is uncongenial is steady in wisdom. This is the meaning.
Lord Krishna explains here that one devoid of attachment to everything, when exposed to that which is good does not rejoice, neither does such a one lament when exposed to that which is not good.
Forming no attachments in any situation means to be indifferent, unconcerned in an aloof state or attitude. Auspicious is a situation that is pleasing and inauspicious is a situation that is displeasing. Lord Krishna is instructing not to be overjoyed by the pleasing nor despondent over the unpleasant. One who can successfully engage themselves thus is sthita-prajna situated in the perfect knowledge of transcendental consciousness. The next lower stage is given in the next verse.
Forming no attachments in any situation means to be indifferent, unconcerned in an aloof state or attitude. Auspicious is a situation that is pleasing and inauspicious is a situation that is displeasing. Lord Krishna is instructing not to be overjoyed by the pleasing nor despondent over the unpleasant. One who can successfully engage themselves thus is sthita-prajna situated in the perfect knowledge of transcendental consciousness. The next lower stage is given in the next verse.
Yah sarvatraanabhisnehas tattat praapya shubhaashubham; Naabhinandati na dweshti tasya prajnaa pratishthitaa.
yaḥ—who; sarvatra—in all conditions; anabhisnehaḥ—unattached; tat—that; tat—that; prāpya—attaining; śhubha—good; aśhubham—evil; na—neither; abhinandati—delight in; na—nor; dveṣhṭi—dejected by; tasya—his; prajñā—knowledge; pratiṣhṭhitā—is fixed