यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.58।।
।।2.58।। कछुवा अपने अंगों को जैसे समेट लेता है वैसे ही यह पुरुष जब सब ओर से अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों से परावृत्त कर लेता है? तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है।।
।।2.58।। ज्ञानी पुरुष के आत्मानन्द समत्व और अनासक्त भाव का वर्णन करने के पश्चात् इस श्लोक में इन्द्रियों पर उसके पूर्ण संयम का वर्णन किया गया है। अत्यन्त उपयुक्त उपमा के द्वारा उसके लक्षण को यहाँ स्पष्ट किया गया है। जैसे कछुवा किसी प्रकार के संकट का आभास पाकर अपने अंगों को समेट कर स्वयं को सुरक्षित कर लेता है वैसे ही ज्ञानी पुरुष में यह क्षमता होती है कि वह अपनी इच्छा से इन्द्रियों को विषयों से परावृत्त तथा उनमें प्रवृत्त भी कर सकता है।वेदान्त के प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रक्रिया के अनुसार अन्तकरण की चैतन्य युक्त वृत्ति इन्द्रियों के माध्यम से बाह्य देश स्थित विषय का आकार ग्रहण करती हैं और तब उस विषय का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। इस प्रक्रिया को कठोपनिषद् में इस प्रकार कहा गया है कि मानों चैतन्य का प्रकाश मस्तकस्थ सात छिद्रों (दो नेत्र दो कान दो नासिका छिद्र और मुख) के द्वारा बाहर किरण रूप में निकलकर वस्तुओं को प्रकाशित करता है। इस प्रकार एक विशेष इन्द्रिय द्वारा एक विशिष्ट वस्तु प्रकाशित होती है जैसे आँख से रूप रंग और कान से शब्द। भौतिक जगत् में हम विद्युत का उदाहरण ले सकते हैं जो सामान्य बल्ब में प्रकाश के रूप में व्यक्त होकर वस्तुओं को प्रकाशित करती है और वही विद्युत क्षकिरण नलिका से गुजर कर स्थूल शरीर को भेदकर आंतरिक अंगों को भी प्रकाशित कर सकती है जो सामान्यत प्रत्यक्ष नहीं होते।इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से सम्पूर्ण बाह्य जगत् का ज्ञान प्राप्त करता है। इन्द्रियों द्वारा निरन्तर प्राप्त होने वाली विषय संवेदनाओं के कारण मन में अनेक विक्षेप उठते रहते हैं। नेत्रों के अभाव में रूप से उत्पन्न विक्षेप नहीं होते और बधिर पुरुष को अपनी आलोचना सुनाई नहीं पड़ती जिससे कि उस के मन में क्षोभ हो यही बात अन्य इन्द्रियों के सम्बन्ध में भी है। भगवान् कहते हैं कि ज्ञानी पुरुष में यह क्षमता होती है कि वह स्वेचछा से इन्द्रियों को विषयों से परावृत्त कर सकता है।इन्द्रिय संयम की इस क्षमता को योगशास्त्र में प्रत्याहार कहते हैं जिसे योगी प्राणायाम की सहायता से प्राप्त करता है। ईश्वर की रूप माधुरी में प्रीति होने के कारण भक्त के मन में विषयजन्य विक्षेपों का अभाव स्वाभाविक रूप से ही होता है वेदान्त में इसे उपरति कहते हैं जिसे जिज्ञासु साधक अपने विवेक के बल पर विषयों की परिच्छिन्नता और व्यर्थता एवं आत्मा के आनन्दस्वरूप को समझकर प्राप्त करता है।रोग अथवा किसी अन्य कारण से विषयोपभोग न करने वाले पुरुष से विषय तो दूर हो जाते हैं परन्तु उनका स्वाद नहीं। इस स्वाद की भी निवृत्ति किस प्रकार हो सकती है सुनो