विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।2.59।।
।।2.59।।निराहारी (इन्द्रियोंको विषयोंसे हटानेवाले) मनुष्यके भी विषय तो निवृत्त हो जाते हैं पर रस निवृत्त नहीं होता। परन्तु इस स्थितप्रज्ञ मनुष्यका तो रस भी परमात्मतत्त्वका अनुभव होनेसे निवृत्त हो जाता है।
।।2.59।। निराहारी देही पुरुष से विषय तो निवृत्त (दूर) हो जाते हैं? परन्तु (उनके प्रति) राग नहीं परम तत्व को देखने पर इस (पुरुष) का राग भी निवृत्त हो जाता है।।
2.59।। व्याख्या विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः रसवर्जम् मनुष्य निराहार दो तरहसे होता है (1) अपनी इच्छासे भोजनका त्याग कर देना अथवा बीमारी आनेसे भोजनका त्याग हो जाना और (2) सम्पूर्ण विषयोंका त्याग करके एकान्तमें बैठना अर्थात् इन्द्रियोंको विषयोंसे हटा लेना।यहाँ इन्द्रियोंको विषयोंसे हटानेवाले साधकके लिये ही निराहारस्य पद आया है।रोगीके मनमें यह रहता है कि क्या करूँ शरीरमें पदार्थोंका सेवन करनेकी सामर्थ्य नहीं है इसमें मेरी परवश्ता है परन्तु जब मैं ठीक हो जाऊँगा शरीरमें शक्ति आ जायगी तब मैं पदार्थोंका सेवन करूँगा। इस तरह उसके भीतर रसबुद्धि रहती है। ऐसे ही इन्द्रियोंको विषयोंसे हटानेपर विषय तो निवृत्त हो जाते हैं पर साधकके भीतर विषयोंमें जो रसबुद्धि सुखबुद्धि है वह जल्दी निवृत्त नहीं होती।जिनका स्वाभाविक ही विषयोंमें राग नहीं है और जो तीव्र वैराग्यवान् हैं उन साधकोंकी रसबुद्धि साधनावस्थामें ही निवृत्त हो जाती है। परन्तु जो तीव्र वैराग्यके बिना ही विचारपूर्वक साधनमें लगे हुए हैं उन्हीं साधकोंके लिये यह कहा गया है कि विषयोंका त्याग कर देनेपर भी उनकी रसबुद्धि निवृत्त नहीं होती। रसोऽप्यस्य परं दृष्टा निवर्तते इस स्थितप्रज्ञकी रसबुद्धि परमात्माका अनुभव हो जानेपर निवृत्त हो जाती है। रसबुद्धि निवृत्त होनेसे वह स्थितप्रज्ञ हो ही जाता है यह नियम नहीं है। परन्तु स्थितप्रज्ञ होनेसे रसबुद्धि नहीं रहती यह नियम है। रसोऽप्यस्य पदसे यह तात्पर्य निकलता है कि रसबुद्धि साधककी अहंतामें अर्थात् मैं पनमें रहती है। यही रसबुद्धि स्थूलरूपसे रागका रूप धारण कर लेती है। अतः साधकको चाहिये कि वह अपनी अहंतासे ही रसको निकाल दे कि मैं तो निष्काम हूँ राग करना कामना करना मेरा काम नहीं है। इस प्रकार निष्कामभाव आ जानसे अथवा निष्काम होनेका उद्देश्य होनेसे रसबुद्धि नहीं रहती और परमात्मतत्त्वका अनुभव होनेसे रसकी सर्वथा निवृत्ति हो जाती है। सम्बन्ध रसकी निवृत्ति न हो क्या आपत्ति है इसे आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।2.59।। प्रत्याहार या उपरति की क्षमता के बिना कभी कोई व्यक्ति किसी रोग के कारण या क्षणिक दुख के आवेग में अथवा व्रत आदि कारणों से विषय उपभोग को छोड़ देता है। उस समय ऐसा प्रतीत होता है कि विषयों से वैराग्य अथवा द्वेष हो गया है किन्तु उनके प्रति मन में स्थित राग केवल कुछ समय के लिये अव्यक्त अवस्था में रहता है। अर्जुन के मन में शंका उत्पन्न होती है कि संभवत योगी का इन्द्रिय संयम भी क्षणिक अनित्य ही हो जो अनुकूल या प्रलोभनपूर्ण परिस्थितियों में टूट जाता हो। उसकी इस शंका का निवारण यहाँ किया गया है।यदि आप दुकानों से ग्राहकों तक उपभोग के विषय की गति का अवलोकन करें तो इस सिद्धांत को स्पष्ट रूप में समझ सकते हैं। उपभोग की वे वस्तुयें केवल उन्हीं लोगों के घर पहुँचती हैं जो उनकी तीव्र इच्छा किये हुये उन वस्तुओं को पाने के लिये प्रयत्न कर रहे होते हैं। मद का भण्डार तब खाली हो जाता है जब बोतलें चलकर मद्यपियों की आलमारियों को भर देती हैं लुहार के बनाये हल केवल किसान के घर जाते हैं और न कि किसी कलाकार कवि चिकित्सक या वकील के घर में। इसी प्रकार उन विषयों के इच्छुक लोगों के पास ही वे विषय पहुँचते हैं। भोगों के त्यागी व्यक्ति से भोग की वस्तुयें दूर ही रहती हैं।निराहार रहने से विषय तो दूर हो जायेंगे परन्तु उनके प्रति मन में पूर्वानुभवजनित रस अर्थात् स्वाद या राग निवृत्त नहीं होता। भगवान् यहाँ आश्वासन देते हैं कि परम आत्मतत्त्व की अपरोक्षानुभूति होने पर यह राग भी समाप्त हो जाता है या भुने हुये बीजों के समान मनुष्य के मन में विषय प्रभावहीन हो जाते हैं।इस तथ्य को समझना कठिन नहीं क्योंकि हम जानते हैं कि अनुभव की एक अवस्था विशेष में प्राप्त अनिष्ट वस्तुयें और दुख दूसरी अवस्था में उसी प्रकार नहीं रहते। स्वप्नावस्था का राज्य मेरी जाग्रदवस्था के दारिद्र्य को दूर नहीं करता किन्तु जाग्रदवस्था का दारिद्र्य भी स्वप्न के राज्य का उपभोग करने से मुझे वंचित नहीं कर सकता जाग्रत् स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था में रहते हुए अहंकार ने असंख्य विषय वासनायें अर्जित कर ली हैं। परन्तु अवस्थात्रय अतीत शुद्ध चैतन्य स्वरूप को पहचान कर अहंकार ही समाप्त हो जाता है तब ये वासनायें किस पर अपना प्रभाव दिखायेंगी।आत्मप्रज्ञा प्राप्त करने के इच्छुक साधक का सर्वप्रथम उसकी इन्द्रियों पर संयम होना आवश्यक है अन्यथा