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Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 6

भगवद् गीता अध्याय 2 श्लोक 6

न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम
स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।।2.6।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद

।।2.6।। हम नहीं जानते कि हमें क्या करना उचित है। हम यह भी नहीं जानते कि हम जीतेंगे? या वे हमको जीतेंगे? जिनको मारकर हम जीवित नहीं रहना चाहते वे ही धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे सामने युद्ध के लिए खड़े हैं।।

हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी

।।2.6।। इसके पूर्व के दो श्लोक निसन्देह अर्जुन के मन की व्याकुलता और भ्रमित स्थिति का संकेत करते हैं। इस श्लोक में बताया जा रहा है कि अर्जुन के मन के संभ्रम का प्रभाव उसकी विवेक बुद्धि पर भी पड़ा है। शत्रुओं की सेना को देखकर उसके मन में एक समस्या उत्पन्न हुई जिसके समाधान के लिये उसे बौद्धिक विवेक शक्ति के मार्गदर्शन की आवश्यकता थी परन्तु अहंकार और युद्ध के परिणाम के सम्बन्ध में अत्यधिक चिन्तातुर होने के कारण उसका मन बुद्धि से वियुक्त हो चुका था। इस कारण ही अर्जुन के मन और बुद्धि के बीच एक गहरी खाई उत्पन्न हो गयी थी।किसी कार्यालय के कुशल लिपिक की भांति हमारा मन ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा भिन्नभिन्न विषयों को ग्रहण कर उनको एक व्यवस्थित रूप में बुद्धि के समक्ष निर्णय के लिये प्रस्तुत करता है। बुद्धि अपने पूर्व अनुभवों के आधार पर निर्णय देती है जिसे मन कमेन्द्रियों के द्वारा बाह्य जगत में व्यक्त करता है। हमारी जाग्रत अवस्था के प्रत्येक क्षण यह समस्त कार्यकलाप होता रहता है।जहाँ पर इन उपाधियों का कार्य सुचारु रूप से एक संगठित दल अथवा व्यक्तियों की भाँति नहीं होता वहाँ वह व्यक्ति अन्दर से अस्तव्यस्त हो जाता है और जीवन में आने वाली परिस्थितियों का सफलतापूर्वक सामना करने में सक्षम नहीं हो पाता। जब ज्ञान के द्वारा पुन मन और बुद्धि में संयोजन आ जाता है तब वही व्यक्ति कुशलतापूर्वक अपना कार्य करने में समर्थ हो जाता है।अर्जुन की निर्णयात्मिका शक्ति पर बाह्य परिस्थितियों का प्रभाव नहीं था बल्कि अपनी मानसिक विह्वलता के कारण वह अपने आप को कोई निर्णय देने में असमर्थ पा रहा था। वह यह नहीं निश्चय कर पा रहा था कि युद्ध में उसे विजयी होना चाहिये अथवा कौरवों को जिताना चाहिये। व्यास जी यहाँ दर्शाते हैं कि इस मोह का प्रभाव न केवल अर्जुन के मन पर बल्कि उसकी बुद्धि पर भी पड़ा था।