यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्िचतः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।2.60।।
।।2.60।। हे कौन्तेय (संयम का) प्रयत्न करते हुए बुद्धिमान (विपश्चित) पुरुष के भी मन को ये इन्द्रियां बलपूर्वक हर लेती हैं।।
।।2.60।। अब तक के अपने प्रवचन में भगवान् श्रीकृष्ण ने ज्ञानी पुरुष के इन्द्रिय संयम की सार्मथ्य पर विशेष बल दिया है। भारत में दर्शनशास्त्र के सिद्धान्तों को अव्यावहारिक होने पर स्वीकारा नहीं जाता। अत गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को उन साधनों का भी उपदेश देते हैं जिनके अभ्यास से वह भी स्थितप्रज्ञ के पूर्णत्व को प्राप्त कर सकता है।सत्त्व (विवेकशीलता) रज (क्रियाशीलता ) और तम (निष्क्रियता) इन तीन गुणों का प्रभाव प्रत्येक व्यक्ति के अन्तकरण पर पड़ता है। तमोगुण के आवरण तथा रजोगुण के विक्षेप के कारण जब सत्त्व गुण भी दूषित हो जाता है तब अनेक दुखों को हमें भोगना पड़ता है। यदि इन्द्रियों पर पूर्ण संयम न हो तो वे मन को विषयों की ओर बलपूर्वक खींच ले जायेंगी जिसका एक मात्र परिणाम होगा दुख। इस श्लोक में स्वीकार किया गया है कि ऐसी स्थिति किसी बुद्धिमान साधक की भी कभीकभी होती है। यह वाक्य भयभीत करने या किसी को निरुत्साहित करने के लिए नहीं समझना चाहिए। अर्जुन को केवल इस बात की सावधानी रखने को कहा गया है कि वह कभी अपने मन का बुद्धि पर आधिपत्य स्थापित न होने दे। सावधानी की यह सूचना अत्यन्त समयोचित है।अध्यात्म साधना का अभ्यास करने वाले अनेक साधकों के पतन का कारण एक ही है। कुछ वर्षों तक तो वे संयम के प्रति सजग रहते हैं जिसके फलस्वरूप उन्हें आनन्द भी मिलता है। तत्पश्चात् स्वयं पर अत्यधिक विश्वास के कारण तप के प्रति उनकी जागरूकता कम हो जाती है और तब स्वाभाविक ही इन्द्रियाँ बलपूर्वक मन को विषयों में खींच ले जाती हैं और साधक की शान्ति को नष्ट कर देती हैं।