यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्िचतः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।2.60।।
।।2.60।।हे कुन्तीनन्दन (रसबुद्धि रहनेसे) यत्न करते हुए विद्वान् मनुष्यकी भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ उसके मनको बलपूर्वक हर लेती हैं।
2.60।। व्याख्या यततो ह्यपि ৷৷. प्रसभं मनः (टिप्पणी प0 98.1) जो स्वयं यत्न करता है साधन करता है हरेक कामको विवेकपूर्वक करता है आसक्ति और फलेच्छाका त्याग करता है दूसरोंका हित हो दूसरोंको सुख पहुँचे दूसरोंका कल्याण हो ऐसा भाव रखता है और वैसी क्रिया भी करता है जो स्वयं कर्त्तव्यअकर्त्तव्य सारअसारको जानता है और कौनकौनसे कर्म करनेसे उनका क्याक्या परिणाम होता है इसको भी जाननेवाला है ऐसे विद्वान पुरुषके लिय यहाँ यततो ह्यपि पुरुषस्य विपश्चितः पद आये हैं। प्रयत्न करनेवाले ऐसे विद्वान् पुरुषकी भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ उसके मनको बलपूर्वक हर लेती हैं विषयोंकी तरफ खींच लेती हैं अर्थात् वह विषयोंकी तरफ खिंच जाता है आकृष्ट हो जाता है। इसका कारण यह है कि जबतक बुद्धि सर्वथा परमात्मतत्त्वमें प्रतिष्ठित (स्थित) नहीं होती बुद्धिमें संसारकी यत्किञ्चित् सत्ता रहती है विषयेन्द्रियसम्बन्धसे सुख होता है भोगे हुए भोगोंके संस्कार रहते हैं तबतक साधनपरायण बुद्धिमान् विवेकी पुरुषकी भी इन्द्रियाँ सर्वथा वशमें नहीं होतीं। इन्द्रियोंके विषय सामने आनेपर भोगे हुए भोगोंके संस्कारओंके कारण इन्द्रियाँ मनबुद्धिको जबर्दस्ती विषयोंकी तरफ खींच ले जाती हैं। ऐसे अनेक ऋषियोंके उदाहरण भी आते हैं जो विषयोंके सामने आनेपर विचलित हो गये। अतः साधकको अपनी इन्द्रियोंपर कभी भी मेरी इन्द्रियाँ वशमें है ऐसा विश्वास नहीं करना चाहिये (टिप्पणी प0 98.2) और कभी भी यह अभिमान नहीं करना चाहिये कि मैं जितेन्द्रिय हो गया हूँ। सम्बन्ध पूर्वश्लोकमें यह बताया कि रसबुद्धि रहनेसे यत्न करते हुए विद्वान् मनुष्यकी भी इन्द्रियाँ उसके मनको हर लेती हैं जिससे उसकी बुद्धि परमात्मामें प्रतिष्ठित नहीं होती। अतः रसबुद्धिको दूर कैसे किया जाय इसका उपाय आगेके श्लोकमें बताते हैं।