तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.61।।
।।2.61।।कर्मयोगी साधक उन सम्पूर्ण इन्द्रियोंको वशमें करके मेरे परायण होकर बैठे क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ वशमें हैं उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है।
2.61।। व्याख्या तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः जो बलपूर्वक मनका हरण करनेवाली इन्द्रियाँ हैं उन सबको वशमें करके अर्थात् सजगतापूर्वक उनको कभी भी विषयोंमें विचलित न होने देकर स्वयं मेरे परायण हो जाय। तात्पर्य यह हुआ कि जब साधक इन्द्रियोंको वशमें करता है तब उसमें अपने बलका अभिमान रहता है कि मैंने इन्द्रियोंको अपने वशमें किया है। यह अभिमान साधकको उन्नत नहीं होने देता और उसे भगवान्से विमुख करा देता है। अतः साधक इन्द्रियोंका संयमन करनेमें कभी अपने बलका अभिमान न करे उसमें अपने उद्योगको कारण न माने प्रत्युत केवल भगवत्कृपाको ही कारण माने कि मेरेको इन्द्रियोंके संयमनमें जो सफलता मिली है वह केवल भगवान्की कृपासे ही मिली है। इस प्रकार केवल भगवान्के परायण होनेसे उसका साधन सिद्ध हो जाता है।यहाँ मत्परः कहनेका मतलब है कि मानवशरीरका मिलना साधनमें रुचि होना साधनमें लगना साधनका सिद्ध होना ये सभी भगवान्की कृपापर ही निर्भर हैं। परन्तु अभिमानके कारण मनुष्यका इस तरफ ध्यान कम जाता है। कर्मयोगीयोंमें तो कर्म करनेकी ही प्रधानता रहती है और उसमें वह अपना ही पुरुषार्थ मानता रहता है। अतः भगवान् विशेष कृपा करके कर्मयोगी साधकके लिये भी अपने परायण होनेकी बात कह रहे हैं।भगवान्के परायण होनेका तात्पर्य है केवल भगवान्में ही महत्त्वबुद्धि हो कि भगवान् ही मेरे हैं और मैं भगवान्का हूँ संसार मेरा नहीं है और मैं संसारका नहीं हूँ। कारण कि भगवान् ही हरदम मेरे साथ रहते हैं संसार मेरे साथ रहता ही नहीं। इस प्रकार साधकका मैंपन केवल भगवान्में ही लगा रहे।कर्मयोगका प्रकरण होनेसे यहाँ भगवान्को कर्मयोगके अनुसार उपाय बताना चाहिये था। परन्तु गीताका अध्ययन करनेसे ऐसा मालूम देता है कि साधनकी सफलतामें केवल भगवत्परायणता ही कारण है। अतः गीतामें भगवत्परायणताकी बहुत महिमा गायी गयी है जैसे जितने भी योगी हैं उन सब योगियोंमें श्रद्धाप्रेमपूर्वक मेरे परायण होकर मेरा भजन करनेवाला श्रेष्ठ है (6। 47 ) आदिआदि। वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता पहले उनसठवें श्लोकमें भगवान्ने यह कहा कि इन्द्रियोंका विषयोंसे सम्बन्धविच्छेद होनेपर भी स्थितप्रज्ञता नहीं होती और इस श्लोकमें कहते हैं कि जिसकी इन्द्रियाँ वशमें हैं वह स्थितप्रज्ञ है। इसका तात्पर्य यह है कि वहाँ (2। 59 में) इन्द्रियोंका विषयोंसे सम्बन्धविच्छेद होनेपर भी भीतरमें रसबुद्धि पड़ी है अतः इन्द्रियाँ वशमें नहीं है। परन्तु यहाँ स्थितप्रज्ञ पुरुषकी इन्द्रियाँ वशमें हैं और उसकी रसबुद्धि निवृत्त हो गयी है। इसलिये यह नियम नहीं है कि इन्द्रियोंका विषयोंसे सम्बन्धविच्छेद होनेपर वह स्थितप्रज्ञ हो ही जायगा क्योंकि उसमें रसबुद्धि रह सकती है। परन्तु यह नियम है स्थितप्रज्ञ होनेसे इन्द्रियाँ वशमें हो ही जायँगी। सम्बन्ध भगवान्के परायण होनेसे तो इन्द्रियाँ वशमें होकर रसबुद्धि निवृत्त हो ही जायगी पर भगवान्के परायण न होनेसे क्या होता है इसपर आगेके दो श्लोक कहते हैं।