ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।2.62।।
।।2.62 2.63।।विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्तिसे कामना पैदा होती है। कामनासे क्रोध पैदा होता है। क्रोध होनेपर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोहसे स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धिका नाश हो जाता है। बुद्धिका नाश होनेपर मनुष्यका पतन हो जाता है।
।।2.62।। विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उसमें आसक्ति हो जाती है? आसक्ति से इच्छा और इच्छा से क्रोध उत्पन्न होता है।।
2.62।। व्याख्या ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते भगवान्के परायण न होनेसे भगवान्का चिन्तन न होनेसे विषयोंका ही चिन्तन होता है। कारण कि जीवके एक तरफ परमात्मा है और एक तरफ संसार है। जब वह परमात्माका आश्रय छोड़ देता है तब वह संसारका आश्रय लेकर संसारका ही चिन्तन करता है क्योंकि संसारके सिवाय चिन्तनका कोई दूसरा विषय रहता ही नहीं। इस तरह चिन्तन करतेकरते मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति राग प्रियता पैदा हो जाती है। आसक्ति पैदा होनेसे मनुष्य उन विषयोंका सेवन करता है। विषयोंका सेवन चाहे मानसिक हो चाहे शारीरिक हो उससे जो सुख होता है उससे विषयोंमें प्रियता पैदा होती है। प्रियतासे उस विषयका बारबार चिन्तन होने लगता है। अब उस विषयका सेवन करे चाहे न करे पर विषयोंमें राग पैदा हो ही जाता है यह नियम है। सङ्गात्संजायते कामः विषयोंमें राग पैदा होनेपर उन विषयोंको (भोगोंको) प्राप्त करनेकी कामना पैदा हो जाती है कि वे भोग वस्तुएँ मेरेको मिलें। कामात्क्रोधोऽभिजायते कामनाके अनुकूल पदार्थोंके मिलते रहनेसे लोभ पैदा हो जाता है और कामनापूर्तिकी सम्भावना हो रही है पर उसमें कोई बाधा देता है तो उसपर क्रोध आ जाता है।कामना एक ऐसी चीज है जिसमें बाधा पड़नेपर क्रोध पैदा हो ही जाता है। वर्ण आश्रम गुण योग्यता आदिको लेकर अपनेमें जो अच्छाईका अभिमान रहता है उस अभिमानमें भी अपने आदर सम्मान आदिकी कामना रहती है उस कामनामें किसी व्यक्तिके द्वारा बाधा पड़नेपर भी क्रोध पैदा हो जाता है। कामना रजोगुणी वृत्ति है सम्मोह तमोगुणी वृत्ति है और क्रोध रजोगुण तथा तमोगुणके बीचकी वृत्ति है।कहीं भी किसी भी बातको लेकर क्रोध आता है तो उसके मूलमें कहींनकहीं राग अवश्य होता है। जैसे नीतिन्यायसे विरुद्ध काम करनेवालेको देखकर क्रोध आता है तो नीतिन्यायमें राग है। अपमानतिरस्कार करनेवालेपर क्रोध आता है तो मानसत्कारमें राग है। निन्दा करनेवालेपर क्रोध आता है तो प्रशंसामें राग है। दोषारोपण करनेवालेपर क्रोध आता है तो निर्दोषताके अभिमानमें राग है आदिआदि। क्रोधाद्भवति सम्मोहः क्रोधसे सम्मोह होता है अर्थात् मूढ़ता छा जाती है। वास्तवमें देखा जाय तो काम क्रोध लोभ और ममता इन चारोंसे ही सम्मोह होता है जैसे (1) कामसे जो सम्मोह होता है उसमें विवेकशक्ति ढक जानेसे मनुष्य कामके वशीभूत होकर न करनेलायक कार्य भी कर बैठता है।(2) क्रोधसे जो सम्मोह होता है उसमें मनुष्य अपने मित्रों तथा पूज्यजनोंको भी उलटीसीधी बातें कह बैठता है और न करनेलायक बर्ताव भी कर बैठता है।(3) लोभसे जो सम्मोह होता है उसमें मनुष्यको सत्यअसत्य धर्मअधर्म आदिका विचार नहीं रहता और वह कपट करके लोगोंको ठग लेता है।(4) ममतासे जो सम्मोह होता है उसमें समभाव नहीं रहता प्रत्युत पक्षपात पैदा हो जाता है।अगर काम क्रोध लोभ और ममता इन चारोंसे ही सम्मोह होता है तो फिर भगवान्ने यहाँ केवल क्रोधका ही नाम क्यों लिया इसमें गहराईसे देखा जाय तो काम लोभ और ममता इनमें तो अपने सुखभोग और स्वार्थकी वृत्ति जाग्रत रहती है पर क्रोधमें दूसरोंका अनिष्ट करनेकी वृत्ति जाग्रत् रहती है। अतः क्रोधसे जो सम्मोह होता है वह काम लोभ और ममतासे पैदा हुए सम्मोहसे भी भयंकर होता है। इस दृष्टिसे भगवान्ने यहाँ केवल क्रोधसे ही सम्मोह होना बताया है। सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः मूढ़ता छा जानेसे स्मृति नष्ट हो जाती है अर्थात् शास्त्रोंसे सद्विचारोंसे जो निश्चय किया था कि अपनेको ऐसा काम करना है ऐसा साधन करना है अपना उद्धार करना है उसकी स्मृति नष्ट हो जाती है उसकी याद नहीं रहती। स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशः स्मृति नष्ट होनेपर बुद्धिमें प्रकट होनेवाला विवेक लुप्त हो जाता है अर्थात् मनुष्यमें नया विचार करनेकी शक्ति नहीं रहती। बुद्धिनाशात्प्रणश्यति विवेक लुप्त हो जानेसे मनुष्य अपनी स्थितिसे गिर जाता है। अतः इस पतनसे बचनेके लिये सभी साधकोंको भगवान्के परायण होनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है।यहाँ विषयोंका ध्यान करनेमात्रसे राग रागसे काम कामसे क्रोध क्रोधसे सम्मोह सम्मोहसे स्मृतिनाश स्मृतिनाशसे बुद्धिनाश और बुद्धिनाशसे पतन यह जो क्रम बताया है इसका विवेचन करनेमें तो देरी लगती है पर इन सभी वृत्तियोंके पैदा होनेमें और उससे मनुष्यका पतन होनेमें देरी नहीं लगती। बिजलीके करेंटकी तरह ये सभी वृत्तियाँ तत्काल पैदा होकर मनुष्यका पतन करा देती हैं। सम्बन्ध अब भगवान् आगेके श्लोकमें स्थितप्रज्ञ कैसे चलता है इस चौथे प्रश्नका उत्तर देते हैं।
।।2.62।। no commentary.
2.62-2.63 In the case of a person who dwells on objects, there arises attachment for them. From attachment grows hankering, from hankering springs anger.
2.62 When a man thinks of the objects, attachment for them arises; from attachment desire is born; from desire anger arises.
2.62. In a person, meditating on sense-objects, attachment or them is born in succession; from attachment springs passion; from passion arises wrath.
2.62 ध्यायतः thinking? विषयान् (on) objects of the senses? पुंसः of a man? सङ्गः attachment? तेषु in them? उपजायते arises? सङ्गात् from attachment? संजायते is born? कामः desire? कामात् from desire? क्रोधः anger? अभिजायते arises.Commentary When a man thinks of the beauty and the pleasant and alluring features of the senseobjects he becomes attached to them. He then regards them as something worthy of acisition and possession and hankers after them. He develops a strong desire to possess them. Then he endeavours his level best to obtain them. When his desire is frustrated by some cause or other? anger arises in his mind. If anybody puts any obstruction in his way of obtaining the objects he hates him? fights with him and develops hostility towards hi. (Cf.II.64).
2.62 Pumsah, in the case of a person; dhyayatah, who dwells on, thinks of; visayan, the objects, the specialities [Specialities: The charms imagined in them.] of the objects such as sound etc.; upajayate, there arises; sangah, attachment, fondness, love; tesu, for them, for those objects. Sangat, from attachment, from love; sanjayate, grows; kamah, hankering, thirst. When that is obstructed from any arter, kamat, from hankering; abhijayate, springs; krodhah, anger. Krodhat, from anger; bhavati, follows; sammohah, delusion, absence of discrimination with regard to what should or should not be done. For, an angry man, becoming deluded, abuses even a teacher. Sammohat, from delusion; (comes) smrti-vibhramah, failure of memory originating from the impressions acired from the instructions of the scriptures and teachers. When there is an occasion for memory to rise, it does not occur. Smrti-bhramsat, from that failure of memory; (results) buddhi-nasah, loss of understanding. The unfitness of the mind to discriminate between what should or should not be done is called loss of understanding. Buddhi-nasat, from the loss of understanding; pranasyati, he perishes. Indeed, a man continues tobe himself so long as his mind remains fit to distinguish between what he ought to and ought not do. When it becomes unfit, a man is verily ruined. Therefore, when his internal organ, his understanding, is destroyed, a man is ruined, i.e. he becomes unfit for the human Goal. Thinking of objects has been said to be the root of all evils. After that, this which is the cause of Liberation is being now stated: [If even the memory of objects be a source of evil, then their enjoyment is more so. Hence, a sannyasin seeking Liberation cannot avoid this evil, since he has to move about for food which is necessary for the maintenance of his body. The present verse is an answer to this apprehension.]
2.62 See Comment under 2.63
2.62 Indeed, in respect of a person, whose attachment to sense-objects is expelled but whose mind is not focussed on Me, even though he controls the senses, contemplation on sense-objects is unavoidable on account of the impressions of sins from time immemorial. Again attachment increases fully in a man who thinks about sense-objects. From attachment arises desire. What is called desire is the further stage of attachment. After reaching that stage, it is not possible for a man to stay without experiencing the sense-objects. From such desire arises anger. When a desire exists without its object being nearby, anger arises against persons nearby under the following. Our desire is thwarted by these persons. From anger there comes delusion. Delusion is want of discrimination between what ought to be done and what ought not to be done. Not possessing that discrimination one does anything and everything. Then there follows the failure of memory, i.e., of the impressions of the earlier efforts of sense control, when one strives again to control the senses.
The sthita prajna controls also the mind. That indeed is the cause of control of the senses. If one does not have control of the mind at all, please hear the result. A person who thinks of the sense objects develops attachment (sanga) to them. And by that attachment, he develops strong desire (kama) for those objects. From desire, anger develops due to obstruction to fulfilling the desire from someone or something.
Having pointed out the defect of not having the external physical senses under control, the defect in not having the mind under control is now being given in these two verses. For one who is given to dreaming about sensual pursuits considering them worthy of indulgence a strong attachment develops for them. From this strong attachment arises addicting desires for them, from these addicting desires flares up anger when these addicting desires are not satisfied. Bhagavad-Gita:
There is no commentary for this verse.
There is no commentary for this verse.
Lord Krishna states that one who contemplates sensual objects like form and touch develops in the mind attachment for them in the form of lust deluded into believing such objects to be the root cause of apparent happiness. From this attachment springs desire which is but a modification of attachment. Sometimes one is able to gratify ones senses by enjoying these sense objects. At that time a particular state of mind arises where one becomes enslaved and controlled by the desire of the very same object one is seeking so desperately to exploit. Other times ones desires are thwarted and obstructed and unfulfilled in satisfying ones desire to experience sense objects leads to frustration which is also a modification of the mind. At this time anger is directed in fury towards whatever it was that became the obstacle that blocked ones gratification.
Dhyaayato vishayaan pumsah sangas teshupajaayate; Sangaat sanjaayate kaamah kaamaat krodho’bhijaayate.
dhyāyataḥ—contemplating; viṣhayān—sense objects; puṁsaḥ—of a person; saṅgaḥ—attachment; teṣhu—to them (sense objects); upajāyate—arises; saṅgāt—from attachment; sañjāyate—develops; kāmaḥ—desire; kāmāt—from desire; krodhaḥ—anger; abhijāyate—arises