प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।2.65।।
।।2.65।। प्रसाद के होने पर सम्पूर्ण दुखों का अन्त हो जाता है और प्रसन्नचित्त पुरुष की बुद्धि ही शीघ्र ही स्थिर हो जाती है।।
।।2.65।। शान्ति के मिलने पर क्या होगा ऐसा प्रश्न मानव बुद्धि में उठना स्वाभाविक है। शान्ति प्राप्त होने पर सब दुखों का अन्त हो जाता है। इस वाक्य में सुख की परिभाषा मिलती है। विक्षेपों का होना दुख कहलाता है। अत विक्षेपों के अभाव रूप मन की शान्ति का अर्थ सुख ही होना चाहिये। शान्ति ही सुख है और सुख ही शान्ति है।यहाँ दुखों की हानि से तात्पर्य वासना निवृत्ति से समझना चाहिये। गीता की प्रस्तावना में हमने देखा है कि बुद्धि पर पड़े वासनाओं के आवरण के कारण मनुष्य शोकमोह को प्राप्त होता है जबकि ज्ञानी पुरुष पूर्ववर्णित बुद्धियोग के अभ्यास से वासनाओं का क्षय करके उनके परे आत्मतत्त्व को पहचान लेता है। सामान्यत वासनाओं से मुक्ति पाना मनुष्य के लिये कठिन प्रतीत होता है परन्तु आत्मसंयम एवं समत्त्वयोग के द्वारा यह कार्य सम्पादन किया जा सकता है।अगले श्लोक में भगवान् कहते हैं