नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।2.66।।
।।2.66।।जिसके मनइन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं ऐसे मनुष्यकी व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं होती। व्यवसायात्मिका बुद्धि न होनेसे उसमें कर्तव्यपरायणताकी भावना नहीं होती। ऐसी भावना न होनेसे उसको शान्ति नहीं मिलती। फिर शान्तिरहित मनुष्यको सुख कैसे मिल सकता है
2.66।। व्याख्या यहाँ कर्मयोगका विषय है। कर्मयोगमें मन और इन्द्रयोंका संयम करना मुख्य होता है। विवेकपूर्वक संयम किये बिना कामना नष्ट नहीं होती। कामनाके नष्ट हुए बिना बुद्धिकी स्थिरता नहीं होती। अतः कर्मयोगी साधकको पहले मन और इन्द्रियोंका संयम करना चाहिये। परन्तु जिसका मन और इन्द्रियाँ संयमित नहीं है उसकी बात इस श्लोकमें कहते हैं। नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य जिसका मन और इन्द्रियाँ संयमित नहीं है ऐसे अयुक्त (असंयमी) पुरुषकी मेरेको केवल परमात्मप्राप्ति ही करनी है ऐसी एक निश्चयवाली बुद्धि नहीं होती (टिप्पणी प0 103.1) । कारण कि मन और इन्द्रियाँ संयमित न होनेसे वह उत्पत्ति विनाशशील सांसारिक भोगों और संग्रहमें ही लगा रहता है। वह कभी मान चाहता है कभी सुखआराम चाहता है कभी धन चाहता है कभी भोग चाहता है इस प्रकार उसके भीतर अनेक तरहकी कामनाएँ होती रहती हैं। इसलिये उसकी बुद्धि एक निश्चयवाली नहीं होती। न चायुक्तस्य भावना जिसकी बुद्धि व्यवसायात्मिका नहीं होती उसकी मेरेको तो केवल अपने कर्तव्यका पालन करना है और फलकी इच्छा कामना आसक्ति आदिका त्याग करना है ऐसी भावना नहीं होती। ऐसी भावना न होनेमें कारण है अपना ध्येय स्थिर न होना। न चाभावयतः शान्तिः जो अपने कर्तव्यके परायण नहीं रहता उसको शान्ति नहीं मिल सकती। जैसे साधु शिक्षक ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र आदि यदि अपनेअपने कर्तव्यमें तत्पर नहीं रहते तो उनको शान्ति नहीं मिलती। कारण कि अपने कर्तव्यके पालनमें दृढ़ता न रहनेसे ही अशान्ति पैदा होती है। अशान्तस्य कुतः सुखम् जो अशान्त है वह सुखी कैसे हो सकता है कारण कि उसके हृदयमें हरदम हलचल होती रहती है। बाहरसे उसको कितने ही अनुकूल भोग आदि मिल जायँ तो भी उसके हृदयकी हलचल नहीं मिट सकती अर्थात् वह सुखी नहीं हो सकता। सम्बन्ध अयुक्त पुरुषकी बुद्धि एक निश्चयवाली क्यों नहीं होती इसका कारण आगेके श्लोकमें बताते हैं।