या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।2.69।।
।।2.69।।सम्पूर्ण मनुष्योंकी जो रात (परमात्मासे विमुखता) है उसमें संयमी मनुष्य जागता है और जिसमें साधारण मनुष्य जागते हैं (भोग और संग्रहमें लगे रहते हैं) वह तत्त्वको जाननेवाले मुनिकी दृष्टिमें रात है।
।।2.69।। सब प्रणियों के लिए जो रात्रि है? उसमें संयमी पुरुष जागता है और जहाँ सब प्राणी जागते हैं? वह (तत्त्व को) देखने वाले मुनि के लिए रात्रि है।।
2.69।। व्याख्या या निशा सर्वभूतानाम् जिनकी इन्द्रियाँ और मन वशमें नहीं हैं जो भोगोंमें आसक्त है वे सब परमात्मतत्त्वकी तरफसे सोये हुए हैं। परमात्मा क्या है तत्त्वज्ञान क्या है हम दुःख क्यों पा रहे हैं सन्तापजलन क्यों हो रही है हम जो कुछ कर रहे हैं उसका परिणाम क्या होगा इस तरफ बिलकुल न देखना ही उनकी रात है उनके लिये बिलकुल अँधेरा है।यहाँ भूतानाम् कहनेका तात्पर्य है कि जैसे पशुपक्षी आदि दिनभर खानेपीनेमें लगे रहते हैं ऐसे ही जो मनुष्य रातदिन खानेपीनेमें सुखआराममें भोगों और संग्रहमें धन कमानेमें ही लगे हुए हैं उन मनुष्योंकी गणना भी पशुपक्षी आदिमें ही है। कारण कि परमात्मतत्त्वसे विमुख रहनेमें पशुपक्षी आदिमें और मनुष्योंमें कोई अन्तर नहीं है। दोनों ही परमात्मतत्त्वकी तरफसे सोये हुए हैं। हाँ अगर कोई अन्तर है तो वह इतना ही है कि पशुपक्षी आदिमें विवेकशक्ति जाग्रत् नहीं है इसिलिये वे खानेपीने आदिमें ही लगे रहते हैं और मनुष्योंमें भगवान्की कृपासे वह विवेकशक्ति जाग्रत है जिससे वह अपना कल्याण कर सकता है प्राणिमात्रकी सेवा कर सकता है परमात्माकी प्राप्ति कर सकता है। परन्तु उस विवेकशक्तिका दुरूपयोग करके मनुष्य पदार्थोंका संग्रह करनेमें एवं उनका भोग करनेमें लग जाते हैं जिससे वे संसारके लिये पशुओंसे भी अधिक दुःखदायी हो जाते हैं। कारण कि पशुपक्षी तो बेचारे जितनेसे पेट भर जाय उतना ही खाते हैं संग्रह नहीं करते परन्तु मनुष्यको कहीं भी जो कुछ पदार्थ आदि मिल जाता है वह उसके काममें आये चाहे न आये उसका तो वह संग्रह कर ही लेता है और दूसरोंके काममें आनेमें बाधा डाल देता है। तस्यां जागर्ति संयमी मनुष्योंकी जो रात है अर्थात् परमात्माकी तरफसे अपने कल्याणकी तरफसे जो विमुखता है उसमें संयमी मनुष्य जागता है। जिसने इन्द्रियों और मनको वशमें किया है जो भोग और संग्रहमें आसक्त नहीं है जिसका ध्येय केवल परमात्मा है वह संयमी मनुष्य है। परमात्मतत्त्वको अपने स्वरूपको संसारको यथार्थरूपसे जानना ही उसका रातमें जागना है। यस्यां जाग्रति भूतानि जो भोग और संग्रहमें बड़े सावधान रहते हैं एकएक पैसेका हिसाब रखते हैं जमीनके एकएक इंचका खयाल रखते है जितने रूपये अधिकारमें आ जायँ वे चाहे न्यायपूर्वक हों अथवा अन्यायपूर्वक उसमें वे बड़े खुश होते हैं कि इतनी पूँजी तो हमने ले ही ली है इतना लाभ तो हमें हो ही गया है इस तरह वे सांसारिक क्षणभङ्गुर भोगोंको बटोरनेमें और आदरसत्कार मानबड़ाई आदि प्राप्त करनेमें ही लगे रहते हैं उनमें बड़े सावधान रहते हैं यही उन लोगोंका जागना है। सा निशा पश्यतो मुनेः जिन सांसारिक पदार्थोंका भोग और संग्रह करनेमें मनुष्य अपनेको बड़ा बुद्धिमान् चतुर मानते हैं और उसीमें राजी होते हैं संसार और परमात्मतत्त्वको जाननेवाले मननशील संयमी मनुष्यकी दृष्टिमें वह सब रातके समान है बिलकुल अँधेरा है।जैसे बच्चे खेलते हैं तो वे कंकड़पत्थर काँचके लालपीले टुकड़ोंको लेकर आपसमें लड़ते हैं। अगर वह मिल जाता है तो राजी होते हैं कि मैंने बहुत बड़ा लाभ उठा लिया और अगर वह नहीं मिलता तो दुःखी हो जाते हैं कि मेरी बड़ी भारी हानि हो गयी। परन्तु जिसके मनमें कंकड़पत्थर आदिका महत्त्व नहीं है ऐसा समझदार व्यक्ति समझता है कि इन कंकड़पत्थरोंके मिलनेसे क्या लाभ हुआ और न मिलनेसे क्या हानि हुई इन बच्चोंको अगर कंकड़पत्थर मिल भी जायँगे तो ये कबतक उनके साथ रहेंगे इसी तरह भोग और संग्रहमें लगे हुए मनुष्य भोगोंके लिये लड़ाईझगड़ा झूठकपट बेईमानी आदि करते हैं और उनको प्राप्त करके राजी होते हैं खुशी मनाते हैं कि हमने बहुत लाभ ले लिया। परन्तु संसारको और परमात्मतत्त्वको जाननेवाला मननशील संयमी मनुष्य साफ देखता है कि भोग मिल गये आदरसत्कार हो गया सुखआराम हो गया खापी लिया खूब श्रृंगार कर लिया तो क्या हो गया इसमें मनुष्योंको क्या मिला इनमेंसे इनके साथ क्या चलेगा ये कबतक इन भोगोंको साथमें रखेंगे इन भोगोंसे होनेवाली वृत्ति कितने दिनतक ठहरेगी इस तरह उसकी दृष्टिमें प्राणियोंका जागना रातके समान है।वह मननशील संयमी मनुष्य परमात्माको अपने स्वरूपको और संसारके परिणामको तो जानता ही है वह पदार्थोंको भी अच्छी तरहसे जानता है कि कौनसा पदार्थ किसके हितमें लग सकता है इससे दूसरोंको कितना लाभ होगा। वह पदार्थोंका अपनीअपनी जगह ठीक तरहसे सदुपयोग करता है। उनको दूसरोंकी सेवामें लगाता है।जैसे नेत्रोंमे दोष होनेपर जब हम आकाशको देखते हैं तब उसमें जालेसेदीखते हैं और आँखें मीच लेनेपर भी मोरपंखकी तरह वे जाले दीखते हैं परन्तु उनके दीखनेपर भी हमारी बुद्धिमें यह अटल निश्चय रहता है कि आकाशमें जाले नहीं है। ऐसे ही इन्द्रियों और अन्तःकरणके द्वारा संसार दीखनेपर भी मननशील संयमी मनुष्यकी बुद्धिमें यह अटल निश्चय रहता है कि वास्तवमें संसार नहीं है केवल प्रतीतिमात्र है। सम्बन्ध मननशील संयमी मनुष्यको संसार रातकी तरह दीखता है। इसपर यह प्रश्न उठता है कि क्या वह सांसारिक पदार्थोंके सम्पर्कमें आता ही नहीं अगर नहीं आता तो उसका जीवननिर्वाह कैसे होता है और अगर आता है तो उसकी स्थिति कैसे रहती है इन बातोंका विवेचन करनेके लिये आगेका श्लोक कहते हैं।
।।2.69।। ज्ञानी और अज्ञानी की दृष्टियों के बीच के भेद को स्पष्ट करना इस श्लोक का प्रयोजन है। शरीर और मन की उपाधियों के माध्यम से अनुभूत जगत् अध्यात्म के खुले वातायन से देखे गये हृदय से भिन्न होता है। यहाँ रूपक की भाषा में सिद्धांत को इतने पूर्ण रूप से कहा गया है कि अनेक शुष्क तर्क करने वाले लोग उसमें निहित काव्य के सौन्दर्य को देख नहीं पाते। काव्य और ज्ञान का समन्वय करना आर्य लोगों की विशेषता है और जब दार्शनिक कवि व्यास जी पूर्णत्व के आनन्द को व्यक्त करने के लिये अपनी लेखनी और भोजपत्र उठाते थे तब वे गीता में कविता से श्रेष्ठ अन्य कोई माध्यम प्रयुक्त नहीं कर सकते थे।अज्ञानी पुरुष जगत् को यथार्थ रूप में कभी नहीं देखता वह जगत् को अपने मन के रंग में रंगकर देखता है और फिर बाह्य वस्तुओं को ही दोषयुक्त समझता है। रंगीन चश्मे द्वारा जगत् को देखने पर वह रंगीन ही दिखाई देगा किन्तु जब कांच को हटा देते हैं तब वह जगत् जैसा है वैसा ही प्रतीत होता है।आज जब हम शरीर मन और बुद्धि के माध्यम से जगत् को देखते हैं तब वह स्वाभाविक ही परिच्छिन्न और दोषयुक्त अनुभव होता है किन्तु यह सब दोष उपाधियों का ही है। स्थितप्रज्ञ पुरुष अपनी ज्ञान की दृष्टि से जब देखता है तब उसे पूर्णत्व और आनन्द का ही अनुभव होता है।जब एक विद्युत अभियन्ता (इंजीनियर) किसी महानगर में पहुँचता है जहाँ संध्या के समय से ही सभी दिशाओं में विद्युत का प्रकाश जगमगाता है तब वह प्रश्न करता है कि यह ए.सी. है या डी. सी. जबकि उसी दृश्य को एक अनपढ़ ग्रामीण व्यक्ति आश्चर्य चकित होकर देखते हुए चिल्ला उठता है कि बिना तेल और बत्ती के प्रकाश को मैं देख रहा हूँ उस ग्रामीण की दृष्टि से वहां न विद्युत है और न ए. सी. डी. सी. की समस्या उस अभियन्ता की दृष्टि ग्रामीण को अज्ञात है और वह अभियन्ता भी उस ग्रामीण के आश्चर्य को समझ नहीं पाता।इस श्लोक में यह बताया गया है कि अज्ञानी र्मत्य जीव आत्मस्वरूप के प्रति सोया हुआ है जिसके प्रति ज्ञानी पुरुष पूर्णरूप से जागरूक है। जिन सांसारिक विषयों के प्रति अज्ञानी लोग सजग होकर व्यवहार करते हैं और दुख भोगते हैं स्थितप्रज्ञ पुरुष उसे रात्रि अर्थात् अज्ञान की अवस्था ही समझते हैं।जिसने समस्त कामनाओं का त्याग किया वही ज्ञानी भक्त मोक्ष प्राप्त करता है और कामी पुरुष कभी नहीं। इसे एक दृष्टान्त द्वारा भगवान् समझाते हैं