आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।2.70।।
।।2.70।।जैसे सम्पूर्ण नदियोंका जल चारों ओरसे जलद्वारा परिपूर्ण समुद्रमें आकर मिलता है पर समुद्र अपनी मर्यादामें अचल प्रतिष्ठित रहता है। ऐसे ही सम्पूर्ण भोगपदार्थ जिस संयमी मनुष्यमें विकार उत्पन्न किये बिना ही उसको प्राप्त होते हैं वही मनुष्य परमशान्तिको प्राप्त होता है भोगोंकी कामनावाला नहीं।
।।2.70।। जैसे सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में (अनेक नदियों के) जल (उसे विचलित किये बिना) समा जाते हैं? वैसे ही जिस पुरुष के प्रति कामनाओं के विषय उसमें (विकार उत्पन्न किये बिना) समा जाते हैं? वह पुरुष शान्ति प्राप्त करता है? न कि भोगों की कामना करने वाला पुरुष।।
2.70।। व्याख्या आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् वर्षाकालमें नदियों और नदोंका जल बहुत बढ़ जाता है कई नदियोंमें बाढ़ आ जाती है परन्तु जब वह जल चारों ओरसे जलद्वारा परिपूर्ण समुद्रमें आकर मिलता है तब समुद्र बढ़ता नहीं अपनी मर्यादामें ही रहता है। परन्तु जब गरमीके दिनोंमें नदियों और नदोंका जल जब बहुत कम हो जाता है तब समुद्र घटता नहीं। तात्पर्य है कि नदीनदोंका जल ज्यादा आनेसे अथवा कम आनेसे या न आनेसे तथा बड़वानल (जलमें पैदा होनेवाली अग्नि) और सूर्यके द्वारा जलका शोषण होनेसे समुद्रमें कोई फरक नहीं पड़ता वह बढ़ताघटता नहीं। उसको नदीनदोंके जलकी अपेक्षा नहीं रहती। वह तो सदासर्वदा ज्योंकात्यों ही परिपूर्ण रहता है और अपनी मर्यादाका कभी त्याग नहीं करता। तद्वत्कामा (टिप्पणी प0 106) यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति ऐसे ही संसारके सम्पूर्ण भोग उस परमात्मतत्त्वको जाननेवाले संयमी मनुष्यको प्राप्त होते हैं उसके सामने आते हैं पर वे उसके कहे जानेवाले शरीर और अन्तःकरणमें सुखदुःखरूप विकार पैदा नहीं कर सकते। अतः वह परमशान्तिको प्राप्त होता है। उसकी जो शान्ति है वह परमात्मतत्त्वके कारणसे है भोगपदार्थोंके कारणसे नहीं (गीता 2। 46)।यहाँ जो समुद्र और नदियोंके जलका दृष्टान्त दिया गया है वह स्थितप्रज्ञ संयमी मनुष्यके विषयमें पूरा नहीं घटता है। कारण कि समुद्र और नदियोंके जलमें तो सजातीयता है अर्थात् जो जल समुद्रमें भरा हुआ है उसी जातिका जल नदनदियोंसे आता है और नदनदियोंसे जो जल आता है उसी जातिका जल समुद्रमें भरा हुआ है। परन्तु स्थितप्रज्ञ और सांसारिक भोगपदार्थोंमें इतना फरक है कि इसको समझानेके लिये रातदिन आकाशपातालका दृष्टान्त भी नहीं बैठ सकता कारण कि स्थितप्रज्ञ मनुष्य जिस तत्त्वमें स्थित है वह तत्त्व चेतन है नित्य है सत्य है असीम है अनन्त है और सांसारिक भोगपदार्थ जड हैं अनित्य हैं असत् हैं सीमित हैं अन्तवाले हैं।दूसरा अन्तर यह है कि समुद्रमें तो नदियोंका जल पहुँचता है पर स्थितप्रज्ञ जिस तत्त्वमें स्थित है वहाँ ये सांसारिक भोगपदार्थ पहुँचते ही नहीं प्रत्युत केवल उसके कहे जानेवाले शरीर अन्तःकरणतक ही पहुँचते हैं।अतः समुद्रका दृष्टान्त केवल उसके कहे जानेवाले शरीर और अन्तःकरणकी स्थितिको बतानेके लिये ही दिया गया है। उसके वास्तविक स्वरूपको बतानेवाला कोई दृष्टान्त नहीं है। न कामकामी जिनके मनमें भोगपदार्थोंकी कामना है जो पदार्थोंको ही महत्त्व देते हैं जिनकी दृष्टि पदार्थोंकी तरफ ही है उनको कितने ही सांसारिक भोगपदार्थ मिल जायँ तो भी उनकी तृप्ति नहीं हो सकती उनकी कामना जलन सन्ताप नहीं मिट सकते तो फिर उनको शान्ति कैसे मिल सकती है कारण कि चेतन स्वरूपकी तृप्ति जड पदार्थोंसे हो ही नहीं सकती। सम्बन्ध अब आगेके श्लोकमें स्थितप्रज्ञ कैसे चलता है इस प्रश्नके उत्तरका उपसंहार करते हैं।
।।2.70।। यह सुविदित तथ्य है कि यद्यपि करोड़ों गैलन पानी अनेक सरिताओं द्वारा विभिन्न दिशाओं से आकर निरन्तर समुद्र में समाता रहता है तथापि समुद्र की मर्यादा किसी प्रकार भंग नहीं होती। इसी प्रकार ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से असंख्य विषय संवेदनाएँ ज्ञानी पुरुष के मन में पहुँचती रहती हैं फिर भी वे उसके अन्तकरण में किसी प्रकार का भी विकार अथवा क्षोभ उत्पन्न नहीं कर सकतीं।विषयों के बीच रहता हुआ इन्द्रियों के द्वारा समस्त व्यवहार करता हुआ भी जो पुरुष स्वस्वरूप की स्थिति से विचलित नहीं होता वही ज्ञानी है सन्त है। भगवान् स्पष्ट कहते हैं कि ऐसा पुरुष ही वास्तविक शान्ति और आनन्द प्राप्त करता है। इतना कहने मात्र से मानो उन्हें सन्तोष नहीं होता और आगे वे कहते हैं भोगों की कामना करने वाले पुरुषों को कभी शान्ति नहीं मिलती।उपर्युक्त विचार आधुनिक भौतिकवादी विचारधारा के सर्वथा विपरीत हैं। उनकी यह धारणा है कि अधिक इच्छाओं के होने से भौतिक उन्नति होगी और अधिक से अधिक इच्छाओं की पूर्ति से मनुष्य को सुखी बनाया जा सकता है। औद्योगीकरण और बड़ी मात्रा में उत्पादन के सिद्धांतों पर आधारित भौतिकवादी समाज का प्रयत्न मनुष्य में इच्छाओं की निरन्तर वृद्धि करने के लिए ही हो रहा है। परिणाम यह हुआ है कि आज के सामान्य मनुष्य की इच्छायें एक शताब्दी पूर्व अपने पूर्वजों की इच्छाओं से लाखगुना अधिक हैं। बड़ेबड़े व्यापारी और उद्योगपति विज्ञान की आधुनिक उपलब्धियों की सहायता से नईनई इच्छायें उत्पन्न करने और उन्हें पूर्ण करने का प्रयत्न करते रहते हैं। जिस मात्रा में मनुष्य की इच्छायें पूर्ण होती हैं उसे कहा जाता है कि अब वह पहले से कहीं अधिक सुखी है।इसके विपरीत भारत के प्राचीन महान् विचारकों ने स्वानुभव सूक्ष्म निरीक्षण एवं अध्ययन से यह पाया कि इच्छाओं की पूर्ति से प्राप्त सुख कभी पूर्ण नहीं हो सकता। सुख की मात्रा को गणित की भाषा में इस प्रकार बताया जा सकता है सुख की मात्रा पूर्ण हुई इच्छाओं की संख्यामन में स्थित इच्छाओं की संख्याभौतिकवादी धर्मनिरपेक्ष आधुनिक लोग भी इस सत्य को स्वीकार तो करते हैं परन्तु उनकी तथा ऋषियों की व्यावहारिक कार्यप्रणाली बहुत भिन्न दिखाई देती है।आज सर्वत्र अधिकसेअधिक इच्छाओं को पूर्ण करने का प्रयत्न सुख के लिए किया जाता है। प्राचीन ऋषिगण भी मानव समाज में ही रहते थे और तत्त्वज्ञान के द्वारा उनका लक्ष्य समाज को अधिक सुखी बनाना ही था। उन्होंने पहचाना कि इच्छाओं की संख्या कम किये बिना केवल अधिक से अधिक इच्छाओं की पूर्ति से न कोई वास्तविक आनन्द ही प्राप्त होता है और न ही उसमें कोई विशेष वृद्धि ही। परन्तु आज हम ऋषियों के विचार से सर्वथा भिन्न मार्ग अपना रहे हैं और इसीलिए समाज में आनन्द नहीं दिखाई देता।औपनिषदिक सिद्धांत का ही प्रतिपादन गीता में है जिसकी प्रशंसा भारतीय कवियों द्वारा मुक्त कण्ठ से की गई है। अनेक भोगों की कामना करने वाला पुरुष कभी शान्ति प्राप्त नहीं करता। बाह्य जगत् का त्रुटिपूर्ण मूल्यांकन करने पर ही विषयों में हमें दुखी बनाने की सार्मथ्य आ जाती है अन्यथा वे स्वयं किसी प्रकार की हानि हमें नहीं पहुँचा सकते। आनन्दस्वरूप में स्थित ज्ञानी पुरुष इन सब विषयों से अविचलित रहता है।स्थितप्रज्ञ पुरुष के लक्षणों का प्रारम्भ करते हुए भगवान् ने उसकी आत्मसन्तुष्टि एवं निष्कामत्व को बताया था उसी को और अधिक विस्तार से इस श्लोक में बताया गया है।इसलिए
2.70 That man attains peace into whom all desires enter in the same way as the waters flow into a sea that remains unchanged (even) when being filled up from all sides. Not so one who is desirous of objects.
2.70 He attains peace into whom all desires enter as waters enter the ocean which, filled from all sides, remains unmoved; but not the man who is full of desires.
2.70. Just as waters enter into the ocean which is being filled continuously and which is [yet] firmly established, in the same way, he into whom all objects of desire enter-he attains peace; not he who longs for the objects of desire.
2.70 आपूर्यमाणम् filled from all sides? अचलप्रतिष्ठम् based in stillness? समुद्रम् ocean? आपः water? प्रविशन्ति enter? यद्वत् as? तद्वत् so? कामाः desires? यम् whom? प्रविशन्ति enter? सर्वे all? सः he? शान्तिम् peace? आप्नोति attains? न not? कामकामी desirer of desires.Commentary Just as the ocean filled with waters from all sides remains unmoved? so also the sage who is resting in his own Svarupa or the Self is not a bit affected though desires of all sorts enter from all sides. The sage attains peace or liberation but not he who longs for objects of sensual enjoyment and entertains various desires. (Cf.XVIII.53?54).
2.70 Sah, that man; apnoti, attains; santim, peace Liberation; yam, into whom, into which person; sarve, all; kamah, desires, all forms of wishes; pravisanti, enter, from all directions, like waters entering into a sea, without overwhelming him even in the presence of objects; they vanish in the Self, they do not bring It under their own influence, tadvat, in the same way; yadvat, as; apah, waters, coming from all sides; pravisanti, flow into; samudram, a sea; that remains acala-pratistham, unchanged, that continues to be its own self, without any change; apuryamanam, (even) when filled up from all sides with water. Na, not so the other; who is kama-kami, desirous of objects. Kama means objects which are sought after. He who is given to desire them is kama-kami. The idea implied is that he never attains (peace). Since this is so, therefore.
2.70 Apuryamanam etc. the man of Yoga does not run out for the sake of pleasure; but, rather just as the floods of the rivers enter into the sea, the objects of pleasure [themselves] continuously enter into him on account of their being peculiar attributes of the sense-organs; and they do not create in him waves [of agitation]. thus the third estion is decided.
2.70 The river waters enter into the sea which is full by itself and is thus the same, i.e., unchanging in shape. The sea exhibits no special increase or decrease, whether the waters or rivers enter it or not. Even so do all objects of desire, i.e., objects of sense perception like sound etc., enter into a self-controlled one, i.e., they produce only sensorial impressions but no reaction from him. Such a person will attain peace. The meaning is that he alone attains to peace, who by reason of the contentment coming from the vision of the self, feels no disturbance when objects of sense like sound, etc., come within the ken of the senses or when they do not come. This is not the case with one who runs after desires. Whoever is agitated by sound and other objects, never attains to peace.
This verse describes the sthita prajna’s condition of not being affected or agitated when he accepts the sense objects. Just as in the rainy season, rivers (apah) here and there enter into the ocean, almost filling it up (a—almost, puryamanam—filled), but not being able to completely fill it up, not being able to go beyond the shore (acala pratistham), in a similar manner the objects of sense enjoyment (kamah) come to the sthita prajna for his enjoyment (but cannot disturb him). Just as, whether the rivers enter or do not enter the ocean, the ocean is not disturbed at all, the sthita prajna (sah) remains undisturbed whether he gets objects of enjoyment or not. He attains the stage of jnana (santim).
It could be further postulated that since such a being has no interest in sensual pursuits how then are the objects of the sense experienced like seeing sights, hearing sounds, smelling scents etc. in the course of ones daily routine. Here Lord Krishna states that just as the ocean is unaffected is unaffected by the waters of innumerable rivers flowing into it; similarly the introspective yogi is unaffected by the experiences of sense objects which are manifesting due to the influence of both positive and negative reactions to actions which were performed in the previous lifetime and which in the present lifetime come of their own accord. One who is thus self controlled has achieved peace of mind and is thereby unaffected by association of these sense objects; but this is not the case for one who is desirous of sensual enjoyment.
The way in which those situated in transcendent meditation experience the objects of the senses is explained in this verse by Lord Krishna. Whoever remains unaffected by sense objects even when they approach incessantly, who is not overwhelmed by them, who does not endeavour for them, who is not at a loss due to their absence, who is unchanged like the ocean which does not increase no matter how many bodies of water enter it and which does not decrease if no other bodies of water enter it endeavouring for neither. Such a one as this can attain peace. This is the meaning. Now begins the summation. Even while experiencing interaction with the senses, one who does not transgress the boundaries of desire, like the ocean which remains steadfast within its boundaries destined by creation, then such a one is not bound by theses desires. One is then liberated from these desires. Ka means to become selfish. Hence one whose desires are self-centered is known to be the selfish one. All desires are not contrary to liberation nor are all desires opposed to liberation. In the absence of desires it is not possible to live a normal life. Since attaining peace from endless desires is liberation itself, subsequently develops eternal faith in the Supreme Lord. Verily this is truth.
The ocean is full unto itself and always maintains the same form even though countless rivers enter into it. Whether the rivers enter or do not enter, the ocean is unaffected and undergoes no difference. Similarly when the senses of one in transcendent meditation come in contact with sense objects such as sound and it enters into the sense vector of hearing and is apprehended by the ears such a one still remains peaceful and maintains an equipoise state of consciousness. In other words the sublime satisfaction derived from direct soul cognition precludes any disturbance from the senses or agitation towards sense delights. Whether sense objects are experienced by the senses or not experienced by them one in transcendent meditation will not be affected and will not be subject to any disturbance. But Lord Krishna is saying that this state can never be attained by one who is kamakana full of lascivious desires or is controlled by the same, for such a being can never achieve peace.
The ocean is full unto itself and always maintains the same form even though countless rivers enter into it. Whether the rivers enter or do not enter, the ocean is unaffected and undergoes no difference. Similarly when the senses of one in transcendent meditation come in contact with sense objects such as sound and it enters into the sense vector of hearing and is apprehended by the ears such a one still remains peaceful and maintains an equipoise state of consciousness. In other words the sublime satisfaction derived from direct soul cognition precludes any disturbance from the senses or agitation towards sense delights. Whether sense objects are experienced by the senses or not experienced by them one in transcendent meditation will not be affected and will not be subject to any disturbance. But Lord Krishna is saying that this state can never be attained by one who is kamakana full of lascivious desires or is controlled by the same, for such a being can never achieve peace.
Aapooryamaanam achalapratishthamSamudram aapah pravishanti yadwat; Tadwat kaamaa yam pravishanti sarveSa shaantim aapnoti na kaamakaami.
āpūryamāṇam—filled from all sides; achala-pratiṣhṭham—undisturbed; samudram—ocean; āpaḥ—waters; praviśhanti—enter; yadvat—as; tadvat—likewise; kāmāḥ—desires; yam—whom; praviśhanti—enter; sarve—all; saḥ—that person; śhāntim—peace; āpnoti—attains; na—not; kāma-kāmī—one who strives to satisfy desires