विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति।।2.71।।
।।2.71।। जो पुरुष सब कामनाओं को त्यागकर स्पृहारहित? ममभाव रहित और निरहंकार हुआ विचरण करता है? वह शान्ति प्राप्त करता है।।
।।2.71।। कुछ व्याख्याकारों का मत है कि इन अन्तिम दो श्लोकों में संन्यास मार्ग की व्याख्या है। वास्तव में गीता में संन्यास की उपेक्षा नहीं की गई है। यह पहले ही बताया जा चुका है कि इस द्वितीय अध्याय में सम्पूर्ण गीता का सार सन्निहित है। इसलिए आगामी समस्त विषयों की रूपरेखा इस अध्याय में दी हुई है। संन्यास मार्ग का वर्णन भी हमें आगे के अध्यायों में विभिन्न संन्दर्भों और स्थानों पर मिलेगा।इसके पूर्व 38वें श्लोक में सभी द्वन्द्वोंें में समभाव से रहते हुए युद्ध करने का उपदेश अर्जुन को दिया गया था। अध्याय के अन्त में उसी उपदेश को यहाँ भगवान् दूसरे शब्दों में दोहरा रहे हैं।परम शान्ति को प्राप्त पुरुष के मन की स्थिति को प्रथम पंक्ति में बताया गया है कि वह पुरुष सब कामनाओं का तथा विषयों के प्रति स्पृहा लालसा आसक्ति का सर्वथा त्याग कर देता है। दूसरी पंक्ति में ऐसे पुरुष की बुद्धि के भावों को बताते हुए कहते हैं कि उस पुरुष में अहंकार और ममत्व का पूर्ण अभाव होता है। जहाँ अहंकार नहीं होता जैसे निद्रावस्था में वहाँ इच्छा आसक्ति आदि का अनुभव नहीं होता। इस प्रकार प्रथम पंक्ति में अज्ञान के कार्यरूप लक्षणों का निषेध किया गया है और दूसरी पंक्ति में उस कारण का ही निषेध किया गया है जिससे इच्छायें उत्पन्न होती हैं।प्रस्तावना में स्पष्ट किया गया है कि अर्जुन के व्यक्तित्व के विघटन का कारण अहंकार और ममभाव अथवा अहंकार से प्रेरित इच्छायें थीं जिन्होंने उसके मन और बुद्धि को विलग कर दिया था। भगवान् श्रीकृष्ण सब प्रकार की युक्तियाँ देने के बाद रोग के मुख्य कारण की ओर अर्जुन का ध्यान आकर्षित करते हैं।इस श्लोक का निष्कर्ष यह है कि जीवन में हमारे समस्त दुखों का कारण अहंकार और उससे उत्पन्न ममभाव स्वार्थ और असंख्य कामनायें हैं।संन्यास का अर्थ है त्याग अत अहंकार और स्वार्थ को पूर्णरूप से परित्याग करके वैराग्य का जीवन जीना वास्तविक संन्यास है जिससे वह साधक सतत अपने पूर्ण दिव्य स्वरूप की अनुभूति में रह सकता है। जीवन से पलायन करने अथवा गेरुये वस्त्र धारण करने को संन्यास समझने की जो गलत धारणा समाज में फैल गई है उसनेे उपनिषदों के महान् तत्त्वज्ञान पर एक अमिटसा धब्बा लगा दिया है। वास्तव में हिन्दू धर्म केवल उसी को संन्यासी स्वीकार करता है जिसने विवेक द्वारा अहंकार और स्वार्थ को त्याग कर स्फूर्तिमय जीवन जीना सीखा है।एक सच्चे संन्यासी का अत्यन्त सुन्दर वर्णन श्री शंकराचार्य अपने भाष्य में इस प्रकार करते हैं वह पुरुष जो सब कामनाओं को त्यागकर जीवन में सन्तोषपूर्वक रहता हुआ शरीर धारणमात्र के उपयोग की वस्तुओं में भी ममत्व भाव नहीं रखता न ज्ञान का अभिमान करता है ऐसा ब्रह्मवित् स्थितप्रज्ञ पुरुष निर्वाण (शान्ति) को प्राप्त करता है जहाँ संसार के सब दुखों की आत्यन्तिक निवृत्ति होती है। संक्षेप में ब्रह्मवित् ज्ञानी पुरुष ब्रह्म ही बन जाता है।इस ज्ञाननिष्ठा की इस प्रकार स्तुति करते है