विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति।।2.71।।
।।2.71।।जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग करके निर्मम निरहंकार और निःस्पृह होकर विचरता है वह शान्तिको प्राप्त होता है।
2.71।। व्याख्या विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः अप्राप्त वस्तुकी इच्छाका नाम कामना है। स्थितप्रज्ञ महापुरुष सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग कर देता है। कामनाओंका त्याग कर देने पर भी शरीरके निर्वाहमात्रके लिये देश काल वस्तु व्यक्ति पदार्थ आदिकी जो आवश्यकता दीखती है अर्थात् जीवननिर्वाहके लिये प्राप्त और अप्राप्त वस्तु आदिकी जो जरूरत दीखती है उसका नाम स्पृहा है। स्थितप्रज्ञ पुरुष इस स्पृहाका भी त्याग कर देता है। कारण कि जिसके लिये शरीर मिला था और जिसकी आवश्यकता थी उस तत्त्वकी प्राप्ति हो गयी वह आवश्यकता पूरी हो गयी। अब शरीर रहे चाहे न रहे शरीरनिर्वाह हो चाहे न हो इस तरफ वह बेपरवाह रहता है। यही उसका निःस्पृह होना है।निःस्पृह होनेका अर्थ यह नहीं है कि वह निर्वाहकी वस्तुओंका सेवन करता ही नहीं। वह निर्वाहकी वस्तुओंका सेवन भी करता है पथ्यकुपथ्यका भी ध्यान रखता है अर्थात् पहले साधनावस्थामें शरीर आदिके साथ जैसा व्यवहार करता था वैसा ही व्यवहार अब भी करता है परन्तु शरीर बना रहे तो अच्छा है जीवननिर्वाहकी वस्तुएँ मिलती रहें तो अच्छा है ऐसी उसके भीतर कोई परवाह नहीं होती।इसी अध्यायके पचपनवें श्लोकमें प्रजहाति यदा कामान्सर्वान् पदोंसे कामनात्यागकी जो बात कही थी वही बात यहाँ विहाय कामान्यः सर्वान् पदोंसे कही है। इसका तात्पर्य है कि कर्मयोगमें सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग किये बिना कोई स्थितप्रज्ञ नहीं हो सकता क्योंकि कामनाओंके कारण ही संसारके साथ सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। कामनाओंका सर्वथा त्याग करनेपर संसारके साथ सम्बन्ध रह ही नहीं सकता। निर्ममः स्थितप्रज्ञ महापुरुष ममताका सर्वथा त्याग कर देता है। मनुष्य जिन वस्तुओंको अपनी मानता है वे वास्तवमें अपनी नहीं हैं प्रत्युत संसारसे मिली हुई हैं। मिली हुई वस्तुको अपनी मानना भूल है। यह भूल मिट जानेपर स्थितप्रज्ञ वस्तु व्यक्ति पदार्थ शरीर इन्द्रियाँ आदिमें ममतारहित हो जाता है। निरहङ्कारः यह शरीर मैं ही हूँ इस तरह शरीरसे तादात्म्य मानना अहंकार है। स्थितप्रज्ञमें यह अहंकार नहीं रहता। शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदि सभी किसी प्रकाशमें दीखते हैं और जो मैंपन है उसका भी किसी प्रकाशमें भान होता है। अतः प्रकाशकी दृष्टिसे शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि अहंता ( मैंपन) ये सभी दृश्य हैं। द्रष्टा दृश्यसे अलग होता है यह नियम है। ऐसा अनुभव हो जानेसे स्थितप्रज्ञ निरहंकार हो जाता है। स शान्तिमधिगच्छति स्थितप्रज्ञ शान्तिको प्राप्त होता है। कामना स्पृहा ममता और अहंतासे रहित होनेपर शान्ति आकर प्राप्त होती है ऐसी बात नही है प्रत्युत शान्ति तो मनुष्यमात्रमें स्वतःसिद्ध है। केवल उत्पन्न एवं नष्ट होनेवाली वस्तुओंसे सुख भोगनेकी कामना करनेसे उनसे ममताका सम्बन्ध रखनेसे ही अशान्ति होती है। जब संसारकी कामना स्पृहा ममता और अहंता सर्वथा छूट जाती है तब स्वतःसिद्ध शान्तिका अनुभव हो जाता है।इस श्लोकमें कामना स्पृहा ममता और अहंता इन चारोंमें अहंता ही मुख्य है। कारण कि एक अहंताके निषेधसे सबका निषेध हो जाता है अर्थात् यदि मैंपन ही नहीं रहेगा तो फिर मेरापन कैसे रहेगा और कामना भी कौन करेगा और किसलिये करेगा जब निरहङ्कारः कहनेमात्रसे कामना आदिका त्याग उसके अन्तर्गत आ जाता था तो फिर कामना आदिके त्यागका वर्णन क्यों किया इसका उत्तर यह है कि कामना स्पृहा ममता और अहंता इन चारोंमें कामना स्थूल है। कामनासे सूक्ष्म स्पृहा स्पृहासे सूक्ष्म ममता और ममतासे सूक्ष्म अहंता है। इसलिये संसारसे सम्बन्ध छोड़नेमें सबसे पहले कामनाका त्याग कर दिया जाय तो अन्य तीनका त्याग करना सुगम हो जाता है।कामना करनेसे कोई वस्तु नहीं मिलती। वस्तु तो जो मिलनेवाली है वही मिलेगी। अतः कामनाका त्याग कर देना चाहिये। कामनाका त्याग करनेके बाद भी स्पृहा रहती है। स्पृहा (शरीरनिर्वाहकी आवश्यकता) पूरी हो जाय यह भी हमारे हाथकी बात नहीं है अर्थात् स्पृहाकी पूर्तिमें भी हम स्वतन्त्र नहीं है। जो होना है वह तो होगा ही फिर स्पृहा रखनेसे क्या लाभ अतः शरीरके लिये अन्न जल वस्त्र आदिकी आशा छोड़नेसे स्पृहा छूट जाती है। अहंताममतासे रहित होनेका उपाय कर्मयोगकी दृष्टिसे मेरा कुछ नहीं है क्योंकि मेरा किसी वस्तु व्यक्ति परिस्थिति घटना अवस्था आदिपर स्वतन्त्र अधिकार नहीं है। जब मेरा कुछ नहीं है तो मेरेको कुछ नहीं चाहिये क्योंकि अगर शरीर मेरा है तो मेरेको अन्न जल वस्त्र आदिकी आवश्यकता है पर जब शरीर मेरा है ही नहीं तो मेरेको किसीकी कुछ भी आवश्यकता नहीं है। जब मेरा कुछ नहीं और मेरेको कुछ नहीं चाहिये तो फिर मैं क्या रहा क्योंकि मैं तो किसी वस्तु शरीर स्थिति आदिको पकड़नेसे ही होता है।मेरे कहलानेवाले शरीर आदिका मात्र संसारके साथ सर्वथा अभिन्न सम्बन्ध है। इसलिये अपने कहलानेवाले शरीर आदिसे जो कुछ करना है वह सब केवल संसारके हितके लिये ही करना है क्योंकि मेरेको कुछ चाहिये ही नहीं। ऐसा भाव होनेपर मैंका एकदेशीयपना आपसेआप मिट जाता है और कर्मयोगी अहंताममतासे रहित हो जाता है। सांख्ययोगकी दृष्टिसे प्राणिमात्रको मैं हूँ इस प्रकार अपने स्वरूपकी स्वतःसिद्ध सत्ता(होनापन) का ज्ञान रहता है। इसमें मैं तो प्रकृतिका अंश है और हूँ सत्ता है। यह हूँ वास्तवमें मैं को लेकर है। अगर मैं न रहे तो हूँ नहीं रहेगा प्रत्युत है रहेगा। मैं हूँ तू है यह है और वह है ये चारों व्यक्ति और देशकालको लेकर हैं। अगर इन चारोंको अर्थात् व्यक्ति और देशकालको न पकड़ें तो केवल है ही रहेगा है में ही स्थिति रहेगी। है में स्थिति होनेसे सांख्ययोगी अहंताममतासे रहित हो जाता है। भक्तियोगकी दृष्टिसे जिसको मैं और मेरा कहते हैं वह सब प्रभुका ही है। कारण कि मेरी कहलानेवाली वस्तुपर मेरा किञ्चिन्मात्र भी अधिकार नहीं है परन्तु प्रभुका उसपर पूरा अधिकार है। वे जिस तरह वस्तुको रखते हैं जैसा रखना चाहते हैं वैसा ही होता है। अतः यह सब कुछ प्रभुका ही है। इसको प्रभुकी ही सेवामें लगाना है। मेरे पास जो शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि है यह भी उन्हींकी है और मैं भी उन्हींका हूँ। ऐसा भाव होनेपर भक्तियोगी अहंताममतासे रहित हो जाता है। सम्बन्ध कामना स्पृहा ममता और अहंतासे रहित होनेपर उसकी क्या स्थिति होती है इसका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हुए इस विषयका उपसंहार करते हैं।