सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।2.9।।
।।2.9।।सञ्जय बोले हे शत्रुतापन धृतराष्ट्र ऐसा कहकर निद्राको जीतनेवाले अर्जुन अन्तर्यामी भगवान् गोविन्दसे मैं युद्ध नहीं करूँगा ऐसा स्पष्ट कहकर चुप हो गये।
।।2.9।। संजय ने कहा -- इस प्रकार गुडाकेश परंतप अर्जुन भगवान् हृषीकेश से यह कहकर कि हे गोविन्द मैं युद्ध नहीं करूँगा चुप हो गया।।
।।2.9।। एवमुक्त्वा हृषीकेषम् ৷৷. बभूव ह अर्जुनने अपना और भगवान्का दोनोंका पक्ष सामने रखकर उनपर विचार किया तो अन्तमें वे इसी निर्णयपर पहुँचे कि युद्ध करनेसे तो अधिकसेअधिक राज्य प्राप्त हो जायगा मान हो जायगा संसारमें यश हो जायगा परन्तु मेरे हृदयमें जो शोक है चिन्ता है दुःख है वे दूर नहीं होंगे। अतः अर्जुनको युद्ध न करना ही ठीक मालूम दिया।यद्यपि अर्जुन भगवान्की बातका आदर करते हैं और उसको मानना भी चाहते हैं परंतु उनके भीतर युद्ध करनेकी बात ठीकठीक जँच नहीं रही है। इसलिये अर्जुन अपने भीतर जँची हुई बातको ही यहाँ स्पष्टरूपसे साफसाफ कह देते हैं कि मैं युद्ध नहीं करूँगा। इस प्रकार जब अपनी बात अपना निर्णय भगवान्से साफसाफ कह दिया तब भगवान्से कहनेके लिये और कोई बात बाकी नहीं रही अतः वे चुप हो जाते हैं। सम्बन्ध जब अर्जुनने युद्ध करनेके लिये साफ मना कर दिया तब उसके बाद क्या हुआ इसको सञ्जय आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।2.9।। संजय आगे वर्णन करते हुये कहता है कि भगवान् की शरण में जाकर गुडाकेशनिद्राजित एवं शत्रु प्रपीड़क अर्जुन ने यह कहा कि वह युद्ध नहीं करेगा और फिर वह मौन हो गया।केवल एक अंध धृतराष्ट्र को छोड़कर किसी भी व्यक्ति को यह अधिकार या सार्मथ्य नहीं थी कि वह युद्ध को इन क्षणों में भी रोक सके। अवश्यंभावी और अपरिहार्य युद्ध को धृतराष्ट्र द्वारा रोकने की क्षीण आशा संजय के हृदय में थी। शत्रुपीड़क अर्जुन अब तीनों जगत् को जीतने वाले (गोविन्द) भगवान् श्रीकृष्ण की शरण में पहुँच गया था इसलिये उसकी विजय अब निश्चित थी परन्तु जन्मान्ध धृतराष्ट्र ने किसी की भी श्रेष्ठ सलाह को अत्यधिक पुत्र प्रेम के कारण नहीं सुना।