सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।3.10।।
।।3.10 3.11।।प्रजापति ब्रह्माजीने सृष्टिके आदिकालमें कर्तव्यकर्मोंके विधानसहित प्रजा(मनुष्य आदि) की रचना करके उनसे (प्रधानतया मनुष्योंसे) कहा कि तुमलोग इस कर्तव्यके द्वारा सबकी वृद्धि करो और वह कर्तव्यकर्मरूप यज्ञ तुमलोगोंको कर्तव्यपालनकी आवश्यक सामग्री प्रदान करनेवाला हो। अपने कर्तव्यकर्मके द्वारा तुमलोग देवताओंको उन्नत करो और वे देवतालोग अपने कर्तव्यके द्वारा तुमलोगोंको उन्नत करें। इस प्रकार एकदूसरेको उन्नत करते हुए तुमलोग परम कल्याणको प्राप्त हो जाओगे।
।।3.10।। प्रजापति (सृष्टिकर्त्ता) ने (सृष्टि के) आदि में यज्ञ सहित प्रजा का निर्माण कर कहा इस यज्ञ द्वारा तुम वृद्धि को प्राप्त हो और यह यज्ञ तुम्हारे लिये इच्छित कामनाओं को पूर्ण करने वाला (इष्टकामधुक्) होवे।।
।।3.10।। व्याख्या सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः ब्रह्माजी प्रजा (सृष्टि) के रचयिता एवं उसके स्वामी हैं अतः अपने कर्तव्यका पालन करनेके साथ वे प्रजाकी रक्षा तथा उसके कल्याणका विचार करते रहते हैं। कारण कि जो जिसे उत्पन्न करता है उसकी रक्षा करना उसका कर्तव्य हो जाता है। ब्रह्माजी प्रजाकी रचना करते उसकी रक्षामें तत्पर रहते तथा सदा उसके हितकी बात सोचते हैं। इसलिये वेप्रजापति कहलाते हैं।सृष्टि अर्थात् सर्गके आरम्भमें ब्रह्माजीने कर्तव्यकर्मोंकी योग्यता और विवेकसहित मनुष्योंकी रचना की है (टिप्पणी प0 128)। अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितिका सदुपयोग कल्याण करनेवाला है। इसलिये ब्रह्माजीने अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितिका सदुपयोग करनेका विवेक साथ देकर ही मनुष्योंकी रचना की है।सत्असत्का विचार करनेमें पशु पक्षी वृक्ष आदिके द्वारा स्वाभाविक परोपकार (कर्तव्यपालन) होता है किन्तु मनुष्यको तो भगवत्कृपासे विशेष विवेकशक्ति मिली हुई है। अतः यदि वह अपने विवेकको महत्त्व देकर अकर्तव्य न करे तो उसके द्वारा भी स्वाभाविक लोकहितार्थ कर्म हो सकते हैं।देवता ऋषि पितर मनुष्य तथा अन्य पशु पक्षी वृक्ष आदि सभी प्राणी प्रजा हैं। इनमें भी योग्यता अधिकार और साधनकी विशेषताके कारण मनुष्यपर अन्य सब प्राणियोंके पालनकी जिम्मेवारी है। अतः यहाँ प्रजाः पद विशेषरूपसे मनुष्योंके लिये ही प्रयुक्त हुआ है।कर्मयोग अनादिकालसे चला आ रहा है। चौथे अध्यायके तीसरे श्लोकमें पुरातनः पदसे भी भगवान् कहते हैं कि यह कर्मयोग बहुत कालसे प्रायः लुप्त हो गया था जिसको मैंने तुम्हें फिरसे कहा है। उसी बातको यहाँ भी पुरा पदसे वे दूसरी रीतिसे कहते हैं किमैंने ही नहीं प्रत्युत ब्रह्माजीने भी सर्गके आदिकालमें कर्तव्यसहित प्रजाको रचकर उनको उसी कर्मयोगका आचरण करनेकी आज्ञा दी थी। तात्पर्य यह है कि कर्मयोग(निःस्वार्थभावसे कर्तव्यकर्म करने) की परम्परा अनादिकालसे ही चली आ रही है। यह कोई नयी बात नहीं है।चौथे अध्यायमें (चौबीसवेंसे तीसवें श्लोकतक) परमात्मप्राप्तिके जितने साधन बताये गये हैं वे सभी यज्ञ के नामसे कहे गये हैं जैसे द्रव्ययज्ञ तपयज्ञ योगयज्ञ प्राणायाम आदि। प्रायः यज्ञ शब्दका अर्थ हवनसे सम्बन्ध रखनेवाली क्रियाके लिये ही प्रसिद्ध है परन्तु गीतामें यज्ञ शब्द शास्त्रविधिसे की जानेवाली सम्पूर्ण विहित क्रियाओंका वाचक भी है। अपने वर्ण आश्रम धर्म जाति स्वभाव देश काल आदिके अनुसार प्राप्त कर्तव्यकर्म यज्ञ के अन्तर्गत आते हैं। दूसरेके हितकी भावनासे किये जानेवालेसब कर्म भी यज्ञ ही हैं। ऐसे यज्ञ(कर्तव्य) का दायित्व मनुष्यपर पर ही है।अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् (टिप्पणी प0 129.1) ब्रह्माजी मनुष्योंसे कहते हैं कि तुमलोग अपनेअपने कर्तव्यपालनके द्वारा सबकी वृद्धि करो उन्नति करो ऐसा करनेसे तुमलोगोंको कर्तव्यकर्म करनेमें उपयोगी सामग्री प्राप्त होती रहे उसकी कभी कमी न रहे।अर्जुनकी कर्म न करनेमें जो रुचि थी उसे दूर करनेके लिये भगवान् कहते हैं कि प्रजापति ब्रह्माजीके वचनोंसे भी तुम्हें कर्तव्यकर्म करनेकी शिक्षा लेनी चाहिये। दूसरोंके हितके लिये कर्तव्यकर्म करनेसे ही तुम्हारी लौकिक और पारलौकिक उन्नति हो सकती है।निष्कामभावसे केवल कर्तव्यपालनके विचारसे कर्म करनेपर मनुष्य मुक्त हो जाता है और सकामभावसे कर्म करनेपर मनुष्य बन्धनमें पड़ जाता है। प्रस्तुत प्रकरणमें निष्कामभावसे किये जानेवाले कर्तव्यकर्मका विवेचन चल रहा है। अतः यहाँ इष्टकाम पदका अर्थ इच्छित भोगसामग्री (जो सकामभावका सूचक है) लेना उचित प्रतीत नहीं होता। यहाँ इस पदका अर्थ है यज्ञ (कर्तव्यकर्म) करनेकी आवश्यक सामग्री (टिप्पणी प0 129.2)।कर्मयोगी दूसरोंकी सेवा अथवा हित करनेके लिये सदा ही तत्पर रहता है। इसलिये प्रजापति ब्रह्माजीके विधानके अनुसार दूसरोंकी सेवा करनेकी सामग्री सामर्थ्य और शरीरनिर्वाहकी आवश्यक वस्तुओंकी उसे कभी कमी नहीं रहती। उसको ये उपयोगी वस्तुएँ सुगमतापूर्वक मिलती रहती हैं। ब्रह्माजीके विधानके अनुसार कर्तव्यकर्म करनेकी सामग्री जिसजिसको जोजो भी मिली हुई है वह कर्तव्यपालन करनेके लिये उसउसको पूरीकीपूरी प्राप्त है। कर्तव्यपालनकी सामग्री कभी किसीके पास अधूरी नहीं होती। ब्रह्माजीके विधानमें कभी फरक नहीं पड़ सकता क्योंकि जब उन्होंने कर्तव्यकर्म करनेका विधान निश्चित किया है तब जितनेसे कर्तव्यका पालन हो सके उतनी सामग्री देना भी उन्हींपर निर्भर है।वास्तवमें मनुष्यशरीर भोग भोगनेके लिये है ही नहीं एहि तन कर फल बिषय न भाई (मानस 7। 44। 1)। इसीलिये सांसारिक सुखोंको भोगो ऐसी आज्ञा या विधान किसी भी सत्शास्त्रमें नहीं है। समाज भी स्वच्छन्द भोग भोगनेकी आज्ञा नहीं देता। इसके विपरीत दूसरोंको सुख पहुँचानेकी आज्ञा या विधान शास्त्र और समाज दोनों ही देते हैं। जैसे पिताके लिये यह विधान तो मिलता है कि वह पुत्रका पालनपोषण करे पर यह विधान कहीं भी नहीं मिलता कि पुत्रसे पिता सेवा ले ही। इसी प्रकार पुत्र पत्नी आदि अन्य सम्बन्धोंके लिये भी समझना चाहिये।कर्मयोगी सदा देनेका ही भाव रखता है लेनेका नहीं क्योंकि लेनेका भाव ही बाँधनेवाला है। लेनेका भाव रखनेसे कल्याणप्राप्तिमें बाधा लगनेके साथ ही सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्तिमें भी बाधा उपस्थित हो जाती है। प्रायः सभीका अनुभव है कि संसारमें लेनेका भाव रखनेवालेको कोई देना नहीं चाहता। इसलिये ब्रह्माजी कहते हैं कि बिना कुछ चाहे निःस्वार्थभावसे कर्तव्यकर्म करनेसे ही मनुष्य अपनी उन्नति (कल्याण) कर सकता है।देवान् भावयतानेन यहाँ देव शब्द उपलक्षक है अतः इस पदके अन्तर्गत मनुष्य देवता ऋषि पितर आदि समस्त प्राणियोंको समझना चाहिये। कारण कि कर्मयोगीका उद्देश्य अपने कर्तव्यकर्मोंसे प्राणिमात्रको सुख पहँचाना रहता है। इसलिये यहाँ ब्रह्माजी सम्पूर्ण प्राणियोंकी उन्नतिके लिये मनुष्योंको अपने कर्तव्यकर्मरूप यज्ञके पालनका आदेश देते हैं। अपनेअपने कर्तव्यका पालन करनेसे मनुष्यका स्वतः कल्याण हो जाता है (गीता 18। 45)। कर्तव्यकर्मका पालन करनेके उपदेशके पूर्ण अधिकारी मनुष्य ही हैं। मनुष्योंको ही कर्म करनेकी स्वतन्त्रता मिली हुई है अतः उन्हें इस स्वतन्त्रताका सदुपयोग करना चाहिये।ते देवा भावयन्तु वः जैसे वृक्ष लता आदिमें स्वाभाविक ही फूलफल लगते हैं परन्तु यदि उन्हें खाद और पानी दिया जाय तो उनमें फूलफल विशेषतासे लगते हैं। ऐसे ही यजनपूजनसे देवताओंकी पुष्टि होती है जिससे देवताओंके काम विशेष न्यायप्रद होते हैं। परन्तु जब मनुष्य अपने कर्तव्यकर्मोंके द्वारा देवाताओंका यजनपूजन नहीं करते तब देवताओंको पुष्टि नहीं मिलती जिससे उनमें अपने कर्तव्यका पालन करनेमें कमी आ जाती है। उनके कर्तव्यपालनमें कमी आनेसे ही संसारमें विप्लव अर्थात् अनावृष्टिअतिवृष्टि आदि होते हैं।परस्परं भावयन्तः इन पदोंका अर्थ यह नहीं समझना चाहिये कि दूसरा हमारी सेवा करे तो हम उसकी सेवा करें प्रत्युत यह समझना चाहिये कि दूसरा हमारी सेवा करे या न करे हमें तो अपने कर्तव्यके द्वारा उसकी सेवा करनी ही है। दूसरा क्या करता है क्या नहीं करता हमें सुख देता या दुःख इन बातोंसे हमें कोई मतलब नहीं रखना चाहिये क्योंकि दूसरोंके कर्तव्यको देखनेवाला अपने कर्तव्यसे च्युत हो जाता है। परिणामस्वरूप उसका पतन हो जाता है। दूसरोंसे कर्तव्यका पालन करवाना अपने अधिकारकी बात भी नहीं है। हमें सबका हित करनेके लिये केवल अपने कर्तव्यका पालन करना है और उसके द्वारा सबको सुख पहुँचाना है। सेवा करनेमें अपनी समझ सामर्थ्य समय और सामग्रीको अपने लिये थोड़ीसी भी बचाकर नहीं रखनी है। तभी जडतासे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद होगा।हमारे जितने भी सांसारिक सम्बन्धी मातापिता स्त्रीपुत्र भाईभौजाई आदि हैं उन सबकी हमें सेवा करनी है। अपना सुख लेनेके लिये ये सम्बन्ध नहीं हैं। हमारा जिनसे जैसा सम्बन्ध है उसीके अनुसार उनकी सेवा करना मर्यादाके अनुसार उन्हें सुख पहुँचाना हमारा कर्तव्य है। उनसे कोई आशा रखना और उनपर अपना अधिकार मानना बहुत बड़ी भूल है। हम उनके ऋणी हैं और ऋण उतारनेके लिये उनके यहाँ हमारा जन्म हुआ है। अतः निःस्वार्थभावसे उन सम्बन्धियोंकी सेवा करके हम अपना ऋण चुका दें यह हमारा सर्वप्रथम आवश्यक कर्तव्य है। सेवा तो हमें सभीकी करनी है परन्तु जिनकी हमारेपर जिम्मेवारी है उन सम्बन्धियोंकी सेवा सबसे पहले करनी चाहिये।शरीर इन्द्रयाँ मन बुद्धि पदार्थ आदि अपने नहीं हैं और अपने लिये भी नहीं हैं यह सिद्धान्त है। अतः अपनेअपने कर्तव्यका पालन करनेसे स्वतः एक दूसरेकी उन्नति होती है। कर्तव्य और अधिकारसम्बन्धी मार्मिक बातकर्मयोग तभी होता है जब मनुष्य अपने कर्तव्यके पालनपूर्वक दूसरेके अधिकारकी रक्षा करता है। जैसे मातापिताकी सेवा करना पुत्रका कर्तव्य है और मातापिताका अधिकार है। जो दूसरेका अधिकार होता है वही हमारा कर्तव्य होता है। अतः प्रत्येक मनुष्यको अपने कर्तव्यपालनके द्वारा दूसरेके अधिकारकी रक्षा करनी है तथा दूसरेका कर्तव्य नहीं देखना है। दूसरेका कर्तव्य देखनेसे मनुष्य स्वयं कर्तव्यच्युत हो जाता है क्योंकि दूसरेका कर्तव्य देखना हमारा कर्तव्य नहीं है। तात्पर्य है कि दूसरेका हित करना है यह हमारा कर्तव्य है और दूसरेका अधिकार है। यद्यपि अधिकार कर्तव्यके ही अधीन है तथापि मनुष्यको अपना अधिकार देखना ही नहीं हैं प्रत्युत अपने अधिकारका त्याग करना है। केवल दूसरेके अधिकारकी रक्षाके लिये अपने कर्तव्यका पालन करना है। दूसरेका कर्तव्य देखना तथा अपना अधिकार जमाना लोक और परलोकमें महान् पतन करनेवाला है। वर्तमान समयमें घरोंमें समाजमें जो अशान्ति कलह संघर्ष देखनेमें आ रहा है उसमें मूल कारण यही है कि लोग अपने अधिकारकी माँग तो करते हैं पर अपने कर्तव्यका पालन नहीं करते इसलिये ब्रह्माजी देवताओं और मनुष्योंको उपदेश देते हैं कि एकदूसरेका हित करना तुमलोगोंका कर्तव्य है।श्रेयः परमवाप्स्यथ प्रायः ऐसी धारणा बनी हुई है कि यहाँ परम कल्याणकी प्राप्तिका कथन अतिशयोक्ति है पर वास्तवमें ऐसा नहीं है। अगर इसमें किसीको सन्देह हो तो वह ऐसा करके खुद देख सकता है। जैसे धरोहर रखनेवालेकी धरोहर उसे वापस कर देनेसे धरोहर रखनेवालेसे तथा उस धरोहरसे हमारा किसी प्रकारका सम्बन्ध नहीं रहता ऐसे ही संसारकी वस्तु संसारकी सेवामें लगा देनेसे संसार और संसारकी वस्तुसे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं रहता। संसारसे माने हुए सम्बन्धका विच्छेद होते ही चिन्मयताका अनुभव हो जाता है। अतः प्रजापति ब्रह्माजीके वचनोंमें अतिशयोक्तिकी कल्पना करना अनुचित है।यह सिद्धान्त है कि जबतक मनुष्य अपने लिये कर्म करता है तबतक उसके कर्मकी समाप्ति नहीं होती और वह कर्मोंसे बँधता ही जाता है। कृतकृत्य वही होता है जो अपने लिये कभी कुछ नहीं करता। अपने लिये कुछ भी नहीं करनेसे पापका आचरण भी नहीं होता क्योंकि पापका आचरण कामनाके कारण ही होता है (3। 37)। अतः अपना कल्याण चाहनेवाले साधकको चाहिये कि वह शास्त्रोंकी आज्ञाके अनुसार फलकी इच्छा और आसक्तिका त्याग करके कर्तव्यकर्म करनेमें तत्पर हो जाय फिर कल्याण तो स्वतःसिद्ध है।अपनी कामनाका त्याग करनेसे संसारमात्रका हित होता है। जो अपनी कामनापूर्तिके लिये आसक्तिपूर्वक भोग भोगता है वह स्वयं तो अपनी हिंसा (पतन) करता ही है साथ ही जिनके पास भोगसामग्रीका अभाव है उनकी भी हिंसा करता है अर्थात् दुःख देता है। कारण कि भोगसामग्रीवाले मनुष्यको देखकर अभावग्रस्त मनुष्यको उस भोगसामग्रीके अभावका दुःख होना स्वाभाविक है। इस प्रकार स्वयं सुख भोगनेवाला व्यक्ति हिंसासे कभी बच नहीं सकता। ठीक इसके विपरीत पारमार्थिक मार्गपर चलनेवाले व्यक्तिको देखकर दूसरोंको स्वतः शान्ति मिलती है क्योंकि पारमार्थिक सम्पत्तिपर सबका समान अधिकार है। निष्कर्ष यह निकला कि मनुष्य कामनाआसक्तिका त्याग करके अपने कर्तव्यकर्मका पालन करता रहे तो ब्रह्माजीके कथनानुसार वह परम कल्याणको अवश्य ही प्राप्त हो जायग। इसमें कोई सन्देह नहीं है।यहाँ परम कल्याणकी प्राप्ति मुख्यतासे मनुष्योंके लिये ही बतायी है देवताओंके लिये नहीं। कारण कि देवयोनि अपना कल्याण करनेके लिये नहीं बनायी गयी है। मनुष्य जो कर्म करता है उन कर्मोंके अनुसार फल देने कर्म करनेकी सामग्री देने तथा अपनेअपने शुभ कर्मोंका फल भोगनेके लिये देवता बनाये गये हैं। वे निष्कामभावसे कर्म करनेकी सामग्री देते हों ऐसी बात नहीं है। परन्तु उन देवताओंमें भी अगर किसीमें अपने कल्याणकी इच्छा हो जाय तो उसका कल्याण होनेमें मना नहीं है अर्थात् अगर कोई अपना कल्याण करना चाहे तो कर सकता है। जब पापीसेपापी मनुष्यके लिये भी उद्धार करनेकी मनाही नहीं है तो फिर देवताओंके लिये (जो कि पुण्ययोनि है) अपना उद्धार करनेकी मनाही कैसे हो सकती है ऐसा होनेपर भी देवताओंका उद्देश्य भोग भोगनेका ही रहता है इसलिये उनमें प्रायः अपने कल्याणकी इच्छा नहीं होती।
।।3.10।। स्वयं सृष्टिकर्त्ता प्रजापति पंचमहाभूतों की सृष्टि रचकर अन्य प्राणियों के साथ मनुष्य को भी कर्म करने और फल पाने के लिये उत्पन्न करते हैं। उस समय वे यज्ञ को भी बनाते हैं अर्थात् उसका उपदेश देते हैं। यज्ञ का अर्थ है समर्पण बुद्धि और सेवा भाव से किये हुये कर्म। प्रकृति में सर्वत्र यज्ञ की भावना स्पष्ट दिखाई देती है। सूर्य प्रकाशित होता है और चन्द्रमा प्रगट होता है समुद्र स्पन्दित होता है पृथ्वी प्राणियों को धारण करती है ये सब मातृभाव से तथा यज्ञ की भावना से कर्म करते हैं जिनमें रंचमात्र भी आसक्ति नहीं होती।ब्रह्माण्ड की शक्तियाँ और प्राकृतिक घटना चक्र अपने आप सब की सेवा में संलग्न रहता है। जगत् में जीवन के प्रादुर्भाव के पूर्व ही प्रकृति ने उसके लिये उचित क्षेत्र निर्माण कर रखा था। जब विभिन्न स्तरों पर जीवन का विकास होता है तब भी हम प्रकृति में सर्वत्र चल रहा यज्ञ कर्म देख सकते हैं जिसके कारण सबका अस्तित्व बना रहता है और विकास होता रहता है।उपर्युक्त सिद्धांत को काव्यात्मकभाषा में यह अर्थ गर्भित श्लोक प्रस्तुत करता है। सृष्टिकर्त्ता ब्रह्मा जी ने सेवा की भावना तथा यज्ञ करने की क्षमता के साथ जगत् की रचना की। मानो उन्होंने घोषणा की इस यज्ञ में तुम वृद्धि को प्राप्त हो यह तुम्हारे लिये कामधेनु सिद्ध हो। पौराणिक कथाओं के अनुसार कामधेनु नामक गाय वशिष्ट ऋषि के पास थी जो सभी इच्छाओं की पूर्ति करती थी। इसलिये इस शब्द का अर्थ इतना ही है कि यदि मनुष्य सहयोग और अनुशासन में रह कर अनासक्ति और त्याग की भावना से कर्म करने में तत्पर रहे तो उसके लिये कोई लक्ष्य अप्राप्य नहीं हो सकता।यज्ञ से इसका कैसे सम्पादन किया जा सकता है
3.10 In the days of yore, having created the beings together with the sacrifices, Prajapati said: By this you multiply. Let this be your yielder of coveted objects of desire.
3.10 The Creator, having in the beginning (of creation) created mankind together with sacrifice, said, By this shall ye propagate; let this be the milch cow of your desires (the cow which yields all the desired objects).
3.10. Having created creatures formerly [at the time of creation] together with necessary action, the Lord of creatures declared : By means of this, you shalll propagate yourselves; and let this be your wish-fulfilling-cow.
3.10 सहयज्ञाः together with sacrifice? प्रजाः mankind? सृष्ट्वा having created? पुरा in the beginning? उवाच said? प्रजापतिः Prajapati? अनेन by this? प्रसविष्यध्वम् shall ye propagate? एषः this? वः your? अस्तु let be? इष्टकामधुक् milch cow of desires.Commentary Prajapati is the Creator or Brahma. Kamadhuk is another name for the cow Kamadhenu. Kamadhenu is the cow of Indra from which everyone can milk whatever one desires. (Cf.VIII.4IX.2427X.25).
3.10 Pura, in the days of yore, in the beginning of creation; srstva, having created; prajah, the beings, the people of the three castes; saha-yajnah, together with the sacrifices; Prajapati, the creator of beings, uvaca, said; Anena, by this sacrifice; prasavisyadhvam, you multiply. Prasava means origination, growth. You accomplish that. Esah astu, let this sacrifice be; vah, your; ista-kama-dhuk, yielder of coveted objects of desire. That which yields (dhuk) coveted (ista) objects of desire (kama), particular results, is istakama-dhuk. How?
3.10 Saha-etc. The lord of creatures, the Supreme Soul, created creatures, just together with actions. It has also been declared by Him that the procreation i.e., lineage of creatures is through actions alone; these alone would give them what is desired viz., either the cycle of birth-and-death or emancipation - the cycle of birth-and-death is due to attachment and emancipation, due to the freedom from attachment. The sense-objects deserve to be enjoyed only by those for whom emancipation is the most important. This is declared :
3.10 As there is the scriptural text beginning with The Lord of Universe (Tai. Na., 11.3), it is justifiable to take the term Prajapati in its wider connotation and interpret it to mean Narayana who is the Lord of all beings, the creator of the universe and the Self of the universe. In the beginning, i.e., during the creation, He, the Lord of beings, saw all beings helpless by their conjunction with beginningless non-conscient matter, bereft of the distinctions of name and form, and submerged in Himself. They were incapable of attaining the major ends of human existence, being almost one with non-conscient matter. He, the supremely compassionate, with a desire to resuscitate them, created them together with sacrifice in order that they might perform sacrifices as His worship and said: By this sacrifice, shall you prosper, i.e., multiply and prosper. May this sacrifice fulfil your supreme object of desire called release (Moksa) and also the other desires that are in conformity with it. How, then, should this be done?
Therefore, one with impure heart should perform actions without desire, rather than give up action. Now, if you cannot be desireless in the actions, then you should still perform actions offered to Visnu with desire, rather than give up actions completely. This is explained in seven verses. Long ago, along with yajna, Brahma created the creature qualified for offering to Visnu and said, “Increase more and more the population by this dharma or yajna. May this yajna bestow all desired enjoyment (ista kama dhuk).” By this he indicated that they had material desires. The compound saha-yajna is formed by the rule vopasarjanasya (Panini 6.3.82). The compound saha-yajna is used instead of sa-yajna.
So we see that not only Lord Krishna is stating this but also according to Prajapati or Brahma the creator of all material beings, that one who performs actions is superior to one who performs no actions. This is being explained in this and the next three verses. The words saha-yagnah-prajah means all progeny in existence in general but specifically the brahmans and ksatriyas who perform worship according to the Vedic scriptures. Verily remembering Lord Krishna and chanting His holy names is yagna or worship and by such sacrifice mankind will flourish and prosper. Here the word yagna means the time sacrificed to do the daily duties offered to the Supreme Lord and other obligatory activities such as following Ekadasi. Although there is no question of praising work that is done with desires it still exhibits that in general actions are better than inertness and lassitude which are more objectionable.
There is no commentary for this verse.
In the Vedic scriptures the term Prajapati is unrestrictedly designated to the Supreme Lord Krishna, or any of duly authorised avatars or incarnations such as Narayana lord of all creation or Jagannatha lord of the universes. In the beginning of creation the Supreme Lord reflected on the plight of the living entities entangled in matter from time immemorial. These living entities were destitute of name, form and a distinction between one another as they were dormant within a portion of the Supreme Lords potency. Possessing an eternal soul they had the ability to fulfill great goals but they languishing inert like latent substances. In this case Prajapati refers to Brahma, a duly authorised Guna avatar of the Supreme Lord who while reflecting on them out of His infinite mercy and for the sake of their ultimate redemption, inspired Brahma to project them into the material manifestation. Brahma worshipped the Supreme Lord as sacrifice and thus inaugurated the institution of yagna which will fulfill all ones highest ambitions granting moksa or libeartion in the spiritual worlds. How this will manifest will be further explained in the next verse.
In the Vedic scriptures the term Prajapati is unrestrictedly designated to the Supreme Lord Krishna, or any of duly authorised avatars or incarnations such as Narayana lord of all creation or Jagannatha lord of the universes. In the beginning of creation the Supreme Lord reflected on the plight of the living entities entangled in matter from time immemorial. These living entities were destitute of name, form and a distinction between one another as they were dormant within a portion of the Supreme Lords potency. Possessing an eternal soul they had the ability to fulfill great goals but they languishing inert like latent substances. In this case Prajapati refers to Brahma, a duly authorised Guna avatar of the Supreme Lord who while reflecting on them out of His infinite mercy and for the sake of their ultimate redemption, inspired Brahma to project them into the material manifestation. Brahma worshipped the Supreme Lord as sacrifice and thus inaugurated the institution of yagna which will fulfill all ones highest ambitions granting moksa or libeartion in the spiritual worlds. How this will manifest will be further explained in the next verse.
Sahayajnaah prajaah srishtwaa purovaacha prajaapatih; Anena prasavishyadhwam esha vo’stvishtakaamadhuk.
saha—along with; yajñāḥ—sacrifices; prajāḥ—humankind; sṛiṣhṭvā—created; purā—in beginning; uvācha—said; prajā-patiḥ—Brahma; anena—by this; prasaviṣhyadhvam—increase prosperity; eṣhaḥ—these; vaḥ—your; astu—shall be; iṣhṭa-kāma-dhuk—bestower of all wishes