सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।3.10।।
।।3.10।। प्रजापति (सृष्टिकर्त्ता) ने (सृष्टि के) आदि में यज्ञ सहित प्रजा का निर्माण कर कहा इस यज्ञ द्वारा तुम वृद्धि को प्राप्त हो और यह यज्ञ तुम्हारे लिये इच्छित कामनाओं को पूर्ण करने वाला (इष्टकामधुक्) होवे।।
।।3.10।। स्वयं सृष्टिकर्त्ता प्रजापति पंचमहाभूतों की सृष्टि रचकर अन्य प्राणियों के साथ मनुष्य को भी कर्म करने और फल पाने के लिये उत्पन्न करते हैं। उस समय वे यज्ञ को भी बनाते हैं अर्थात् उसका उपदेश देते हैं। यज्ञ का अर्थ है समर्पण बुद्धि और सेवा भाव से किये हुये कर्म। प्रकृति में सर्वत्र यज्ञ की भावना स्पष्ट दिखाई देती है। सूर्य प्रकाशित होता है और चन्द्रमा प्रगट होता है समुद्र स्पन्दित होता है पृथ्वी प्राणियों को धारण करती है ये सब मातृभाव से तथा यज्ञ की भावना से कर्म करते हैं जिनमें रंचमात्र भी आसक्ति नहीं होती।ब्रह्माण्ड की शक्तियाँ और प्राकृतिक घटना चक्र अपने आप सब की सेवा में संलग्न रहता है। जगत् में जीवन के प्रादुर्भाव के पूर्व ही प्रकृति ने उसके लिये उचित क्षेत्र निर्माण कर रखा था। जब विभिन्न स्तरों पर जीवन का विकास होता है तब भी हम प्रकृति में सर्वत्र चल रहा यज्ञ कर्म देख सकते हैं जिसके कारण सबका अस्तित्व बना रहता है और विकास होता रहता है।उपर्युक्त सिद्धांत को काव्यात्मकभाषा में यह अर्थ गर्भित श्लोक प्रस्तुत करता है। सृष्टिकर्त्ता ब्रह्मा जी ने सेवा की भावना तथा यज्ञ करने की क्षमता के साथ जगत् की रचना की। मानो उन्होंने घोषणा की इस यज्ञ में तुम वृद्धि को प्राप्त हो यह तुम्हारे लिये कामधेनु सिद्ध हो। पौराणिक कथाओं के अनुसार कामधेनु नामक गाय वशिष्ट ऋषि के पास थी जो सभी इच्छाओं की पूर्ति करती थी। इसलिये इस शब्द का अर्थ इतना ही है कि यदि मनुष्य सहयोग और अनुशासन में रह कर अनासक्ति और त्याग की भावना से कर्म करने में तत्पर रहे तो उसके लिये कोई लक्ष्य अप्राप्य नहीं हो सकता।यज्ञ से इसका कैसे सम्पादन किया जा सकता है