देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।3.11।।
।।3.10 3.11।।प्रजापति ब्रह्माजीने सृष्टिके आदिकालमें कर्तव्यकर्मोंके विधानसहित प्रजा(मनुष्य आदि) की रचना करके उनसे (प्रधानतया मनुष्योंसे) कहा कि तुमलोग इस कर्तव्यके द्वारा सबकी वृद्धि करो और वह कर्तव्यकर्मरूप यज्ञ तुमलोगोंको कर्तव्यपालनकी आवश्यक सामग्री प्रदान करनेवाला हो। अपने कर्तव्यकर्मके द्वारा तुमलोग देवताओंको उन्नत करो और वे देवतालोग अपने कर्तव्यके द्वारा तुमलोगोंको उन्नत करें। इस प्रकार एकदूसरेको उन्नत करते हुए तुमलोग परम कल्याणको प्राप्त हो जाओगे।
।।3.11।। तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं की उन्नति करो और वे देवतागण तुम्हारी उन्नति करें। इस प्रकार परस्पर उन्नति करते हुये परम श्रेय को तुम प्राप्त होगे।।
।।3.11।। व्याख्या सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः ब्रह्माजी प्रजा (सृष्टि) के रचयिता एवं उसके स्वामी हैं अतः अपने कर्तव्यका पालन करनेके साथ वे प्रजाकी रक्षा तथा उसके कल्याणका विचार करते रहते हैं। कारण कि जो जिसे उत्पन्न करता है उसकी रक्षा करना उसका कर्तव्य हो जाता है। ब्रह्माजी प्रजाकी रचना करते उसकी रक्षामें तत्पर रहते तथा सदा उसके हितकी बात सोचते हैं। इसलिये वेप्रजापति कहलाते हैं।सृष्टि अर्थात् सर्गके आरम्भमें ब्रह्माजीने कर्तव्यकर्मोंकी योग्यता और विवेकसहित मनुष्योंकी रचना की है (टिप्पणी प0 128)। अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितिका सदुपयोग कल्याण करनेवाला है। इसलिये ब्रह्माजीने अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितिका सदुपयोग करनेका विवेक साथ देकर ही मनुष्योंकी रचना की है।सत्असत्का विचार करनेमें पशु पक्षी वृक्ष आदिके द्वारा स्वाभाविक परोपकार (कर्तव्यपालन) होता है किन्तु मनुष्यको तो भगवत्कृपासे विशेष विवेकशक्ति मिली हुई है। अतः यदि वह अपने विवेकको महत्त्व देकर अकर्तव्य न करे तो उसके द्वारा भी स्वाभाविक लोकहितार्थ कर्म हो सकते हैं।देवता ऋषि पितर मनुष्य तथा अन्य पशु पक्षी वृक्ष आदि सभी प्राणी प्रजा हैं। इनमें भी योग्यता अधिकार और साधनकी विशेषताके कारण मनुष्यपर अन्य सब प्राणियोंके पालनकी जिम्मेवारी है। अतः यहाँ प्रजाः पद विशेषरूपसे मनुष्योंके लिये ही प्रयुक्त हुआ है।कर्मयोग अनादिकालसे चला आ रहा है। चौथे अध्यायके तीसरे श्लोकमें पुरातनः पदसे भी भगवान् कहते हैं कि यह कर्मयोग बहुत कालसे प्रायः लुप्त हो गया था जिसको मैंने तुम्हें फिरसे कहा है। उसी बातको यहाँ भी पुरा पदसे वे दूसरी रीतिसे कहते हैं किमैंने ही नहीं प्रत्युत ब्रह्माजीने भी सर्गके आदिकालमें कर्तव्यसहित प्रजाको रचकर उनको उसी कर्मयोगका आचरण करनेकी आज्ञा दी थी। तात्पर्य यह है कि कर्मयोग(निःस्वार्थभावसे कर्तव्यकर्म करने) की परम्परा अनादिकालसे ही चली आ रही है। यह कोई नयी बात नहीं है।चौथे अध्यायमें (चौबीसवेंसे तीसवें श्लोकतक) परमात्मप्राप्तिके जितने साधन बताये गये हैं वे सभी यज्ञ के नामसे कहे गये हैं जैसे द्रव्ययज्ञ तपयज्ञ योगयज्ञ प्राणायाम आदि। प्रायः यज्ञ शब्दका अर्थ हवनसे सम्बन्ध रखनेवाली क्रियाके लिये ही प्रसिद्ध है परन्तु गीतामें यज्ञ शब्द शास्त्रविधिसे की जानेवाली सम्पूर्ण विहित क्रियाओंका वाचक भी है। अपने वर्ण आश्रम धर्म जाति स्वभाव देश काल आदिके अनुसार प्राप्त कर्तव्यकर्म यज्ञ के अन्तर्गत आते हैं। दूसरेके हितकी भावनासे किये जानेवालेसब कर्म भी यज्ञ ही हैं। ऐसे यज्ञ(कर्तव्य) का दायित्व मनुष्यपर पर ही है।अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् (टिप्पणी प0 129.1) ब्रह्माजी मनुष्योंसे कहते हैं कि तुमलोग अपनेअपने कर्तव्यपालनके द्वारा सबकी वृद्धि करो उन्नति करो ऐसा करनेसे तुमलोगोंको कर्तव्यकर्म करनेमें उपयोगी सामग्री प्राप्त होती रहे उसकी कभी कमी न रहे।अर्जुनकी कर्म न करनेमें जो रुचि थी उसे दूर करनेके लिये भगवान् कहते हैं कि प्रजापति ब्रह्माजीके वचनोंसे भी तुम्हें कर्तव्यकर्म करनेकी शिक्षा लेनी चाहिये। दूसरोंके हितके लिये कर्तव्यकर्म करनेसे ही तुम्हारी लौकिक और पारलौकिक उन्नति हो सकती है।निष्कामभावसे केवल कर्तव्यपालनके विचारसे कर्म करनेपर मनुष्य मुक्त हो जाता है और सकामभावसे कर्म करनेपर मनुष्य बन्धनमें पड़ जाता है। प्रस्तुत प्रकरणमें निष्कामभावसे किये जानेवाले कर्तव्यकर्मका विवेचन चल रहा है। अतः यहाँ इष्टकाम पदका अर्थ इच्छित भोगसामग्री (जो सकामभावका सूचक है) लेना उचित प्रतीत नहीं होता। यहाँ इस पदका अर्थ है यज्ञ (कर्तव्यकर्म) करनेकी आवश्यक सामग्री (टिप्पणी प0 129.2)।कर्मयोगी दूसरोंकी सेवा अथवा हित करनेके लिये सदा ही तत्पर रहता है। इसलिये प्रजापति ब्रह्माजीके विधानके अनुसार दूसरोंकी सेवा करनेकी सामग्री सामर्थ्य और शरीरनिर्वाहकी आवश्यक वस्तुओंकी उसे कभी कमी नहीं रहती। उसको ये उपयोगी वस्तुएँ सुगमतापूर्वक मिलती रहती हैं। ब्रह्माजीके विधानके अनुसार कर्तव्यकर्म करनेकी सामग्री जिसजिसको जोजो भी मिली हुई है वह कर्तव्यपालन करनेके लिये उसउसको पूरीकीपूरी प्राप्त है। कर्तव्यपालनकी सामग्री कभी किसीके पास अधूरी नहीं होती। ब्रह्माजीके विधानमें कभी फरक नहीं पड़ सकता क्योंकि जब उन्होंने कर्तव्यकर्म करनेका विधान निश्चित किया है तब जितनेसे कर्तव्यका पालन हो सके उतनी सामग्री देना भी उन्हींपर निर्भर है।वास्तवमें मनुष्यशरीर भोग भोगनेके लिये है ही नहीं एहि तन कर फल बिषय न भाई (मानस 7। 44। 1)। इसीलिये सांसारिक सुखोंको भोगो ऐसी आज्ञा या विधान किसी भी सत्शास्त्रमें नहीं है। समाज भी स्वच्छन्द भोग भोगनेकी आज्ञा नहीं देता। इसके विपरीत दूसरोंको सुख पहुँचानेकी आज्ञा या विधान शास्त्र और समाज दोनों ही देते हैं। जैसे पिताके लिये यह विधान तो मिलता है कि वह पुत्रका पालनपोषण करे पर यह विधान कहीं भी नहीं मिलता कि पुत्रसे पिता सेवा ले ही। इसी प्रकार पुत्र पत्नी आदि अन्य सम्बन्धोंके लिये भी समझना चाहिये।कर्मयोगी सदा देनेका ही भाव रखता है लेनेका नहीं क्योंकि लेनेका भाव ही बाँधनेवाला है। लेनेका भाव रखनेसे कल्याणप्राप्तिमें बाधा लगनेके साथ ही सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्तिमें भी बाधा उपस्थित हो जाती है। प्रायः सभीका अनुभव है कि संसारमें लेनेका भाव रखनेवालेको कोई देना नहीं चाहता। इसलिये ब्रह्माजी कहते हैं कि बिना कुछ चाहे निःस्वार्थभावसे कर्तव्यकर्म करनेसे ही मनुष्य अपनी उन्नति (कल्याण) कर सकता है।देवान् भावयतानेन यहाँ देव शब्द उपलक्षक है अतः इस पदके अन्तर्गत मनुष्य देवता ऋषि पितर आदि समस्त प्राणियोंको समझना चाहिये। कारण कि कर्मयोगीका उद्देश्य अपने कर्तव्यकर्मोंसे प्राणिमात्रको सुख पहँचाना रहता है। इसलिये यहाँ ब्रह्माजी सम्पूर्ण प्राणियोंकी उन्नतिके लिये मनुष्योंको अपने कर्तव्यकर्मरूप यज्ञके पालनका आदेश देते हैं। अपनेअपने कर्तव्यका पालन करनेसे मनुष्यका स्वतः कल्याण हो जाता है (गीता 18। 45)। कर्तव्यकर्मका पालन करनेके उपदेशके पूर्ण अधिकारी मनुष्य ही हैं। मनुष्योंको ही कर्म करनेकी स्वतन्त्रता मिली हुई है अतः उन्हें इस स्वतन्त्रताका सदुपयोग करना चाहिये।ते देवा भावयन्तु वः जैसे वृक्ष लता आदिमें स्वाभाविक ही फूलफल लगते हैं परन्तु यदि उन्हें खाद और पानी दिया जाय तो उनमें फूलफल विशेषतासे लगते हैं। ऐसे ही यजनपूजनसे देवताओंकी पुष्टि होती है जिससे देवताओंके काम विशेष न्यायप्रद होते हैं। परन्तु जब मनुष्य अपने कर्तव्यकर्मोंके द्वारा देवाताओंका यजनपूजन नहीं करते तब देवताओंको पुष्टि नहीं मिलती जिससे उनमें अपने कर्तव्यका पालन करनेमें कमी आ जाती है। उनके कर्तव्यपालनमें कमी आनेसे ही संसारमें विप्लव अर्थात् अनावृष्टिअतिवृष्टि आदि होते हैं।परस्परं भावयन्तः इन पदोंका अर्थ यह नहीं समझना चाहिये कि दूसरा हमारी सेवा करे तो हम उसकी सेवा करें प्रत्युत यह समझना चाहिये कि दूसरा हमारी सेवा करे या न करे हमें तो अपने कर्तव्यके द्वारा उसकी सेवा करनी ही है। दूसरा क्या करता है क्या नहीं करता हमें सुख देता या दुःख इन बातोंसे हमें कोई मतलब नहीं रखना चाहिये क्योंकि दूसरोंके कर्तव्यको देखनेवाला अपने कर्तव्यसे च्युत हो जाता है। परिणामस्वरूप उसका पतन हो जाता है। दूसरोंसे कर्तव्यका पालन करवाना अपने अधिकारकी बात भी नहीं है। हमें सबका हित करनेके लिये केवल अपने कर्तव्यका पालन करना है और उसके द्वारा सबको सुख पहुँचाना है। सेवा करनेमें अपनी समझ सामर्थ्य समय और सामग्रीको अपने लिये थोड़ीसी भी बचाकर नहीं रखनी है। तभी जडतासे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद होगा।हमारे जितने भी सांसारिक सम्बन्धी मातापिता स्त्रीपुत्र भाईभौजाई आदि हैं उन सबकी हमें सेवा करनी है। अपना सुख लेनेके लिये ये सम्बन्ध नहीं हैं। हमारा जिनसे जैसा सम्बन्ध है उसीके अनुसार उनकी सेवा करना मर्यादाके अनुसार उन्हें सुख पहुँचाना हमारा कर्तव्य है। उनसे कोई आशा रखना और उनपर अपना अधिकार मानना बहुत बड़ी भूल है। हम उनके ऋणी हैं और ऋण उतारनेके लिये उनके यहाँ हमारा जन्म हुआ है। अतः निःस्वार्थभावसे उन सम्बन्धियोंकी सेवा करके हम अपना ऋण चुका दें यह हमारा सर्वप्रथम आवश्यक कर्तव्य है। सेवा तो हमें सभीकी करनी है परन्तु जिनकी हमारेपर जिम्मेवारी है उन सम्बन्धियोंकी सेवा सबसे पहले करनी चाहिये।शरीर इन्द्रयाँ मन बुद्धि पदार्थ आदि अपने नहीं हैं और अपने लिये भी नहीं हैं यह सिद्धान्त है। अतः अपनेअपने कर्तव्यका पालन करनेसे स्वतः एक दूसरेकी उन्नति होती है। कर्तव्य और अधिकारसम्बन्धी मार्मिक बातकर्मयोग तभी होता है जब मनुष्य अपने कर्तव्यके पालनपूर्वक दूसरेके अधिकारकी रक्षा करता है। जैसे मातापिताकी सेवा करना पुत्रका कर्तव्य है और मातापिताका अधिकार है। जो दूसरेका अधिकार होता है वही हमारा कर्तव्य होता है। अतः प्रत्येक मनुष्यको अपने कर्तव्यपालनके द्वारा दूसरेके अधिकारकी रक्षा करनी है तथा दूसरेका कर्तव्य नहीं देखना है। दूसरेका कर्तव्य देखनेसे मनुष्य स्वयं कर्तव्यच्युत हो जाता है क्योंकि दूसरेका कर्तव्य देखना हमारा कर्तव्य नहीं है। तात्पर्य है कि दूसरेका हित करना है यह हमारा कर्तव्य है और दूसरेका अधिकार है। यद्यपि अधिकार कर्तव्यके ही अधीन है तथापि मनुष्यको अपना अधिकार देखना ही नहीं हैं प्रत्युत अपने अधिकारका त्याग करना है। केवल दूसरेके अधिकारकी रक्षाके लिये अपने कर्तव्यका पालन करना है। दूसरेका कर्तव्य देखना तथा अपना अधिकार जमाना लोक और परलोकमें महान् पतन करनेवाला है। वर्तमान समयमें घरोंमें समाजमें जो अशान्ति कलह संघर्ष देखनेमें आ रहा है उसमें मूल कारण यही है कि लोग अपने अधिकारकी माँग तो करते हैं पर अपने कर्तव्यका पालन नहीं करते इसलिये ब्रह्माजी देवताओं और मनुष्योंको उपदेश देते हैं कि एकदूसरेका हित करना तुमलोगोंका कर्तव्य है।श्रेयः परमवाप्स्यथ प्रायः ऐसी धारणा बनी हुई है कि यहाँ परम कल्याणकी प्राप्तिका कथन अतिशयोक्ति है पर वास्तवमें ऐसा नहीं है। अगर इसमें किसीको सन्देह हो तो वह ऐसा करके खुद देख सकता है। जैसे धरोहर रखनेवालेकी धरोहर उसे वापस कर देनेसे धरोहर रखनेवालेसे तथा उस धरोहरसे हमारा किसी प्रकारका सम्बन्ध नहीं रहता ऐसे ही संसारकी वस्तु संसारकी सेवामें लगा देनेसे संसार और संसारकी वस्तुसे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं रहता। संसारसे माने हुए सम्बन्धका विच्छेद होते ही चिन्मयताका अनुभव हो जाता है। अतः प्रजापति ब्रह्माजीके वचनोंमें अतिशयोक्तिकी कल्पना करना अनुचित है।यह सिद्धान्त है कि जबतक मनुष्य अपने लिये कर्म करता है तबतक उसके कर्मकी समाप्ति नहीं होती और वह कर्मोंसे बँधता ही जाता है। कृतकृत्य वही होता है जो अपने लिये कभी कुछ नहीं करता। अपने लिये कुछ भी नहीं करनेसे पापका आचरण भी नहीं होता क्योंकि पापका आचरण कामनाके कारण ही होता है (3। 37)। अतः अपना कल्याण चाहनेवाले साधकको चाहिये कि वह शास्त्रोंकी आज्ञाके अनुसार फलकी इच्छा और आसक्तिका त्याग करके कर्तव्यकर्म करनेमें तत्पर हो जाय फिर कल्याण तो स्वतःसिद्ध है।अपनी कामनाका त्याग करनेसे संसारमात्रका हित होता है। जो अपनी कामनापूर्तिके लिये आसक्तिपूर्वक भोग भोगता है वह स्वयं तो अपनी हिंसा (पतन) करता ही है साथ ही जिनके पास भोगसामग्रीका अभाव है उनकी भी हिंसा करता है अर्थात् दुःख देता है। कारण कि भोगसामग्रीवाले मनुष्यको देखकर अभावग्रस्त मनुष्यको उस भोगसामग्रीके अभावका दुःख होना स्वाभाविक है। इस प्रकार स्वयं सुख भोगनेवाला व्यक्ति हिंसासे कभी बच नहीं सकता। ठीक इसके विपरीत पारमार्थिक मार्गपर चलनेवाले व्यक्तिको देखकर दूसरोंको स्वतः शान्ति मिलती है क्योंकि पारमार्थिक सम्पत्तिपर सबका समान अधिकार है। निष्कर्ष यह निकला कि मनुष्य कामनाआसक्तिका त्याग करके अपने कर्तव्यकर्मका पालन करता रहे तो ब्रह्माजीके कथनानुसार वह परम कल्याणको अवश्य ही प्राप्त हो जायग। इसमें कोई सन्देह नहीं है।यहाँ परम कल्याणकी प्राप्ति मुख्यतासे मनुष्योंके लिये ही बतायी है देवताओंके लिये नहीं। कारण कि देवयोनि अपना कल्याण करनेके लिये नहीं बनायी गयी है। मनुष्य जो कर्म करता है उन कर्मोंके अनुसार फल देने कर्म करनेकी सामग्री देने तथा अपनेअपने शुभ कर्मोंका फल भोगनेके लिये देवता बनाये गये हैं। वे निष्कामभावसे कर्म करनेकी सामग्री देते हों ऐसी बात नहीं है। परन्तु उन देवताओंमें भी अगर किसीमें अपने कल्याणकी इच्छा हो जाय तो उसका कल्याण होनेमें मना नहीं है अर्थात् अगर कोई अपना कल्याण करना चाहे तो कर सकता है। जब पापीसेपापी मनुष्यके लिये भी उद्धार करनेकी मनाही नहीं है तो फिर देवताओंके लिये (जो कि पुण्ययोनि है) अपना उद्धार करनेकी मनाही कैसे हो सकती है ऐसा होनेपर भी देवताओंका उद्देश्य भोग भोगनेका ही रहता है इसलिये उनमें प्रायः अपने कल्याणकी इच्छा नहीं होती।
।।3.11।। वैदिक सिद्धार्न्त के अनुसार सर्वशक्तिमान् ईश्वर एक है। उसकी यह सर्वशक्ति प्रकृति में अनेक प्रकार से व्यक्त होकर सदैव कार्य करती है। विभिन्न प्रकार से व्यक्त परिच्छिन्न शक्तियों के विभिन्न नियामक हैं उन्हें देवता कहते हैं। इन सबके नाम भी वेदों में बताये हैं जैसे अग्नि वायु इन्द्र आदि।इस श्लोक के सर्वमान्य और सर्वत्र उपयुक्त होने के लिये देव शब्द का अर्थ यह समझना चाहिये कि वे किसी भी कर्म क्षेत्र का वह अधिष्ठाता देवता जो कर्म करने वाले कर्मचारी या कर्त्ता को फल प्रदान करता हो। वह देवता और कोई नहीं उस कर्म क्षेत्र की उत्पादन क्षमता ही होगी। जब हम किसी क्षेत्र विशेष में पूर्ण मनोयोग से परिश्रम करते हैं तब उस क्षेत्र की उत्पादन क्षमता प्रगट होकर हमें फल प्रदान करती है। यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है यदि हम समझने का प्रयत्न करें कि अपने देश को भारतमाता कहने का हमारा क्या तात्पर्य है। राष्ट्र की शक्ति को एक रूप देने में हमारा तात्पर्य उस राष्ट्र के सभी प्रकार के कर्मक्षेत्रों की उत्पादन क्षमता से ही होता है।इसमें कोई सन्देह नहीं कि कहीं पर भी निर्माण की जो क्षमता अव्यक्त रूप में रहती है उसे व्यक्त करने के लिये आवश्यक है केवल मनुष्य का परिश्रम। इस अव्यक्त क्षमता को कहते हैं देव। इन देवों को यज्ञ कर्म से प्रसन्न कर उनका आह्वान किये जाने पर वे प्रगट होकर यज्ञकर्ता को फल प्रदान कर प्रसन्न करेंगे। इस प्रकार परस्पर उन्नति कर मनुष्य परम श्रेय को प्राप्त करेगा यह ब्रह्माजी का दिव्य उद्देश्य इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने बताया।इस सेवाधर्म का पालन प्रकृति में सर्वत्र होता दिखाई देता है। एक मात्र मनुष्य ही है जिसे स्वेच्छा से कर्म करने की स्वतन्त्रता दी गई है इस सार्वभौमिक सेवाधर्मयज्ञ भावना का पालन करने पर वह शुभफल प्राप्त करता है परन्तु जिस सीमा तक अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित हुआ वह कर्म करेगा उतना ही वह दुख पायेगा क्योंकि प्रकृति के सामंजस्य में वह विरोध उत्पन्न करता है।और
3.11 You nourish the gods with this. Let those gods nourish you. Nourishing one another, you shall attain the supreme Good.
3.11 With this do ye nourish the gods and may those gods nourish you; thus nourishing one another, ye shall attain to the highest good.
3.11. With this you must gratify the devas and let the devas gratify you; [thus] gratifying one another, you shall attain the highest good.
3.11 देवान् the gods? भावयत nourish (ye)? अनेन with this? ते those? देवाः gods? भावयन्तु may nourish? वः you? परस्परम् one another? भावयन्तः nourishing? श्रेयः good? परम् the highest? अवाप्स्यथ shall attain.Commentary Deva literally means the shining one. By this sacrifice you nourish the gods such as Indra. The gods shall nourish you with rain? etc. the highest good is the attainment of the knowledge of the Self which frees one from the round of births and deaths. The highest good may mean the attainment of heaven also. The fruit depends upon the motive of the aspirant.
3.11 Bhavayata, you nourish; devan, the gods, Indra and others; anena, with this sarifice. Let te devah, those gods; bhavayantu, nourish; vah, you-make you contented with rainfall etc. Thus bhavayantah, nourishing; parasparam, one another; avapsyatha, you shall attain; the param, supreme; sreyah, Good, called Liberation, through the attainment of Knowledge; or, you shall attain heaven-which is meant by param sreyah. [The param sreyah (supreme Good) will either mean liberation or heaven in accordance with aspirants hankering for Liberation or enjoyment.] Moreover,
3.11 Devan etc. Devas : Those that have a tendency of playing i.e., the deities who preside over the organs and who dwell in the senses (or who are nothing but the sensitive faculty of the senses) and who are well-known in the Rahasyasastra. You must gratify these deities by this action i.e., feed them compability with sense-objects. Then, being satisfied, let these deities gratify (cause) you to have emancipation suitable exclusively to the intrinsic nature of the Self. For, [then alone you attain] a capacity to remain in your own Self. Thus when the mutual gratification - you gratifying the [deities of the] senses, and they letting [you] be absorbed in the Self - in the uninterruped series of periods of being extrovert and of meditation, you shall soon undoubtedly attain the highest good i.e., the Supreme that is marked with the total disappearance of [all] mutual differences. This path of the said nature is to be followed not merely for emancipation, but also for gaining all super - human powers (or success siddhi). This [the Lord] says -
3.11 By this, i.e., by this sacrifice, you propitiate the gods who form My body and have Me as their Self. For Sri Krsna will say later on: For I am the only enjoyer and the only Lord of Sacrifices (9.24). Worshipped by sacrifices, may these gods, who have Me as their Self, nourish you with food, drink etc., which are reired also for their worship. Thus, supporting each other, may you attain the highest good called Moksa (release).
This verse explains how the yajna yields all desires. “By this yajna (anena), please the devatas. You make them pleased by the sacrifice. The devatas also will please all of you.” Bhava indicates affection in this verse.
How does the sacrifice yield desired enjoyments? Lord Krishna answers this here. By yagna or worship and appeasement one pleases the devas or demi- gods, who in turn please the offerer with prosperity and abundance. Thus mutually gratifying each other both humans and the devas will be happy and attained the highest good.
There is no commentary for this verse.
Lord Krishna explains that by yagna which is worship and appeasement of the devas or demi-gods who are His universal administrators of the material existence and who constitute His body and of whom He is the atma or soul within. Later in chapter IX.xxiv beginning with aham hi sarva we will see Him confirm that He is the sole enjoyer and rewarder of all yagnas. So let the demi-gods of whom Lord Krishna is the atma be worshipped so they will grant all prayers of prosperity and abundance. In this way by mutually offering services mankind shall reap its summum bonum and highest beatitude.
Lord Krishna explains that by yagna which is worship and appeasement of the devas or demi-gods who are His universal administrators of the material existence and who constitute His body and of whom He is the atma or soul within. Later in chapter IX.xxiv beginning with aham hi sarva we will see Him confirm that He is the sole enjoyer and rewarder of all yagnas. So let the demi-gods of whom Lord Krishna is the atma be worshipped so they will grant all prayers of prosperity and abundance. In this way by mutually offering services mankind shall reap its summum bonum and highest beatitude.
Devaan bhaavayataanena te devaa bhaavayantu vah; Parasparam bhaavayantah shreyah param avaapsyatha.
devān—celestial gods; bhāvayatā—will be pleased; anena—by these (sacrifices); te—those; devāḥ—celestial gods; bhāvayantu—will be pleased; vaḥ—you; parasparam—one another; bhāvayantaḥ—pleasing one another; śhreyaḥ—prosperity; param—the supreme; avāpsyatha—shall achieve