यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।3.13।।
।।3.13।।यज्ञशेष(योग) का अनुभव करनेवाले श्रेष्ठ मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाते हैं। परन्तु जो केवल अपने लिये ही पकाते अर्थात् सब कर्म करते हैं वे पापीलोग तो पापका ही भक्षण करते हैं।
।।3.13।। यज्ञ के अवशिष्ट अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं किन्तु जो लोग केवल स्वयं के लिये ही पकाते हैं वे तो पापों को ही खाते हैं।।
3.13।। व्याख्या यज्ञशिष्टाशिनः सन्तः कर्तव्यकर्मोंका निष्कामभावसे विधिपूर्वक पालन करनेपर (यज्ञशेषके रूपमें) योग अथवा समता ही शेष रहती है। कर्मयोगमें यह खास बात है कि संसारसे प्राप्त सामग्रीके द्वारा ही कर्म होता है। अतः संसारकी सेवामें लगा देनेपर ही वह कर्म यज्ञ सिद्ध होता है। यज्ञकी सिद्धिके बाद स्वतः अवशिष्ट रहनेवाला योग अपने लिये होता है। यह योग (समता) ही यज्ञशेष है जिसको भगवान्ने चौथे अध्यायमें अमृत कहा है यज्ञशिष्टामृतभुजः (4। 31)।मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः यहाँ किल्बिषैः पद बहुवचनान्त है जिसका अर्थ है सम्पूर्ण पापोंसे अर्थात् बन्धनोंसे। परन्तु भगवान्ने इस पदके साथ सर्व पद भी दिया है जिसका विशेष तात्पर्य यह हो जाता है कि यज्ञशेषका अनुभव करनेपर मनुष्यमें किसी भी प्रकारका बन्धन नहीं रहता। उसके सम्पूर्ण (सञ्चित प्रारब्ध और क्रियमाण) कर्म विलीन हो जाते हैं (टिप्पणी प0 135) (गीता 4। 23)। सम्पूर्ण कर्मोंके विलीन हो जानेपर उसे सनातन ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है (गीता 4। 31)।इसी अध्यायके नवें श्लोकमें भगवान्ने यज्ञार्थ कर्मसे अन्यत्र कर्मको बन्धनकारक बताया और चौथे अध्यायके तेईसवें श्लोकमें यज्ञार्थ कर्म करनेवाले मनुष्यके सम्पूर्ण कर्म विलीन होनेकी बात कही। इन दोनों श्लोकों (3। 9 तथा 4। 23) में जो बात आयी है वही बात यहाँ सर्वकिल्बिषैः पदसे कही गयी है। तात्पर्य है कि यज्ञशेषका अनुभव करनेवाले मनुष्य सम्पूर्ण बन्धनरूप कर्मोंसे मुक्त हो जाते हैं। पापकर्म तो बन्धनकारक होते ही हैं सकामभावसे किये गये पुण्यकर्म भी (फलजनक होनेसे) बन्धनकारक होते हैं। यज्ञशेष(समता) का अनुभव करनेपर पाप और पुण्य दोनों ही नहीं रहते बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते (गीता 2। 50)।अब विचार करें कि बन्धनका वास्तविक कारण क्या है ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये इस कामनासे ही बन्धन होता है। यह कामना सम्पूर्ण पापोंकी जड़ है (गीता 3। 37)। अतः कामनाका त्याग करना अत्यन्त आवश्यक है।वास्तवमें कामनाकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। कामना अभावसे उत्पन्न होती है और स्वयं (सत्स्वरूप) में किसी प्रकारका अभाव है ही नहीं और हो सकता भी नहीं। इसलिये स्वयं में कामना है ही नहीं। केवल भूलसे शरीरादि असत् पदार्थोंके साथ अपनी एकता मानकर मनुष्य असत् पदार्थोंके अभावसे अपनेमें अभाव मानने लगता है और उस अभावकी पूर्तिके लिये असत् पदार्थोंकी कामना करने लगता है। साधकको इस बातकी तरफ खयाल करना चाहिये कि आरम्भ और समाप्त होनेवाली क्रियाओंसे उत्पन्न और नष्ट होनेवाले पदार्थ ही तो मिलेंगे। ऐसे उत्पत्तिविनाशशील पदार्थोंसे मनुष्यके अभावकी पूर्ति कभी हो ही नहीं सकती। जब इन पदार्थोंसे अभावकी पूर्ति होनेका प्रश्न ही नहीं है तो फिर इन पदार्थोंकी कामना करना भी भूल ही है। ऐसा ठीकठीक विचार करनेसे कामनाकी निवृत्ति सहज हो सकती है।हाँ अपने कहलानेवाले शरीरादि पदार्थोंको कभी भी अपना तथा अपने लिये न मानकर दूसरोंकी सेवामें लगानेसे इन पदार्थोंसे स्वतः सम्बन्धविच्छेद हो जाता है जिससे तत्काल अपने सत्स्वरूपका बोध हो जाता है। फिर कोई अभाव शेष नहीं रहता। जिसके मनमें किसी प्रकारके अभावकी मान्यता (कामना) नहीं रहती वह मनुष्य जीतेजी ही संसारसे मुक्त है।ये पचन्त्यात्मकारणात् अपने लिये कुछ भी चाहनेका भाव अर्थात् स्वार्थ कामना ममता आसक्ति एवं अपनेको अच्छा कहलानेका किञ्चित् भी भाव आत्मकारणात् पदके अन्तर्गत आ जाता है। मनुष्यमें स्वार्थबुद्धि जितनी ज्यादा होती है वह उतना ही ज्यादा पापी होता है।यहाँ पचन्ति पद उपलक्षक है जिसका अर्थ केवल पकाने से ही न होकर खाना पीना चलना बैठनाआदि समस्त सांसारिक क्रियाओंकी सिद्धिसे है।अपना स्वार्थ चाहनेवाला व्यक्ति अपने लिये पकाये (कार्य करे) अथवा दूसरेके लिये वास्तवमें वह अपने लिये ही पकाता है। इसके विपरीत अपने स्वार्थभावका त्याग करके कर्तव्यकर्म करनेवाला साधक अपने कहलानेवाले शरीरके लिये पकाये अथवा दूसरेके लिये वास्तवमें वह दूसरेके लिये ही पकाता है। संसारसे हमें जो भी सामग्री मिली है उसे संसारकी सेवामें न लगाकर अपने सुखभोगमें लगाना ही अपने लिये पकाना है। संसारके छोटेसेछोटे अंश शरीरको अपना और अपने लिये मानना महान् पाप है। परन्तु शरीरको अपना न मानकर इसको आवश्यकतानुसार अन्न जल वस्तु आदि देना और इसको आलसी प्रमादी भोगी नहीं होने देना इस शरीरकी सेवा है जिससे शरीरमें ममताआसक्ति नहीं रहती।मनुष्यको अपने कर्मोंका फल स्वयं भोगना पड़ता है परन्तु उसके द्वारा किये गये कर्मोंका प्रभाव सम्पूर्ण संसारपर पड़ता है। अपने लिये कर्म करनेवाला मनुष्य अपने कर्तव्यसे च्युत हो जाता है और अपने कर्तव्यसे च्युत होनेपर ही राष्ट्रमें अकाल महामारी मृत्यु आदि महान् कष्ट होते हैं। अतः मनुष्यके लिये उचित है कि वह अपने लिये कुछ भी न करे अपना कुछ भी न माने तथा अपने लिये कुछ भी न चाहे।कर्मफल (उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुमात्र) का आश्रय लेना अपने लिये पकाने के अन्तर्गत है। इसीलिये भगवान्ने छठे अध्यायके पहले श्लोकमें अनाश्रितः कर्मफलम् पदोंसे कर्मयोगीको कर्मफलका आश्रय न लेनेके लिये कहा है। सर्वथा अनाश्रित हो जानेपर ही मनुष्य अपने लिये कुछ नहीं करता जिससे वह योगमें स्थित हो जाता है।भुञ्जते ते त्वघं पापाः इस पदोंमें भगवान्ने अपने लिये कर्म करनेवालोंकी सभ्य भाषामें निन्दा की है। अपने लिये किये गये कर्मोंसे वह इतना पापसंग्रह कर लेता है कि चौरासी लाख योनियों एवं नरकोंका दुःख भोगनेपर भी वह खत्म नहीं होता प्रत्युत सञ्चितके रूपमें बाकी रह जाता है। मनुष्ययोनि एक ऐसा अद्भुत खेत है जिसमें जो भी पाप या पुण्यका बीज बोया जाता है वह अनेक जन्मोंतक फल देता है (टिप्पणी प0 136.1)। अतः मनुष्यको तुरंत यह निश्चय कर लेना चाहिये कि अब मैं पाप (अपने लिये कर्म) नहीं करूँगा। इस निश्चयमें बड़ी भारी शक्ति है। सच तो यह है कि परमात्माकी तरफ चलनेका दृढ़ निश्चय होनेपर पाप होना स्वतः रुक जाता है। सम्बन्ध मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं अर्जुनके इस प्रश्नके उत्तरमें भगवान् अनेक हेतु देते हुए आगेके दो श्लोकोंमें सृष्टिचक्रकी सुरक्षाके लिये भी यज्ञ (कर्तव्यकर्म) करनेकी आवश्यकताका प्रतिपादन करते हैं।
।।3.13।। उत्पादन किये बिना समाज के धन पर जीने वाले अपराधी व्यक्तियों स सर्वथा भिन्न लोगों के विषय में इस श्लोक में वर्णन है। श्रेष्ठ पुरुष यज्ञ भावना से कर्म करने के पश्चात् प्राप्त फल में अपने भाग को ही ग्रहण करते हैं और इस प्रकार सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।पूर्व काल में किये गये पाप वर्तमान में पीड़ा के कारण हैं तो वर्तमान के पाप भविष्य में दुखों के कारण बनेंगे। अत समाज में दुखों को समाप्त करने का एक मात्र उपाय है समाज के जागरूक पुरुषों का यज्ञभावना से सामूहिक कर्म करके अवशिष्ट फल को ग्रहण कर सन्तुष्ट रहना।इसके विपरीत जो केवल अपने लिये ही पकाते हैं वे पाप को ही खाते हैं। इस श्लोक से प्रतीत होता है कि श्रीकृष्ण वैयक्तिक सम्पत्ति के सर्वथा विरुद्ध हैं परन्तु एक साम्यवादी व्यक्ति के अर्थ में नहीं। समाज के धन को अपना ही समझ कर उसके परिग्रह के सिद्धांत का भगवान् विरोध करते हैं। जो मनुष्य धन के लोभ से केवल अपने भोग के लिए समाज के दरिद्र और अभागे लोगों के कष्ट की ओर ध्यान दिये बिना धन संग्रह करता है उसे ही यहाँ पाप को खाने वाला कहा गया है।निम्नलिखित कारणों से भी मनुष्य को कर्म करने चाहिये क्योंकि कर्म से ही विश्वचक्र चलता है। कैसे इसका उत्तर है