यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।3.13।।
।।3.13।। यज्ञ के अवशिष्ट अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं किन्तु जो लोग केवल स्वयं के लिये ही पकाते हैं वे तो पापों को ही खाते हैं।।
।।3.13।। उत्पादन किये बिना समाज के धन पर जीने वाले अपराधी व्यक्तियों स सर्वथा भिन्न लोगों के विषय में इस श्लोक में वर्णन है। श्रेष्ठ पुरुष यज्ञ भावना से कर्म करने के पश्चात् प्राप्त फल में अपने भाग को ही ग्रहण करते हैं और इस प्रकार सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।पूर्व काल में किये गये पाप वर्तमान में पीड़ा के कारण हैं तो वर्तमान के पाप भविष्य में दुखों के कारण बनेंगे। अत समाज में दुखों को समाप्त करने का एक मात्र उपाय है समाज के जागरूक पुरुषों का यज्ञभावना से सामूहिक कर्म करके अवशिष्ट फल को ग्रहण कर सन्तुष्ट रहना।इसके विपरीत जो केवल अपने लिये ही पकाते हैं वे पाप को ही खाते हैं। इस श्लोक से प्रतीत होता है कि श्रीकृष्ण वैयक्तिक सम्पत्ति के सर्वथा विरुद्ध हैं परन्तु एक साम्यवादी व्यक्ति के अर्थ में नहीं। समाज के धन को अपना ही समझ कर उसके परिग्रह के सिद्धांत का भगवान् विरोध करते हैं। जो मनुष्य धन के लोभ से केवल अपने भोग के लिए समाज के दरिद्र और अभागे लोगों के कष्ट की ओर ध्यान दिये बिना धन संग्रह करता है उसे ही यहाँ पाप को खाने वाला कहा गया है।निम्नलिखित कारणों से भी मनुष्य को कर्म करने चाहिये क्योंकि कर्म से ही विश्वचक्र चलता है। कैसे इसका उत्तर है