कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।3.15।।
।।3.14 3.15।।सम्पूर्ण प्राणी अन्नसे उत्पन्न होते हैं। अन्न वर्षासे होता है। वर्षा यज्ञसे होती है। यज्ञ कर्मोंसे निष्पन्न होता है। कर्मोंको तू वेदसे उत्पन्न जान और वेदको अक्षरब्रह्मसे प्रकट हुआ जान। इसलिये वह सर्वव्यापी परमात्मा यज्ञ (कर्तव्यकर्म) में नित्य प्रतिष्ठित है।
।।3.15।। कर्म की उत्पत्ति ब्रह्माजी से होती है और ब्रह्माजी अक्षर तत्त्व से व्यक्त होते हैं। इसलिये सर्व व्यापी ब्रह्म सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है।।
3.15।। व्याख्या अन्नाद्भवन्ति भूतानि प्राणोंको धारण करनेके लिये जो खाया जाता है वह अन्न (टिप्पणी प0 136.2) कहलाता है। जिस प्राणीका जो खाद्य है जिसे ग्रहण करनेसे उसके शरीरकी उत्पत्ति भरण और पुष्टि होती है उसे ही यहाँ अन्न नामसे कहा गया है जैसे मिट्टीका कीड़ा मिट्टी खाकर जीता है तो मिट्टी ही उसके लिये अन्न है।जरायुज (मनुष्य पशु आदि) उद्भिज्ज (वृक्षादि) अण्डज (पक्षी सर्प चींटी आदि) और स्वेदज (जूँ आदि) ये चारों प्रकारके प्राणी अन्नसे ही उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होकर अन्नसे ही जीवित रहते हैं (टिप्पणी प0 137.1)।पर्जन्यादन्नसम्भवः समस्त खाद्य पदार्थोंकी उत्पत्ति जलसे होती है। घासफूस अनाज आदि तो जलसे होते ही हैं मिट्टीके उत्पन्न होनेमें भी जल ही कारण है। अन्न जल वस्त्र मकान आदि शरीरनिर्वाहकीसभी सामग्री स्थूल या सूक्ष्मरूपसे जलसे सम्बन्ध रखती है और जलका आधार वर्षा है।यज्ञाद्भवति पर्जन्यः यज्ञ शब्द मुख्यरूपसे आहुति देनेकी क्रियाका वाचक है। परन्तु गीताके सिद्धान्त और कर्मयोगके प्रस्तुत प्रकरणके अनुसार यहाँ यज्ञ शब्द सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मोंका उपलक्षक है। यज्ञमें त्यागकी ही मुख्यता होती है। आहुति देनेमें अन्न घी आदि चीजोंका त्याग है दान करनेमें वस्तुका त्याग है तप करनेमें अपने सुखभोगका त्याग है कर्तव्यकर्म करनेमें अपने स्वार्थ आराम आदिका त्याग है। अतः यज्ञ शब्द यज्ञ (हवन) दान तप आदि सम्पूर्ण शास्त्रविहित क्रियाओंका उपलक्षक है।बृहदारण्यकउपनिषद्में एक कथा आती है। प्रजापति ब्रह्माजीने देवता मनुष्य और असुर इन तीनोंको रचकर उन्हें द इस अक्षरका उपदेश दिया। देवताओंके पास भोगसामग्रीकी अधिकता होनेके कारण उन्होंने द का अर्थ दमन करो समझा। मनुष्योंमें संग्रहकी प्रवृत्ति अधिक होनेके कारण उन्होंने द का अर्थ दान करो समझा। असुरोंमें हिंसा(दूसरोंको कष्ट देने) का भाव अधिक होनेके कारण उन्होंने द का अर्थ दया करो समझा। इस प्रकार देवता मनुष्य और असुर तीनोंको दिये गये उपदेशका तात्पर्य दूसरोंका हित करनेमें ही है। वर्षाके समय मेघ जोद द द की गर्जना करता है वह आज भी ब्रह्माजीके उपदेश (दमन करो दान करो दया करो) के रूपसे कर्तव्यकर्मोंकी याद दिलाता है (बृहदारण्यक0 5। 2। 13)।अपने कर्तव्यकर्मका पालन करनेसे वर्षा कैसे होगी वचनकी अपेक्षा अपने आचरणका असर दूसरोंपर स्वाभाविक अधिक पड़ता है यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः (गीता 3। 21)। मनुष्य अपनेअपने कर्तव्यकर्मका पालन करेंगे तो उसका असर देवताओंपर भी पड़ेगा जिससे वे भी अपने कर्तव्यका पलन करेंगे वर्षा करेंगे। (गीता 3। 11)। इस विषयमें एक कहानी है। चार किसानबालक थे। आषाढ़का महीना आनेपर भी वर्षा नहीं हुई तो उन्होंने विचार किया कि हल चलानेका समय आ गया है वर्षा नहीं हुई तो न सही हम तो समयपर अपने कर्तव्यका पालन कर दें। ऐसा सोचकर उन्होंने खेतमें जाकर हल चलाना शुरू कर दिया। मोरोंने उनको हल चलाते देखा तो सोचा कि बात क्या है वर्षा तो अभी हुई नहीं फिर ये हल क्यों चला रहे हैं जब उनको पता लगा कि ये अपने कर्तव्यका पालन कर रहे हैं तब उन्होंने विचार किया कि हम अपने कर्तव्यका पालन करनेमें पीछे क्यों रहें ऐसा सोचकर मोर भी बोलने लग गये। मोरोंकी आवाज सुनकर मेघोंने विचार किया कि आज हमारी गर्जना सुने बिना मोर कैसे बोल रहे हैं सारी बात पता लगनेपर उन्होंने सोचा कि हम अपने कर्तव्यसे क्यों हटें और उन्होंने भी गर्जना करनी शुरू कर दी। मेघोंकी गर्जना सुनकर इन्द्रने सोचा कि बात क्या है जब उसको मालूम हुआ कि वे अपने कर्तव्यका पालन कर रहे हैं तब उसने सोचा कि अपने कर्तव्यका पालन करनेमें मैं पीछे क्यों रहूँ ऐसा सोचकर इन्द्रने भी मेघोंको वर्षा करनेकी आज्ञा दे दी। यज्ञः कर्मसमुद्भवः निष्कामभावपूर्वक किये जानेवाले लौकिक और शास्त्रीय सभी विहित कर्मोंका नाम यज्ञ है। ब्रह्मचारीके लिये अग्निहोत्र करना यज्ञ है। ऐसे ही स्त्रियोंके लिये रसोई बनाना यज्ञ है (टिप्पणी प0 137.2)। आयुर्वेदका ज्ञाता केवल लोगोंके हितके लिये वैद्यककर्म करे तो उसके लिये वही यज्ञ है। इसी तरह विद्यार्थी अपने अध्ययनको और व्यापारी अपने व्यापारको (यदि वह केवल दूसरोंके हितके लिये निष्कामभावसे किया जाय) यज्ञ मान सकते हैं। इस प्रकार वर्ण आश्रम देश कालकीमर्यादा रखकर निष्कामभावसे किये गये सभी शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म यज्ञ रूप होते हैं। यज्ञ किसी भी प्रकारका हो क्रियाजन्य ही होता है।संखिया भिलावा आदि विषोंको भी वैद्यलोग जब शुद्ध करके औषधरूपमें देते हैं तब वे विष भी अमृतकी तरह होकर बड़ेबड़े रोगोंको दूर करनेवाले बन जाते हैं। इसी प्रकार कामना ममता आसक्ति पक्षपात विषमता स्वार्थ अभिमान आदि ये सब कर्मोंमें विषके समान हैं। कर्मोंके इस विषैले भागको निकालदेनेपर वे कर्म अमृतमय होकर जन्ममरणरूप महान् रोगको दूर करनेवाले बन जाते हैं। ऐसे अमृतमय कर्म ही यज्ञ कहलाते हैं।कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि वेद कर्तव्यकर्मोंको करनेकी विधि बताते हैं (गीता 4। 32)। मनुष्यको कर्तव्यकर्म करनेकी विधिका ज्ञान वेदसे होनेके कारण ही कर्मोंको वेदसे उत्पन्न कहा गया है। वेद शब्दके अन्तर्गत ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेद और अथर्ववेदके साथसाथ स्मृति पुराण इतिहास (रामायण महाभारत) एवं भिन्नभिन्न सम्प्रदायके आचार्योंके अनुभववचन आदि समस्त वेदानुकूल सत्शास्त्रोंको ग्रहण कर लेना चाहिये।ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् यहाँ ब्रह्म पद वेदका वाचक है। वेद सच्चिदानन्दघन परमात्मासे ही प्रकट हुए हैं (गीता 17।23)। इस प्रकार परमात्मा सबके मूल हुए।परमात्मासे वेद प्रकट होते हैं। वेद कर्तव्यपालनकी विधि बताते हैं। मनुष्य उस कर्तव्यका विधिपूर्वक पालन करते हैं। कर्तव्यकर्मोंके पालनसे यज्ञ होता है और यज्ञसे वर्षा होती है। वर्षासे अन्न होता है अन्नसे प्राणी होते हैं और उन्हीं प्राणियोंमेंसे मनुष्य कर्तव्यकर्मोंके पालनसे यज्ञ करते हैं (टिप्पणी प0 138)। इस तरह यह सृष्टिचक्र चल रहा है।तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् यहाँ ब्रह्म पद अक्षर(सगुणनिराकार परमात्मा) का वाचक है। अतः सर्वगत (सर्वव्यापी) परमात्मा हैं वेद नहीं।सर्वव्यापी होनेपर भी परमात्मा विशेषरूपसे यज्ञ (कर्तव्यकर्म) में सदा विद्यमान रहते हैं। तात्पर्य यह है कि जहाँ निष्कामभावसे कर्तव्यकर्मका पालन किया जाता है वहाँ परमात्मा रहते हैं। अतः परमात्मप्राप्ति चाहनेवाले मनुष्य अपने कर्तव्यकर्मोंके द्वारा उन्हें सुगमतापूर्वक प्राप्त कर सकते हैं स्वकर्मणा तमभ्यच्र्य सिद्धिं विन्दति मानवः (गीता 18। 46)। शङ्का परमात्मा जब सर्वव्यापी हैं तब उन्हें केवल यज्ञमें नित्य प्रतिष्ठित क्यों कहा गया है क्या वे दूसरी जगह नित्य प्रतिष्ठित नहीं हैं समाधान परमात्मा तो सभी जगह समानरूपसे नित्य विद्यमान हैं। वे अनित्य और एकदेशीय नहीं हैं। इसीलिये उन्हें यहाँ सर्वगत कहा गया है। यज्ञ (कर्तव्यकर्म) में नित्य प्रतिष्ठित कहनेका तात्पर्य यह है कि यज्ञ उनका उपलब्धिस्थान है। जमीनमें सर्वत्र जल रहनेपर भी वह कुएँ आदिसे ही उपलब्ध होता है सब जगहसे नहीं। पाइपमें सर्वत्र जल रहनेपर भी जल वहींसे प्राप्त होता है जहाँ टोंटी या छिद्र होता है। ऐसे ही सर्वगत होनेपर भी परमात्मा यज्ञसे ही प्राप्त होते हैं।अपने लिये कर्म करनेसे तथा जडता (शरीरादि) के साथ अपना सम्बन्ध माननेसे सर्वव्यापी परमात्माकी प्राप्तिमें बाधा (आड़) आ जाती है। निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरोंके हितके लिये अपने कर्तव्यका पालनकरनेसे यह बाधा हट जाती है और नित्यप्राप्त परमात्माका स्वतः अनुभव हो जाता है। यही कारण है कि भगवान् अर्जुनको जो कि अपने कर्तव्यसे हटना चाहते थे अनेक युक्तियोंसे कर्तव्यका पालन करनेपर विशेष जोर दे रहे हैं। सम्बन्ध सृष्टिचक्रके अनुसार चलने अर्थात् अपने कर्तव्यका पालन करनेकी जिम्मेवारी मनुष्यपर ही है। अतः जो मनुष्य अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता उसकी ताड़ना भगवान् आगेके श्लोकमें करते हैं।
।।3.15।। विश्व में चल रहे सामूहिक यज्ञ कर्म के चक्र का वेदों की परिचित भाषा में यहाँ वर्णन किया गया है। प्राणियों की उत्पत्ति एवं पोषण का कारण अन्न है। पृथ्वी में स्थित खनिज सम्पत्ति पोषक अन्न का रूप तभी लेती है जब जल वृष्टि होती है। वर्षा के बिना न तो वनस्पति जीवन की वृद्धि होगी और न पशुओं का जीवन ही सम्भव होगा। यज्ञ के फलस्वरूप वर्षा होती है तथा यज्ञ का सम्पादन मनुष्य के कर्मों द्वारा होता है।सूक्ष्म विचार के अभाव में यह श्लोक विचित्र ही प्रतीत होता है। आधुनिक शिक्षित व्यक्ति अन्न (पदार्थ) से प्राणियों की तथा वर्षा से पोषक अन्न की उत्पत्ति होने को तो समझ पाता है परन्तु उसे यह समझने में कठिनाई होती है कि यज्ञ से वर्षा की उत्पत्ति किस प्रकार होती है।भगवान् श्रीकृष्ण के शब्दों में हम यह मानने को बाध्य नहीं हैं कि वे अर्जुन को कर्मकाण्ड के अनुष्ठान का उपदेश दे रहे हैं। गीता में अनेक स्थानों पर वेद काल में प्रचलित और परिचित शब्दों को नये अर्थों में प्रयुक्त किया गया है। यहाँ भी पर्जन्य से केवल जलवृष्टि ही समझना उचित नहीं। पर्जन्य से तात्पर्य उस स्थिति से है जो पृथ्वी में स्थित तत्त्वों का भक्षण योग्य पोषक अन्न में रूपान्तर करने के लिए आवश्यक है। इसी प्रकार प्रत्येक कार्य क्षेत्र में उपभोग्य लाभ (अन्न) विद्यमान होता है जिसकी प्राप्ति तभी संभव है जब उसके अनुकूल परिस्थितियाँ निर्मित होती हैं। इस प्रकार की अनुकूल परिस्थिति (पर्जन्य) का निर्माण सब लोगों के निस्वार्थ सेवाभाव से किये गये कर्मोंे (यज्ञ) से ही संभव होकर समाज के उपभोग्य वस्तुओं (अन्न) की उत्पत्ति होती है।उदाहरणार्थ नदी के व्यर्थ ही बहते हुये पानी को रोक कर बांध के निर्माण से उसका उपयोग नदी के तट की उपजाऊ किन्तु अब तक नहीं जोती गई भूमि की सिंचाई के लिये किया जा सकता है। त्याग और परिश्रम से ही बांध का निर्माण संभव होगा। उसके पूर्ण होने पर नदी के दोनों किनारों की भूमि को जोतने के लिये अनुकूल परिस्थिति बन जायेगी। सींची हुई भूमि से अन्न प्राप्त करने के लिये निरन्तर परिश्रम की आवश्यकता है जैस भूमि जोतना बीजारोपण सिंचन और रक्षण आदि।यहाँ हमें बताया गया है कि इस कर्म चक्र का सम्बन्ध परम सत्य (ब्रह्म) से किस प्रकार है और कैसे वह ब्रह्म यज्ञ में प्रतिष्ठित है। सम्यक् कर्म का सिद्धांत (यज्ञ) तथा कर्म की क्षमता भी सृष्टिकर्त्ता ब्रह्माजी से ही सबको प्राप्त हुई और स्वयं ब्रह्माजी अक्षरअविनाशी परम तत्त्व ब्रह्म से ही प्रगट हुये हैं। नवजात शिशु में कर्म की क्षमता है और वह क्षमता सृष्टिकर्त्ता का दिया हुआ उपहार है इसलिये सर्वगत ब्रह्म सदैव व्यक्ति के अथवा समूह के उन कर्मों में (यज्ञ) प्रतिष्ठित है जो विश्व के कल्याण के लिये सेवाभाव से किये गये हों।इस कर्मचक्र का पालन करने वाला पुरुष प्रकृति के सामंजस्य में अपना योगदान देता है। इसका उल्लंघन करने वाले के विषय में भगवान् कहते हैं
3.15 Know that actin has the veda as its origin; the Vedas has the Immutable as its source. Hence, the all-pervading Veda is for ever based on sacrifice.
3.15 Know thou that action comes from Brahma and Brahma comes from the Imperishable. Therefore, the all-pervading (Brahma) ever rests in sacrifice.
3.15. Action arises from the Brahman, you should know this; the Brhaman arises from what does not stream forth; therefore the all-pervading Brahman is permanently based on the sacrifice.
3.15 कर्म action? ब्रह्मोद्भवम् arisen from Brahma? विद्धि know? ब्रह्म Brahma? अक्षरसमुद्भवम् arisen from the Imperishable? तस्मात् therefore? सर्वगतम् allpervading? ब्रह्म Brahma? नित्यम् ever? यज्ञे in sacrifice? प्रतिष्ठितम् (is) established.Commentary Brahma may mean Veda. Just as the breath comes out of a man? so also the Veda is the breath of the Imperishable or the Omniscient. The Veda ever rests in the sacrifice? i.e.? it deals chiefly with sacrifices and the ways of their performance. (Cf.IV.24 to 32).Karma Action? Brahmodbhavam arisen from the injunctions of the Vedas.
3.15 Again, [a different reading in place of this is: Tat ca vividham karma kuto jatamityaha, From where did those various kinds of action originate? In reply the Lord says৷৷. Still another reading is: Tat ca karma brahmodbhavam iti aha, And the Lord says: That action has the Vedas as its origin.-vide A.A., 1936, p. 116). Astekars reading is: Tat ca evam vidham karma kuto jatamityaha, And from where has this kind of aciton originated? The answers this.-Tr.] viddhi, know; that karma, action; is brahmodbhavam, it has Brahma, the Veda, as its udbhavam, origin. [Here Ast. adds revealer-Tr.] Further, Brahma, called the Veda, is aksara-samudbhavam, it has aksara, the Immutable, Brahman, the supreme Self, as its source. This is the meaning. Since the Veda came out, like the breath of a man, from the supreme Self Itself, called the Immutable, therefore the Veda, being the revealer of everything, is sarva-gatam, all pervading. Even though all-pervading, the Veda is nityam, for ever; pratisthitam, based; yajne, on sacrifice, because the injunctions about sacrifices predominate in it.
3.14-15 Annat etc. Karma etc. The things, that are born and are of diversified nature, arise from the food viz , the one which is of the nature of being undifferentiated objct of enjoyment, and which is somehow called by different synonyms like maya, vidya, kala etc. The said food also [arises] from the rain-cloud i.e., the Self, which is of the nature of uninterrupted Consciousness. For, the state of being an object of enjoyment gains its existence depending on the enjoyer. That rain-cloud too viz., the enjoyer, [arises] from the sacrifice (yajna) i.e., the act of enjoying. For, the state of being an enjoyer depends on the act of enjoying. And the act of enjoying [arises] from action, i.e., from the strength of freedom of action-energy (freedom in assuming any and every from). The said freedom also, though it is uninterrupted, [arises] due to the good touch of the Brahman Which is full of freedom and of forms that are conditioned and are many, (or which is full of freedom and of many forms and is not conditioned); and which is the Supreme Soul, Brahman assuming the beings (tattvas), viz., the mighty Isvara (or Mahesvara) [and the Sadasiva] skipping high on It (Brahman). That Brahman, having the rising Lord-ship (or might) that is pure and unvieled, arises from what does not stream forth viz., the pure Supreme Consciousness in which the entire waves of might and Lordship have totally calmed down. Thus, the sacrifice well established [as an exil] in this manner, causing a six spoked wheel to rotate , spins the [two-fold] yarns - the yarn of emancipation by employing that part fitted with three spokes, and the yarn of [birth-and-death] activity by looming with the part of the [other] three spokes. Thus, the Brahman Which is charming with rolling waves of wisdom and ignorance, is established on nothing but the sacrifice. But certain other commentators [interpret the passage as ] : The food is indeed the cause of beings through its graded chages into semen verile and blood; the food arises from the rain-cloud through the rains; that rains too arises from the [Vedic] sacrifice according to the principle : The oblation offered into the [sacrificial] fire, pro- perly reaches the sun etc. (Manu. III, 76). The sacrifice [arises] from the action; the action follows the knowledge, and the knowledge is from the Imperishable. Still others [explain] differently : The food that is being enjoyed is the pentad of sense-objects; depending on it, the bhutas (elements) i.e., the sense-organs, act; the objects are of the nature of the sparkles of the Self. Therefore, it is only the Self that is being nourished by enjoying sense-objects. Hence the all-pervading Brahman is established in action. For It is identical with that.
3.15 Here ther term, Brahman connotes the physical body consisting of modifications of the Prakrti; for the Prakrti is denoted here by the term Brahman, as in the scriptural text: From Him arises, this Brahman and this Brahman becomes name, form and food (Mun. U., 1.1.9). Here also it will be said by Sri Krsna: This great Brahman is my womb (14.3). Therefore, the words that Activity springs from Brahman teaches that activity is produced by the physical body which is of the nature of the modification of Prakrti. The Brahman arises from the imperishable self. Here the term, imperishable, indicates the individual self. The physical body, which is inhabited by the self who is satisfied by food and drink, is fit for action; hence the physical body which constitutes the instrument of activity is said to be from the imperishable. Therefore the all-pervading Brahman means here the bodies of all persons of diverse kinds which are the products of Prakrti which comprises all material entities, and is hence all-pervading. They, the bodies, are established in sacrifice. The meanig is that the bodies have roots in sacrifice.
The cause of this action is the Veda (brahma). The actions related to the yajna arise from hearing the statements of the rules enunciated in the Vedas. The cause of the Vedas is brahman (aksaram), as the Vedas arise from the Lord. The sruti says: asya mahato bhutasya nihsvasitam etad rg-vedo yajur-vedah sama-vedo’ thangirasah The Rg, Yajur, Sama and Atharva Vedas are the breathing of the Supreme Lord. Brhad Aranyaka Upanisad 2.4.10 Therefore the all pervading (sarva gatam) Lord is present in the yajna. This means that by performance of the yajna one attains the Lord. Though, by cause and effect, from food to the Lord, many items have been mentioned, among them all, the yajna is mentioned by the scriptures as obligatory. This process is mentioned in the smrti as well. agnau prastahutih samyag adityam upatisthate adityaj jayate vrstir vrster annam tatah prajah The offering to the fire goes to the sun. From the sun arise rain, food and bodies of the living entities. Manu Smrti 3.76
So it is explained very clearly that actions originate from the prescribed instructions of the Vedic injunctions and these actions put forth to accomplish these actions are called yagna or worship and appeasement. Brahman clearly refers to the Vedas here and the Vedas come from the Supreme Brahman, the imperishable source of Brahman, the Supreme Lord Krishna. The Brihad II.IV.X states that the Rig Veda, Yajur Veda, Sama Veda etc. are the infinite breath of the Supreme. So comprehending this, the knowledge found within the Vedas and the performance of the injunctions and instructions is certainly for humanities highest good. As the Supreme is attained by yagna it is known to rest in yagna. Therefore it should be understood that the imperishable Supreme Brahman although all-pervading, eternally, always resides in yagna. Also as action is the basis of the worlds revolving therefore Brahman known through the Vedas although all pervading, by the use of mantras chanted by brahmins and Vaisnavas with explanations of Vedic scriptures as well as historical examples; it can be clearly perceived that yagna is connected to all events of the past that originated and reached maturity and fulfilment by worship or appeasement as well as all existing things in the present that flourish and prosper whether for short or long duration. All these things were successful only due to yagna or worship and appeasement. So the idea here is that the injunctions of the Vedas are mandatory for the benefit of all living entities and that yagna should always be performed everyday of ones life.
There is no commentary for this verse.
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It should be known that actions have its origins in the Brahman meaning the Vedas. Lord Krishna by stating the Brahman wants to emphasise the all-pervading substratum of all existence that is revealed by the Vedas and transforming from the mantras of the Vedas, the actions prescribed by the Vedas, the forces of nature, sun and clouds and rain, food and living beings. Although nature is seen as a force of action actually it is supported fully by the underlying energy of the Supreme Brahman. Actions though appearing to have a force of their own are only manifested through the instrument of matter in humans it is the physcial body. The Vedas as has been described earlier emanated from the imperishable Supreme Brahman, Lord Krishna. The words sarva-gatam means all-pervading or indestructible. This is indicative of the Supreme Brahman as well as the soul within every living entity. The soul is known to be indestructible and all pervading. Through the auspices of the soul the physical body through the manifestations of nature partakes of food and gains strength becoming fit for performing actions authorised by the Vedas. The word udbhavan meaning originates from is used to illustrate that this fitness comes from the source from which one manifests from. Even nature is only able to operate from the substratum through the utilisation of sun, rain, wind, fire etc. and by no other means. Therefore the all pervading and indestructible atma or soul utilises a physical body which is its substratum in the same way as the material nature to perform actions and that without a physical body performing the activities prescribed in the Vedas, then yagna or worship is not possible.
Karma brahmodbhavam viddhi brahmaakshara samudbhavam; Tasmaat sarvagatam brahma nityam yajne pratishthitam.
karma—duties; brahma—in the Vedas; udbhavam—manifested; viddhi—you should know; brahma—The Vedas; akṣhara—from the Imperishable (God); samudbhavam—directly manifested; tasmāt—therefore; sarva-gatam—all-pervading; brahma—The Lord; nityam—eternally; yajñe—in sacrifice; pratiṣhṭhitam—established