यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।3.17।।
।।3.17।। परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमने वाला आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं रहता।।
।।3.17।। कर्म के चक्र का पालन अधिकतर साधकों के लिए करणीय है क्योंकि यज्ञ भावना से कर्म के आचरण द्वारा उनका व्यक्तित्व संगठित होता है और उनमें जीवन के श्रेष्ठ कार्य ध्यान की योग्यता आती है। निस्वार्थ कर्म के द्वारा प्राप्त अन्तकरण की शुद्धि एवं एकाग्रता का उपयोग जब निदिध्यासन में किया जाता है तब साधक अहंकार के परे अपने शुद्ध आत्मस्वरूप की अनुभूति प्राप्त करता है। पूर्णत्व प्राप्त ऐसे सिद्ध पुरुष के लिये कर्म की चित्तशुद्धि के साधन के रूप में कोई आवश्यता नहीं रहती वरन् कर्म तो उसके ईश्वर साक्षात्कार की अभिव्यक्ति मात्र होते हैं।यह एक सुविदित तथ्य है कि तृप्ति एवं सन्तोष के लिये ही हम कर्म में प्रवृत्त रहते हैं। तृप्ति और सन्तोष मानो जीवनरथ के दो चक्र हैं। इन दोनों की प्राप्ति के लिये ही हम धन का अर्जन रक्षण परिग्रह और व्यय करने में व्यस्त रहते हैं। परन्तु आत्मानुभवी पुरुष अपने अनन्त आनन्द स्वरूप में उस तृप्ति और सन्तोष का अनुभव करता है कि उसे फिर बाह्य वस्तुओं की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।जहाँ तृप्ति और सन्तोष है वहाँ सुख प्राप्ति की इच्छाओं की उत्पत्ति कहाँ इच्छाओं के अभाव में कर्म का अस्तित्व कहाँ इस प्रकार आत्म अज्ञान के कार्य इच्छा विक्षेप और कर्म का उसमें सर्वथा अभाव होता है। स्वाभाविक है ऐसे पुरुष के लिये कोई अनिवार्य कर्तव्य नहीं रह जाता। सभी कर्मों का प्रयोजन उसमें पूर्ण हो जाता है। अत जगत् के सामान्य नियमों में उसे बांधा नहीं जा सकता। वह ईश्वरीय पुरुष बनकर पृथ्वी पर विचरण करता है।और