यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।3.23।।
।।3.23 3.24।।हे पार्थ अगर मैं किसी समय सावधान होकर कर्तव्यकर्म न करूँ (तो बड़ी हानि हो जाय क्योंकि) मनुष्य सब प्रकारसे मेरे ही मार्गका अनुसरण करते हैं। यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्टभ्रष्ट हो जायँ और मैं संकरताको करनेवाला तथा इस समस्त प्रजाको नष्ट करनेवाला बनूँ।
।।3.23।। यदि मैं सावधान हुआ (अतन्द्रित) कदाचित कर्म में न लगा रहूँ तो हे पार्थ सब प्रकार से मनुष्य मेरे मार्ग (र्वत्म) का अनुसरण करेंगे।।
3.23।। व्याख्या बाईसवें श्लोकमें भगवान्ने अन्वयरीतिसे कर्तव्यपालनकी आवश्यकताका प्रतिपादन किया और इन श्लोकोंमें भगवान् व्यतिरेकरीतिसे कर्तव्यपालन न करनेसे होनेवाली हानिका प्रतिपादन करते हैं।यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः पूर्वश्लोकमें आये वर्त एव च कर्मणि पदोंकी पुष्टिके लिये यहाँ हि पद आया है।भगवान् कहते हैं कि मैं सावधानीपूर्वक कर्म न करूँ ऐसा हो ही नहीं सकता परन्तु यदि ऐसा मान लें कि मैं कर्म न करूँ इस अर्थमें भगवान्ने यहाँ यदि जातु पदोंका प्रयोग किया है।अतन्द्रितः पदका तात्पर्य यह है कि कर्तव्यकर्म करनेमें आलस्य और प्रमाद नहीं करना चाहिये अपितु उन्हें बहुत सावधानी और तत्परतासे करना चाहिये। सावधानीपूर्वक कर्तव्यकर्म न करनेसे मनुष्य आलस्य और प्रमादके वशमें होकर अपना अमूल्य जीवन नष्ट कर देता है।कर्मोंमें शिथिलता (आलस्यप्रमाद) न लाकर उन्हें सावधानी एवं तत्परतापूर्वक करनेसे ही कर्मोंसे सम्बन्धविच्छेद होता है। जैसे वृक्षकी कड़ी टहनी जल्दी टूट जाती है पर जो अधूरी टूटनेके कारण लटक रही है ऐसी शिथिल (ढीली) टहनी जल्दी नहीं टूटती ऐसे ही सावधानी एवं तत्परतापूर्वक कर्म करनेसे कर्मोंसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है पर आलस्यप्रमादपूर्वक (शिथिलतापूर्वक) कर्म करनेसे कर्मोंसे सम्बन्धविच्छेद नहीं होता। इसीलिये भगवान्ने उन्नीसवें श्लोकमें समाचर पदका तथा इस श्लोकमेंअतन्द्रितः पदका प्रयोग किया है।अगर किसी कर्मकी बारबार याद आती है तो यही समझना चाहिये कि कर्म करनेमें कोई त्रुटि (कामना आसक्ति अपूर्णता आलस्य प्रमाद उपेक्षा आदि) हुई है जिसके कारण उस कर्मसे सम्बन्धविच्छेद नहीं हुआ है। कर्मसे सम्बन्धविच्छेद न होनेके कारण ही किये गये कर्मकी याद आती है।मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः इन पदोंसे भगवान् मानो यह कहते हैं कि मेरे मार्गका अनुसरण करनेवाले ही वास्तवमें मनुष्य कहलानेयोग्य हैं। जो मुझे आदर्श न मानकर आलस्यप्रमादवश कर्तव्यकर्म नहीं करते और अधिकार चाहते हैं वे आकृतिसे मनुष्य होनेपर भी वास्तवमें मनुष्य कहलानेयोग्य नहीं हैं।इसी अध्यायके इक्कीसवें श्लोकमें भगवान्ने कहा था कि श्रेष्ठ पुरुषके आचरण और प्रमाणके अनुसार सब मनुष्य उनका अनुसरण करते हैं और इस श्लोकमें भगवान् कहते हैं कि मनुष्य सब प्रकारसे मेरे मार्गका अनुसरण करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि श्रेष्ठ पुरुष तो एक ही लोक(मनुष्यलोक) में आदर्श पुरुष हैं पर मैं तीनों ही लोकोंमें आदर्श पुरुष हूँ।मनुष्यको संसारमें कैसे रहना चाहिये यह बतानेके लिये भगवान् मनुष्यलोकमें अवतरित होते हैं। संसारमें अपने लिये रहना ही नहीं है यही संसारमें रहनेकी विद्या है। संसार वस्तुतः एक विद्यालय है जहाँ हमें कामना ममता स्वार्थ आदिके त्यागपूर्वक दूसरोंके हितके लिये कर्म करना सीखना है और उसके अनुसार कर्म करके अपना उद्धार करना है। संसारके सभी सम्बन्धी एकदूसरेकी सेवा (हित) करनेके लिये ही हैं।इसीलिये पिता पुत्र पति पत्नी भाई बहन आदि सबको चाहिये कि वे एकदूसरेके अधिकारकी रक्षा करते हुए अपनेअपने कर्तव्य पालन करें और एकदूसरेके कल्याणकी चेष्टा करें।उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् भगवान्ने तेईसवें श्लोकमें यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः पदोंसे कर्मोंमें सावधानी न रखनेसे होनेवाली हानिकी बात कही और अब इस (चौबीसवें) श्लोकमें उपर्युक्त पदोंसे कर्म न करनेसे होनेवाली हानिकी बात कहते हैं।यद्यपि ऐसा हो ही नहीं सकता कि मैं कर्तव्यकर्म न करूँ तथापि यदि ऐसा मान लिया जाय इस अर्थमें भगवान्ने यहाँ चेत् पदका प्रयोग किया है।इन पदोंका तात्पर्य है कि मनुष्यकी कर्म न करनेमें भी आसक्ति नहीं होनी चाहिये मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि (गीता 2। 47)। इसीलिये भगवान् अपना उदाहरण देते हुए कहते हैं कि मेरे लिये कुछ भी प्राप्तव्य न होनेपर भी मैं कर्म करता हूँ। यदि मैं (जिस वर्ण आश्रम आदिमें मैंने अवतार लिया है उसके अनुसार) अपने कर्तव्यका पालन न करूँ तो सम्पूर्ण मनुष्य नष्टभ्रष्ट हो जायँ अर्थात् उनका पतन हो जाय। कारण कि अपने कर्तव्यका त्याग करनेसे मनुष्योंमें तामसभाव आ जाता है जिससे उनकी अधोगति होती है अधो गच्छन्ति तामसाः (गीता 14। 18)।भगवान् त्रिलोकीमें आदर्श पुरुष हैं और सम्पूर्ण प्राणी उन्हींके मार्गका अनुसरण करते हैं। इसलिये यदि भगवान् कर्तव्यका पालन नहीं करेंगे तो त्रिलोकीमें भी कोई अपने कर्तव्यका पालन नहीं करेगा। अपने कर्तव्यका पालन न करनेसे उनका अपनेआप पतन हो जायगा।संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः यदि मैं कर्तव्यकर्म न करूँ तो सब लोक नष्टभ्रष्ट हो जायँगे और उनके नष्ट होनेका कारण मैं ही बनूँगा जबकि ऐसा सम्भव नहीं है।परस्परविरुद्ध दो धर्म (भाव) एकमें मिल जायँ तो वह संकर कहलाता है।पहले अध्यायके चालीसवें और इकतालीसवें श्लोकमें अर्जुनने कहा था कि यदि मैं युद्ध करूँगा तो कुलका नाश हो जायगा। कुलके नाशसे सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाता है धर्मके नष्ट होनेपर सम्पूर्ण कुलमें पाप फैल जाता है पापके अधिक बढ़नेपर कुलकी स्त्रियाँ दूषित हो जाती है और स्त्रियोंके दूषित होनेपर वर्णसंकर उत्पन्न होता है। इस प्रकार अर्जुनका भाव यह था कि युद्ध करनेसे वर्णसंकरता उत्पन्न होगी (टिप्पणी प0 157)। परन्तु यहाँ भगवान् उससे विपरीत बात कहते हैं कि युद्धरूप कर्तव्यकर्म न करनेसे वर्णसंकरता उत्पन्न होगी। इस विषयमें भगवान् अपना उदाहरण देते हैं कि यदि मैं कर्तव्यकर्म न करूँ तो कर्म धर्म उपासना वर्ण आश्रम जाति आदि सबमें स्वतः संकरता आ जायगी। तात्पर्य यह है कि कर्तव्यकर्म न करनेसे ही संकरता उत्पन्न होती है। इसलिये यहाँ भगवान् अर्जुनसे मानो यह कहते हैं कि तू युद्धरूप कर्तव्यकर्म न करनेसे ही वर्णसंकर उत्पन्न करनेवाला बनेगा न कि युद्ध करनेसे (जैसा कि तू मानता है)।विशेष बातअर्जुनके मूल प्रश्न (मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं) का उत्तर भगवान् बाईसवें तेईसवें और चौबीसवें तीन श्लोकोंमें अपने उदाहरणसे देते हैं कि मैं तुम्हें ही कर्ममें लगाता हूँ ऐसी बात नहीं है प्रत्युत मैं स्वयं भी कर्ममें लगा रहता हूँ जबकि वास्तवमें मेरे लिये त्रिलोकीमें कुछ भी कर्तव्य एवं प्राप्तव्य नहीं है।भगवान् अर्जुनको इस बातका संकेत करते हैं कि अभी इस अवतारमें तुमने भी स्वीकार किया और मैंने भी स्वीकार किया कि तू रथी बने और मैं सारथि बनूँ तो देख क्षत्रिय होते हुए भी आज मैं तेरा सारथि बना हुआ हूँ और इस प्रकार स्वीकार किये हुए अपने कर्तव्यका सावधानी और तत्परतापूर्वक पालन कर रहा हूँ। मेरे इस कर्तव्यपालनका भी त्रिलोकीपर प्रभाव पड़ेगा क्योंकि मैं त्रिलोकीमें आदर्श पुरुष हूँ। समस्त प्राणी मेरे ही मार्गका अनुसरण करते हैं। इस प्रकार तुम्हें भी अपने कर्तव्यकर्मकी उपेक्षा न करके मेरी तरह उसका सावधानी एवं तत्परतापूर्वक पालन करना चाहिये। सम्बन्ध पीछेके तीन श्लोकोंमें भगवान्ने जैसे अपने लिये कर्म करनेमें सावधानी रखनेका वर्णन किया ऐसे ही आगेके दो श्लोकोंमें ज्ञानी महापुरुषके लिये कर्म करनेमें सावधानी रखनेकी प्रेरणा करते हैं।
।।3.23।। भगवान् को कर्म क्यों करने चाहिये उनके कर्म न करने से समाज को क्या हानि होगी यह वस्तुस्थिति है कि सामान्य जन सदैव अपने नेता का अनुकरण उसकी वेषभूषा नैतिक मूल्य कर्म और सभी क्षेत्रों में उसके व्यवहार के अनुसार करते हैं। नेताओं का जीवन उनके लिये आदर्श मापदण्ड होता है। अत भगवान् के कर्म न करने पर अन्य लोग भी निष्क्रिय होकर अनुत्पादक स्थिति में पड़े रहेंगे। जबकि प्रकृति में निरन्तर क्रियाशीलता दिखाई देती है। सम्पूर्ण विश्व की स्थिति कर्म पर ही आश्रित है।गीता में भगवान् मैं शब्द का प्रयोग देवकी पुत्र कृष्ण के अर्थ में नहीं करते वरन् शुद्ध आत्मस्वरूप की दृष्टि से आत्मानुभवी पुरुष के अर्थ में करते हैं। आत्मज्ञानी पुरुष अपने उस शुद्ध चैतन्यस्वरूप को जानता है जिस पर जड़ अनात्म पदार्थों का खेल हो रहा होता है जैसे जाग्रत पुरुष के मन पर आश्रित स्वप्न। यदि इस परम तत्त्व का नित्य आधार या अधिष्ठान न हो तो वर्तमान में अनुभूत जगत् का अस्तित्व ही बना नहीं रह सकता। यद्यपि लहरों की उत्पत्ति से समुद्र उत्पन्न नहीं होता तथापि समुद्र के बिना लहरों का नृत्य भी सम्भव नहीं है। इसी प्रकार भगवान् क्रियाशील रहकर जगत् में न रहें तो समाज का सांस्कृतिक जीवन ही गतिहीन होकर रह जाय्ोगा।यदि मैं कर्म न करूँ तो क्या हानि होगी भगवान् आगे कहते हैं।