उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः।।3.24।।
।।3.24।। यदि मैं कर्म न करूँ तो ये समस्त लोक नष्ट हो जायेंगे और मैं वर्णसंकर का कर्ता तथा इस प्रजा का हनन करने वाला होऊँगा।।
।।3.24।। ईश्वर के रूप में यदि मैं शासन न करूँ तो विश्व में उन्नति नहीं होगी और नियमबद्ध सृष्टि भी नष्ट हो जायेगी। विश्व कोई क्रमहीन रचना नहीं वरन् नियमबद्ध सृष्टि है। प्रकृति के नियम पालन में कहीं भी मर्यादा का उल्लंघन होता नहीं दिखाई देता।प्राकृतिक घटनायेंे ग्रहों की गति ऋतुओं का लयबद्ध नृत्य और सृष्टि का संगीत ये सब किसी महान् नियम के अनुसार चलते रहते हैं इसी को कहतेैं हैं प्रकृति और उसके नियामक ईश्वर की प्रबल शक्ति। इस ईश्वररूप में भगवान् के निष्क्रिय हो जाने पर ये लोक नष्ट हो जायेंगे। श्रीकृष्ण का यह कथन तर्क के विपरीत नहीं है जो केवल अन्धविश्वासी लोगों को ही स्वीकार होगा। विज्ञान की दृष्टि से विचार करने वाले लोग भी इसको अस्वीकार नहीं कर सकते।भगवान् केवल बाह्य जगत् के पदार्थों का संचालन करने वाले नियमों के ही नियामक नहीं बल्कि भावना एवं विचार के आन्तरिक जगत् के भी नियन्ता हैं। हिन्दू ऋषिमुनियों ने मानव समाज का चार वर्णों में जो वर्गीकरण किया उसका आधार मनुष्य का मानसिक स्वभाव एवं बौद्धिक क्षमता थी। यदि आन्तरिक जगत् में कोई नियम सुचारु रूप से काम न करें तो मनुष्य के व्यवहार और चरित्र में विचित्रता और अस्थिरता उत्पन्न होगी जिससे भ्रांति की वृद्धि होगी। वर्तमान में प्रचलित वर्णसंकर का अर्थ शास्त्र के विपरीत है जिसके कारण आज का शिक्षित व्यक्ति गीता की आलोचना करते हुये कह सकता है कि इसमें उच्च वर्ण की वर्चस्वता को ही भगवान की स्वीकृत है। वर्ण संकर के विषय में प्रथम अध्याय के 41वें श्लोक में विवेचन किया जा चुका है।आत्मज्ञान प्राप्त कर लेने पर स्वयं को कर्म से कोई प्रयोजन न होने पर भी ज्ञानी पुरुष को कर्म करना चाहिये। कैसे