प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।3.27।।
।।3.27।।सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृतिके गुणोंद्वारा किये जाते हैं परन्तु अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला अज्ञानी मनुष्य मैं कर्ता हूँ ऐसा मानता है।
।।3.27।। सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं अहंकार से मोहित हुआ पुरुष मैं कर्ता हूँ ऐसा मान लेता है।।
।।3.27।। व्याख्या प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः जिस समष्टि शक्तिसे शरीर वृक्ष आदि पैदा होते और बढ़तेघटते हैं गङ्गा आदि नदियाँ प्रवाहित होती हैं मकान आदि पदार्थोंमें परिवर्तन होताहै उसी समष्टि शक्तिसे मनुष्यकी देखना सुनना खानापीना आदि सब क्रियाएँ होती हैं। परन्तु मनुष्य अहंकारसे मोहित होकर अज्ञानवश एक ही समष्टि शक्तिसे होनेवाली क्रियाओंके दो विभाग कर लेता है एक तो स्वतः होनेवाली क्रियाएँ जैसे शरीरका बनना भोजनका पचना इत्यादि और दूसरी ज्ञानपूर्वक होनेवाली क्रियाएँ जैसे देखना बोलना भोजन करना इत्यादि। ज्ञानपूर्वक होनेवाली क्रियाओंको मनुष्य अज्ञानवश अपनेद्वारा की जानेवाली मान लेता है।प्रकृतिसे उत्पन्न गुणों(सत्त्व रज और तम) का कार्य होनेसे बुद्धि अहंकार मन पञ्चमहाभूत दस इन्द्रियाँ और इन्द्रियोंके शब्दादि पाँच विषय ये भी प्रकृतिके गुण कहे जाते हैं। उपर्युक्त पदोंमें भगवान् स्पष्ट करते हैं कि सम्पूर्ण क्रियाएँ (चाहे समष्टिकी हों या व्यष्टिकी) प्रकृतिके गुणों द्वारा ही की जाती हैं स्वरूपके द्वारा नहीं।अहंकारविमूढात्मा अहंकार अन्तःकरणकी एक वृत्ति है। स्वयं (स्वरूप) उस वृत्तिका ज्ञाता है। परन्तु भूलसे स्वयं को उस वृत्तिसे मिलाने अर्थात् उस वृत्तिको ही अपना स्वरूप मान लेनेसे यह मनुष्य विमूढात्मा कहा जाता है।जैसे शरीर इदम् (यह) है ऐसे ही अहंकार भी इदम् (यह) है। इदम् (यह) कभी अहम् (मैं) नहीं हो सकता यह सिद्धान्त है। जब मनुष्य भूलसे इदम् को अहम् अर्थात् यह को मैं मान लेता है तब वह अहंकारविमूढात्मा कहलाता है। यह माना हुआ अहंकार उद्योग करनेसे नहीं मिटता क्योंकि उद्योग करनेमें भी अहंकार रहता है। माना हुआ अहंकार मिटता है अस्वीकृतिसे अर्थात् न मानने से।विशेष बातअहम् दो प्रकारका होता है (1) वास्तविक (आधाररूप) अहम् (टिप्पणी प0 161) जैसे मैं हूँ (अपनी सत्तामात्र)।(2) अवास्तविक (माना हुआ) अहम् जैसे मैं शरीर हूँ। वास्तविक अहम् स्वाभाविक एवं नित्य और अवास्तविक अहम् अस्वाभाविक एवं अनित्य होता है। अतः वास्तविक अहम् विस्मृत तो हो सकता है पर मिट नहीं सकता और अवास्तविक अहम् प्रतीत तो हो सकता है पर टिक नहीं सकता। मनुष्यसे भूल यह होती है कि वह वास्तविक अहम्(अपने स्वरूप) को विस्मृत करके अवास्तविक अहम्(मैं शरीर हूँ) को ही सत्य मान लेता है।कर्ताहमिति मन्यते यद्यपि सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृतिजन्य गुणोंके द्वारा ही किये जाते हैं तथापि अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला अज्ञानी मनुष्य कुछ कर्मोंका कर्ता अपनेको मान लेता है। कारण कि वह अहंकारको ही अपना स्वरूप मान बैठता है। अहंकारके कारण ही मनुष्य शरीर इन्द्रियाँ मन आदिमेंमैंपन कर लेता है और उन(शरीरादि) की क्रियाओंका कर्ता अपनेको मान लेता है। यह विपरीत मान्यतामनुष्यने स्वयं की है इसलिये इसको मिटा भी वही सकता है। इसको मिटानेका उपाय है इसे विवेकविचारपूर्वक न मानना क्योंकि मान्यतासे ही मान्यता कटती है।एक करना होता है और एक न करना। जैसे करना क्रिया है ऐसे ही न करना भी क्रिया है। सोना जागना बैठना चलना समाधिस्थ होना आदि सब क्रियाएँ हैं। क्रियामात्र प्रकृतिमें होती है। स्वयं(चेतन स्वरूप) में करना और न करना दोनों ही नहीं हैं क्योंकि वह इन दोनोंसे परे है। वह अक्रिय और सबका प्रकाशक है। यदि स्वयं में भी क्रिया होती तो वह क्रिया (शरीरादिमें परिवर्तनरूपक्रियाओं) का ज्ञाता कैसे होता करना और न करना वहाँ होता है जहाँ अहम् (मैं) रहता है। अहम् न रहनेपर क्रियाके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता। करना और न करना दोनों जिससे प्रकाशित होते हैं उस अक्रिय तत्त्व (अपने स्वरूप) में मनुष्यमात्रकी स्वाभाविक स्थिति है। परन्तु अहम् के कारण मनुष्य प्रकृतिमें होनेवाली क्रियाओंसे अपना सम्बन्ध मान लेता है। प्रकृति(जड) से माना हुआ सम्बन्ध ही अहम् कहलाता है।विशेष बातजिस प्रकार समुद्रका ही अंश होनेके कारण लहर और समुद्रमें जातीय एकता है अर्थात् जिस जातिकी लहर है उसी जातिका समुद्र है उसी प्रकार संसारका ही अंश होनेके कारण शरीरकी संसारसे जातीय एकता है। मनुष्य संसारको तो मैं नहीं मानता पर भूलसे शरीरको मैं मान लेता है।जिस प्रकार समुद्रके बिना लहरका अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है उसी प्रकार संसारके बिना शरीरका अपना कोई अस्तित्व नहीं है। परन्तु अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला मनुष्य जब शरीरको मैं (अपना स्वरूप) मान लेता है तब उसमें अनेक प्रकारकी कामनाएँ उत्पन्न होने लगती हैं जैसे मुझे स्त्री पुत्र धन आदि पदार्थ मिल जायँ लोग मुझे अच्छा समझें मेरा आदरसम्मान करें मेरे अनुकूल चलें इत्यादि। उसका इस ओर ध्यान ही नहीं जाता कि शरीरको अपना स्वरूप मानकर मैं पहलेसे ही बँधा बैठा हूँ अब कामनाएँ करके और बन्धन बढ़ा रहा हूँ अपनेको और विपत्तिमें डाल रहा हूँ।साधनकालमें मैं (स्वयं) प्रकृतिजन्य गुणोंसे सर्वथा अतीत हूँ ऐसा अनुभव न होनेपर भी जब साधक ऐसा मान लेता है तब उसे वैसा ही अनुभव हो जाता है। इस प्रकार जैसे वह गलत मान्यता करके बँधा था ऐसे ही सही मान्यता करके मुक्त हो जाता है क्योंकि मानी हुई बात न माननेसे मिट जाती है यह सिद्धान्त है। इसी बातको भगवान्ने पाँचवें अध्यायके आठवें श्लोकमें नैव किञ्चित् करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् पदोंमें मन्येत पदसे प्रकट किया है कि मैं कर्ता हूँ इस अवास्तविक मान्यताको मिटानेके लिये मैं कुछ भी नहीं करता ऐसी वास्तविक मान्यता करना होगी। मैं शरीर हूँ मैं कर्ता हूँ आदि असत्य मान्यताएँ भी इतनी दृढ़ हो जाती हैं कि उन्हें छोड़ना कठिन मालूम देता है फिर मैं शरीर नहीं हूँ मैं अकर्ता हूँ आदि सत्य मान्यताएँ दृढ़ कैसे नहीं होंगी और एक बार दृढ़ हो जानेपर फिर कैसे छूटेंगी
।।3.27।। भगवान् श्रीकृष्ण निरन्तर इस बात पर बल देते हैं कि अनासक्त अथवा निष्काम कर्म ही आदर्श है। यह कहना सरल परन्तु करना कठिन होता है। बुद्धि से यह बात समझ में आने पर भी उसे कार्यान्वित करना सरल काम नहीं। हम सबके साथ कठिनाई यह है कि हम जानते नहीं कि कर्म में आसक्ति को त्याग कर फिर कर्म भी किस प्रकार करते रहें। यहाँ भगवान् विवेक की वह पद्धति बता रहें हैं जिसके द्वारा इस अनासक्ति को हम प्राप्त कर सकते हैं।आत्म अज्ञान बुद्धि और मन के स्तर पर क्रमश इच्छा और विचार के रूप में व्यक्त होता है। ये विचार मन की सात्त्विक राजसिक एवं तामसिक प्रवृत्तियों के अनुरूप होकर शरीर के स्तर पर कर्म के रूप में व्यक्त होते हैं। इन तीनों गुणों में से जिस गुण का आधिक्य विचारों में होता है मनुष्य के कर्म भी ठीक उसी प्रकार के ही होते हैं। जैसे सत्त्व के कारण शुभ कर्म और रजोगुण तथा तमोगुण से क्रमश उत्पन्न होते हैं कामक्रोध से प्रेरित तथा क्रूर पाशविक कर्म। इस प्रकार हम देखते हैं कि इन वासनाओं का ही जगत् में व्यक्त होने वाला स्थूल रूप कर्म कहलाता है।जहाँ मन है वहाँ कर्म भी है। कर्म मन से ही उत्पन्न होते हैं और मन से ही शक्ति प्राप्तकर मन की सहायता से ही किये जाते हैं। परन्तु मन के साथ अविद्याजनित मिथ्या तादात्म्य के कारण मनुष्य स्वयं को ही कर्ता मानता है। कर्तृत्व की भावना होने पर फल की चिन्ता व्याकुलता एवं आसक्ति होना स्वाभाविक ही है।स्वप्न में अपने ही संस्कारों से एक जगत् उत्पन्न करके मनुष्य उसके साथ तादात्म्य स्थापित करता है उसे ही स्वप्नद्रष्टा कहते हैं। स्वप्न के दुख स्वप्नद्रष्टा के लिए होते हैं और किसी के लिए नहीं। स्वप्नजगत् के साथ तादात्म्य को त्यागने पर द्रष्टा के सब दुख समाप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार वासना इच्छा कर्म अथवा फल स्वयं किसी भी प्रकार की आसक्ति को जन्म नहीं देते किन्तु जब हमारा तादात्म्य मन के साथ हो जाता है तो कर्तृत्व और आसक्ति दोनों की ही उत्पत्ति होती है। जिस क्षण इस विवेक का उदय होता है आसक्ति का अस्तित्व वहाँ नहीं रह पाता। जीवन शान्तिमय हो जाता है।परन्तु ज्ञानी पुरुष आसक्त नहीं होते क्योंकि
3.27 While actions are being done in every way by the gunas (alities) of Nature, one who is deluded by egoism thinks thus: I am the doer.
3.27 All actions are wrought in all cases by the alities of Nature only. He whose mind is deluded by egoism thinks, I am the doer.
3.27. The actions are performed part by part, by the Strands of the Prakrti; [yet] the person, having his self (mind) deluded with egoity, imagines I am [alone] the doer.
3.27 प्रकृतेः of nature? क्रियमाणानि are performed? गुणैः by the alities? कर्माणि actions? सर्वशः in all cases? अहङ्कारविमूढात्मा one whose mind is deluded by egosim? कर्ता doer? अहम् I? इति thus? मन्यते thinks.Commentary Prakriti or Pradhana or Nature is that state in which the three Gunas? viz.? Sattva? Rajas and Tamas exist in a state of eilibrium. When this eilibrium is disturbed? creation begins body? senses? mind? etc.? are formed. The man who is deluded by egoism identifies the Self with the body? mind? the life force and the senses and ascribes to the Self all the attributes of the body and the senses. He? therefore? thinks through ignorance? I am the doer. In reality the Gunas of Nature perform all actions. (Cf.III.29V.9IX.9?10XIII.21?24?30?32XVIII.13?14).
3.27 Karmani kriyamanani, while actions, secular and scriptural, are being done; sarvasah, in ever way; gunaih, by the gunas, (i.e.) by the modifications in the form of body and organs; (born) prakrteh, of Nature-Nature, (otherwise known as) Pradhana [Pradhana, Maya, the Power of God.], being the state of eilibrium of the three alities of sattva, rajas and tamas; ahankara-vimudha-atma, one who is deluded by egoism; manyate, thinks; iti, thus; Aham karta, I am the doer. Ahankara is self-identification with the aggregate of body and organs. He whose atma, mind, is vimudham, diluded in diverse ways, by that (ahankara) is ahankara-vimudha-atma. He who imagines the characteristics of the body and organs to be his own, who has self-identification with the body and the organs, and who, through ignorance, believes the activities to be his own-, he thinks, I am the doer of those diverse activities.
3.27 Prakreh etc. Indeed the actions are performed by the Strands, Sattva etc., belonging to the Prakrti. But the fool unnecessarily binds himself by wrongly comprehending I am the doer.
3.27 It is the Gunas of Prakrti like Sattva, Rajas etc., that perform all the activities appropriate to them. But the man, whose nature is deluded by his Ahankara, thinks, I am the doer of all these actions. Ahankara is the mistaken conception of I applied to the workings of Prakrti which is not the I. The meaning is that it is because of this (Ahankara), that one who is ignorant of the real nature of the self, thinks, I am the doer with regard to the activities that are really being done by the Gunas of Prakrti.
The doubt may arise: how to distinguish the person in knowledge (vidvan) from the ignorant person, if the man in knowledge also performs actions. Two verses explain the difference. The ignorant person thinks that he is the performer of all the actions, which are actually performed completely by the material senses, which in turn are the products of the gunas (prakrteh gunaih).
An argument may be put forth that if the person situated in knowledge of the Vedas also has to perform actions then what is the difference between the ignorant and the wise? Lord Krishna apprehending such a doubt explains the difference between the two in this verse and the next. All actions are impelled by prakriti or material nature through the gunas being the three modes of sattva or goodness, rajas or passion and tamas or nescience and these are experienced by the mind when the senses make contact with sense objects. Thus the ignorant person believes that they are the doer of the actions because the false ego has accepted the physical body as the self and deluded by this egoism has superimposed the senses over the self in illusion.
The difference between the actions of a person of wisdom and those who are ignorant is explained now. The person of wisdom recognises that the whole material existence is operating under the auspices of the three gunas or the modes of material nature being goodness, passion and nescience. From gunas comes the word gunataih which indicates one who is influenced by their senses. This is the symptom of one who is in ignorance is that they are controlled by their senses. The sense are on a lower platform then prakriti or material nature and are influenced by the three gunas. The one who is in ignorance is dominated by the senses assuming that they are doer and cause of their actions and thus stricken with false ego they perform all actions with desires and attachment. That person of wisdom recognises that all actions are but the result of the interaction of the three gunas and material nature and remaining free of desires and attachment performs all actions as a matter of duty. This is what Lord Krishna conveys here.
There is no commentary for this verse.
A question may be raised that the spiritually wise may sometimes perform actions that are also performed by the ignorant then what is the difference? Lord Krishna clarifies this point with the word prakriteh meaning the material nature which is impelling actions through the medium of the three gunas being the modes of prakriti known as sattva or goodness, rajas or passion and tamas or nescience. One who is perplexed by false ego believes that they are the physical body and that the physical body is the doer of all their actions. On the scriptural authority of the Vedas the atma or soul is the doer but this is fully experienced only when moksa or liberation from material existence is attained. The impressions of the atma filter through the medium of the physical body in proportion to the purity of the mind. In Brahma Sutra II.III.XXXIII we see in the verse that the atma is the doer. Yet because the knowledge of a person in ignorance is limited the filtering process is negligible and they perceive their physical body as the doer of all their actions when in actuality all actions are performed by the interaction of material nature, the three gunas and the false ego. Because of this the ignorant whose minds are completely bewildered by false ego believe falsely that they are their bodies and that they are the doer of their actions.
Prakriteh kriyamaanaani gunaih karmaani sarvashah; Ahamkaaravimoodhaatmaa kartaaham iti manyate.
prakṛiteḥ—of material nature; kriyamāṇāni—carried out; guṇaiḥ—by the three modes; karmāṇi—activities; sarvaśhaḥ—all kinds of; ahankāra-vimūḍha-ātmā—those who are bewildered by the ego and misidentify themselves with the body; kartā—the doer; aham—I; iti—thus; manyate—thinks