प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्।।3.29।।
।।3.29।। प्रकृति के गुणों से मोहित हुए पुरुष गुण और कर्म में आसक्त होते हैं उन अपूर्ण ज्ञान वाले (अकृत्स्नविद) मंदबुद्धि पुरुषों को पूर्ण ज्ञान प्राप्त पुरुष विचलित न करे।।
।।3.29।। यद्यपि अनेक लोग सामान्य रूप से यह जानते हैं कि मन में स्थित वासनायें ही स्वयं को पूर्ण करने के लिये जगत् में कर्म बनकर व्यक्त होती हैं परन्तु केवल ज्ञानी पुरुष ही इस सत्य से पूर्णतया परिचित सब कर्मों में शांत और अनासक्त रहता है। बहुसंख्यक लोग तो पूर्णरूप से मोहित हुये अपनी ही वासनाओं के शिकार बने रहते हैं। वासनाओं से तरंगायित कर्मरूप जीवन के प्रवाह में बाधा उत्पन्न करने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये। 26वें श्लोक में विद्वान् पुरुष को दी गयी सम्मति को ही यहाँ दूसरे शब्दों में उस पर बल देने के लिये दोहराया गया है।मन्दबुद्धि अज्ञानी एवं आसक्त पुरुषों को कर्म से विचलित न करके ज्ञानी को चाहिए कि उन्हें शनै शनै सही मार्ग पर लाने का प्रयत्न करे। इस प्रकार ज्ञानी पुरुष द्वारा सुनिर्दिष्ट प्रवाह संस्कृति के उद्यान को सींचता हुआ वैयत्तिक और सामाजिक उन्नति के स्वप्न को साकार कर सकेगा।कर्म में ही अधिकृत अज्ञानी पुरुष को अपने बन्धनों से मुक्त होने के लिये किस प्रकार कर्म करना चाहिए उत्तर है