मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।।3.30।।
।।3.30।। सम्पूर्ण कर्मों का मुझ में संन्यास करके आशा और ममता से रहित होकर संतापरहित हुए तुम युद्ध करो।।
।।3.30।। भगवान् का यह स्पष्ट मत था कि अर्जुन को युद्ध करना चाहिये। पाण्डव राजकुमार अर्जुन अभी उच्चस्तरीय ध्यान साधना के योग्य नहीं था। कर्म में वासना उत्पन्न करने की प्रवृत्ति होती है और फिर उस वासना से कर्म में वृद्धि होती है। श्रीकृष्ण के कर्मयोग के उपदेशानुसार कर्माचरण करने पर पुरानी वासनाओं का क्षय तो होता ही है परन्तु अन्य नयी वासनायें भी उत्पन्न नहीं होतीं। अहंकार और स्वार्थ से रहित कर्म के आचरण के उस सिद्धान्त को ही यहां दूसरे शब्दों में बताया गया है।समस्त कर्मों का संन्यास मुझमें करके जैसा कि हम देख चुके हैं यहाँ भी मुझ में शब्द से तात्पर्य शुद्ध परमात्मस्वरूप से है। श्रीकृष्ण का उपदेश है कि अर्जुन को भक्तिपूर्वक परमात्मा का स्मरण करते हुये (अध्यात्मचेतसा) समस्त कर्मों का संन्यास (अर्पण) परमात्मा में करना चाहिये। कर्मों के संन्यास का अर्थ अकर्मण्यता का जीवन नहीं समझना चाहिये। कर्मों से अहंकार और स्वार्थ का त्याग ही वास्तविक कर्मसंन्यास कहलाता है।सर्प की भयंकरता उसके विष में है। यदि उसके विषदन्त निकाल दिये जाँय तो वह भयानक सर्प किसी को हानि नहीं पहुँचा सकता। इसी प्रकार अहंकार और स्वार्थ के कारण ही कर्म बन्धन कारक होते हैं अन्यथा नहीं। यहाँ कर्मों के संन्यास से तात्पर्य उनके उत्प्रेरक दुष्प्रयोजनों के त्याग से है।आत्मस्वरूप ईश्वर के निरन्तर कीर्तिगान से उद्देश्यों की शुद्धता प्राप्त की जा सकती है। कीर्तिगान से हृदय दैवी भावनाओं से स्पन्दित हो उठता है। ऐसे व्यक्ति के कर्म सामान्य नहीं समझने चाहिये वरन् ईश्वर के संकल्प ही उस व्यक्ति के माध्यम से जगत् में व्यक्त होते हैं। परिच्छिन्न जीवभाव के स्थान पर पूर्णत्व का भाव दृढ़ होने पर वह व्यक्ति ईश्वरेच्छा को व्यक्त करने का सर्वोत्कृष्ट माध्यम बन जाता है।केवल निषिद्ध कर्मों का त्याग ही पर्याप्त नहीं है। हमको उन आन्तरिक सद्गुणों का भी विकास करना चाहिये जिससे ईश्वर के संकल्पों का प्रवाह निर्वाध रूप से हमारे द्वारा प्रवाहित हो सके। इस का संकेत यहाँ निराशी और निर्मम इन शब्दों से किया गया है।इस श्लोक के सतही अध्ययन से भ्रमित होकर कोई इस निष्कर्ष पर पहुँच सकता है कि हिन्दू धर्म गतिशील जीवन का त्याग कर निराशा का जीवन जीने की शिक्षा देता है। परन्तु सूक्ष्म अध्ययन करने पर स्पष्ट होगा कि इस श्लोक में श्रीकृष्ण जीवन के उच्चतर मनोवैज्ञानिक सत्य की ओर इंगित कर रहे हैं।निराशी आशा उस वस्तु या घटना की अपेक्षा है जो भविष्य काल में व्यक्त या प्राप्त होगी। आशा सदैव भविष्य के लिए होती है वर्तमान में नहीं।निर्मम अहंकार मूलक ममभाव और कुछ नहीं उन घटनाओं एवं उपलब्धियों की एक गठरी है जो भूतकाल में घटित हुई थीं। अत अहंकार भूतकाल की प्रतिच्छाया मात्र है और उसका अस्तित्त्व व्यतीत हुए काल के सन्दर्भ में ही है।आशा यदि अनुत्पन्न भविष्य का शिशु है तो अहंकार भूतकाल की हठीली स्मृति। आशा और अहंभाव में रहने का अर्थ है भविष्य और भूतकाल में ही जीना। दुख की बात यह है कि इन सबमें हम शक्तिशाली वर्तमान को खो देते हैं जबकि वर्तमान ही वह अवसर है जो कर्म करने आगे बढ़ने और लक्ष्य प्राप्त करने के लिये हमें प्राप्त हुआ है। श्रीकृष्ण अर्जुन को आशा और ममभाव से रहित होकर कर्म करने का उपदेश देते हैं। भूत और भविष्य के विचारों में शक्ति का अपव्यय किये बिना वर्तमान का सदुपयोग करने के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण सूचना इस श्लोक में दी गयी है।विचाराधीन यह श्लोक सभी दृष्टियों से अपने आप में पूर्ण है जिसे पढ़कर आधुनिक मनोवैज्ञानिक भी आश्चर्य चकित रह जायेगा। यद्यपि अब तक के विवेचन को समझने से भूत और भविष्य के विचारों में होने वाले शक्ति के अपव्यय को हम रोक सकते हैं परन्तु वर्तमान में कार्य करते हुये अपनी क्षमता के क्षरण की संभावना रह सकती है। इसका कारण अनावश्यक रूप से व्याकुल और उत्तेजित होने का हमारा स्वभाव है। इस उत्तेजना को यहाँ ज्वर कहा गया है। भगवान् श्रीकृष्ण उपदेश देते हैं कि समस्त कर्मों का संन्यास परमात्मा में करके आशा और ममता से रहित होकर तथा मानसिक उत्तेजना का त्याग कर अर्जुन को युद्ध करना चाहिये। गीता के इस्ा सिद्धांत की परिपूर्णता इसके समस्त अध्येताओं को स्पष्ट जाती है।यहाँ युद्ध करने से तात्पर्य जीवन संघर्षों में आने वाली समस्त परिस्थितियों का सामना करने से है। अत यह उपदेश केवल अर्जुन के लिये ही नहीं बल्कि उन सभी के लिये हैं जो बुद्धिमत्तापूर्वक पूर्ण रूप से अपना जीवन जीना चाहते हैं।कर्मयोग का सीमित अर्थ समझकर जिन्होंने वेदों का अध्ययन किया है उन्हें इस श्लोक में दिया उपदेश पारम्परिक प्रतीत होगा।अपनी पीढ़ी के द्वारा इस उपदेश के स्वीकृत होने पर उसके प्रचारार्थ भगवान् कहते हैं