सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।।3.33।।
।।3.33।।सम्पूर्ण प्राणी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं। ज्ञानी महापुरुष भी अपनी प्रकृतिके अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसीका हठ क्या करेगा
।।3.33।। ज्ञानवान् पुरुष भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। सभी प्राणी अपनी प्रकृति पर ही जाते हैं फिर इनमें (किसी का) निग्रह क्या करेगा।।
।।3.33।। व्याख्या प्रकृतिं यान्ति भूतानि जितने भी कर्म किये जाते हैं वे स्वभाव अथवा सिद्धान्तको (टिप्पणी प0 174.1) सामने रखकर किये जाते हैं। स्वभाव दो प्रकारका होता है रागद्वेषरहित और रागद्वेषयुक्त। जैसे रास्तेमें चलते हुए कोई बोर्ड दिखायी दिया और उसपर लिखा हुआ पढ़ लिया तो यह पढ़ना न तो राग द्वेषसे हुआ और न किसी सिद्धान्तसे अपितु रागद्वेषरहित स्वभावसे स्वतः हुआ। किसी मित्रका पत्र आनेपर उसे रागपूर्वक पढ़ते हैं और शत्रुका पत्र आनेपर उसे द्वेषपूर्वक पढ़ते हैं तो यह पढ़ना रागद्वेषयुक्त स्वभावसे हुआ। गीता रामायण आदि सत्शास्त्रोंको पढ़ना सिद्धान्तसे पढ़ना हुआ। मनुष्यजन्म परमात्मप्राप्तिके लिये ही है अतः परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यसे कर्म करना भी सिद्धान्तके अनुसार कर्म करना है।इस प्रकार देखना सुनना सूघँना स्पर्श करना आदि मात्र क्रियाएँ स्वभाव और सिद्धान्त दोनोंसे होती हैं। रागद्वेषरहित स्वभाव दोषी नहीं होता प्रत्युत रागद्वेषयुक्त स्वभाव दोषी होता है। रागद्वेषपूर्वक होनेवाली क्रियाएँ मनुष्यको बाँधती हैं क्योंकि इनसे स्वभाव अशुद्ध होता है और सिद्धान्तसे होनेवाली क्रियाएँ उद्धार करनेवाली होती हैं क्योंकि इनसे स्वभाव शुद्ध होता है। स्वभाव अशुद्ध होनेके कारण ही संसारसे माने हुए सम्बन्धका विच्छेद नहीं होता। स्वभाव शुद्ध होनेसे संसारसे माने हुए सम्बन्धकासुगमतापूर्वक विच्छेद हो जाता है।ज्ञानी महापुरुषके अपने कहलानेवाले शरीरद्वारा स्वतः क्रियाएँ हुआ करती हैं क्योंकि उसमें कर्तृत्वाभिमान नहीं होता। परमात्मप्राप्ति चाहनेवाले साधककी क्रियाएँ सिद्धान्तके अनुसार होती है। जैसे लोभी पुरुष सदा सावधान रहता है कि कहीं कोई घाटा न लग जाय ऐसे ही साधक निरन्तर सावधान रहता है कि कहीं कोई क्रिया रागद्वेषपूर्वक न हो जाय। ऐसी सावधानी होनेपर साधकका स्वभाव शीघ्र शुद्ध हो जाता है और परिणामस्वरूप वह कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है।यद्यपि क्रियामात्र स्वाभाविक ही प्रकृतिके द्वारा होती है तथापि अज्ञानी पुरुष क्रियाओंके साथ अपना सम्बन्ध मानकर अपनेको उन क्रियाओंका कर्ता मान लेता है (गीता 3। 27)। पदार्थों और क्रियाओंसे अपना सम्बन्ध माननेके कारण ही रागद्वेष उत्पन्न होते हैं जिनसे जन्ममरणरूप बन्धन होता है। परन्तु प्रकृतिसे सम्बन्ध न माननेवाला साधक अपनेको सदा अकर्ता ही देखता है (गीता 13। 29)।स्वभावमें मुख्य दोष प्राकृत पदार्थोंका राग ही है। जबतक स्वभावमें राग रहता है तभीतक अशुद्ध कर्म होते हैं। अतः साधकके लिये राग ही बन्धनका मुख्य कारण है।राग माने हुए अहम् में रहता है और मन बुद्धि इन्द्रियों एवं इन्द्रियोंके विषयोंमें दिखायी देता है। अहम् दो प्रकारका है 1 चेतनद्वारा जडके साथ माने हुए सम्बन्धसे होनेवाला तादात्म्यरूप अहम्।2 जड प्रकृतिका धातुरूप अहम् महाभूतान्यहंकारः (गीता 13। 5)।जड प्रकृतिके धातुरूप अहम् में कोई दोष नहीं है क्योंकि यह अहम् मन बुद्धि इन्द्रियों आदिकी तरह एक करण ही है। इसलिये सम्पूर्ण दोष माने हुए अहम् में ही हैं। ज्ञानी महापुरुषमें तादात्म्यरूप अहम् का सर्वथा अभाव होता है अतः उसके कहलानेवाले शरीरके द्वारा होनेवाली समस्त क्रियाएँ प्रकृतिके धातुरूप अहम् से ही होती हैं। वास्तवमें समस्त प्राणियोंकी सब क्रियाएँ इस धातुरूप अहम् से ही होती हैं परन्तु जड शरीरको मैं और मेरा माननेवाला अज्ञानी पुरुष उन क्रियाओंको अपनी तथा अपने लिये मान लेता है और बँध जाता है। कारण कि क्रियाओंको अपनी और अपने लिये माननेसे ही राग उत्पन्न होता है (टिप्पणी प0 174.2)। सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि यद्यपि अन्तःकरणमें रागद्वेष न रहनेसे ज्ञानी महापुरुषकी प्रकृति निर्दोष होती है और वह प्रकृतिके वशीभूत नहीं होता तथापि वह चेष्टा तो अपनी प्रकृति(स्वाभाव) के अनुसार ही करता है। जैसे कोई ज्ञानी महापुरुष अंग्रेजी भाषा नहीं जानता और उससे अंग्रेजी बोलनेके लिये कहा जाय तो वह बोल नहीं सकेगा। वह जिस भाषाको जानता है उसी भाषामें बोलेगा।भगवान् भी अपनी प्रकृति(स्वभाव) को वशमें करके जिस योनिमें अवतार लेते हैं उसी योनिके स्वभावके अनुसार चेष्टा करते हैं जैसे भगवान् राम या कृष्णरूपसे मनुष्ययोनिमें अवतार लेते हैं तथा मत्स्य कच्छप वराह आदि योनियोंमें अवतार लेते हैं तो वहाँ उसउस योनिके अनुसार ही चेष्टा करते हैं। तात्पर्य है कि भगवान्के अवतारी शरीरोंमें भी वर्ण योनिके अनुसार स्वभावकी भिन्नता रहती है पर परवशता नहीं रहती। इसी तरह जिन महापुरुषोंका प्रकृति(जडता) से सम्बन्धविच्छेद हो गया है उनमें स्वभावकी भिन्नता तो रहती है पर परवशता नहीं रहती। परन्तु जिन मनुष्योंका प्रकृतिसे सम्बन्धविच्छेद नहीं हुआ है उनमें स्वभावकी भिन्नता और परवशता दोनों रहती हैं।यहाँ स्वस्याः पदका तात्पर्य यह है कि ज्ञानी महापुरुषकी प्रकृति निर्दोष होती है। वह प्रकृतिके वशमें नहीं होता प्रत्युत प्रकृति उसके वशमें होती है। कर्मोंकी फलजनकताका मूल बीज कर्तृत्वाभिमान और स्वार्थबुद्धि है। ज्ञानी महापुरुषमें कर्तृत्वाभिमान और स्वार्थबुद्धि नहीं होती। उसके द्वारा चेष्टामात्र होती है। बन्धनकारक कर्म होता है चेष्टा या क्रिया नहीं। इसीलिये यहाँ चेष्टते पद आया है। उसका स्वभाव इतना शुद्ध होता है कि उसके द्वारा होनेवाली क्रियाएँ भी महान् शुद्ध एवं साधकोंके लिये आदर्श होती हैं।पीछेके और वर्तमान जन्मके संस्कार मातापिताके संस्कार वर्तमानका सङ्ग शिक्षा वातावरण अध्ययन उपासना चिन्तन क्रिया भाव आदिके अनुसार स्वभाव बनता है। यह स्वभाव सभी मनुष्योंमें भिन्नभिन्न होताहै और इसे निर्दोष बनानेमें सभी मनुष्य स्वतन्त्र हैं। व्यक्तिगत स्वभावकी भिन्नता ज्ञानी महापुरुषोंमें भी रहती है। चेतनमें भिन्नता होती ही नहीं और प्रकृति(स्वभाव) में स्वाभाविक भिन्नता रहती है। प्रकृति है ही विषम। जैसे एक जाति होनेपर भी आम आदिके वृक्षोंमें अवान्तर भेद रहता है ऐसे ही प्रकृति (स्वभाव) शुद्ध होनेपर भी ज्ञानी महापुरुषोंमें प्रकृतिका भेद रहता है।ज्ञानी महापुरुषका स्वभाव शुद्ध (रागद्वेषरहित) होता है अतः वह प्रकृतिके वशमें नहीं होता। इसके विपरीत अशुद्ध (रागद्वेषयुक्त) स्वभाववाले मनुष्य अपनी बनायी हुई परवशतासे बाध्य होकर कर्म करते हैं।निग्रहः किं करिष्यति जिनका स्वभाव महान् शुद्ध एवं श्रेष्ठ है उनकी क्रियाएँ भी अपनी प्रकृतिके अनुसार हुआ करती हैं फिर जिनका स्वभाव अशुद्ध (रागद्वेषयुक्त) है उन पुरुषोंकी क्रियाएँ तो प्रकृतिके अनुसार होंगी ही। इस विषयमें हठ उनके काम नहीं आयेगा। जिसका जैसा स्वभाव है उसे उसीके अनुसार कर्म करने पड़ेंगे। यदि स्वभाव अशुद्ध हो तो वह अशुद्ध कर्मोंमें और शुद्ध हो ते वह शुद्ध कर्मोंमें मनुष्यको लगा देगा।अर्जुन भी जब हठपूर्वक युद्धरूप कर्तव्यकर्मका त्याग करना चाहते हैं तब भगवान् उन्हें यही कहते हैं कि तेरा स्वभाव तुझे बलपूर्वक युद्धमें लगा देगा प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति (18। 59) क्योंकि तेरे स्वभावमें क्षात्रकर्म (युद्ध आदि) करनेका प्रवाह है। इसलिये स्वाभाविक कर्मोंसे बँधा हुआ तू परवश होकर युद्ध करेगा अर्थात् इसमें तेरा हठ काम नहीं आयेगा करिष्यस्यवशोऽपि तत् (18। 60)।जैसे सौ मील प्रति घंटेकी गतिसे चलनेवाली मोटर अपनी नियत क्षमतासे अधिक नहीं चलेगी ऐसे ही ज्ञानी महापुरुषके द्वारा भी अपनी शुद्ध प्रकृतिके विपरीत चेष्टा नहीं होगी। जिनकी प्रकृति अशुद्ध है उनकी प्रकृति बिगड़ी हुई मोटरके समान है। बिगड़ी हुई मोटरको सुधारनेके दो मुख्य उपाय हैं (1) मोटरको खुद ठीक करना और (2) मोटरको कारखानेमें पहुँचा देना। इसी प्रकार अशुद्ध प्रकृतिको सुधारनेके भी दो मुख्य उपाय हैं (1) रागद्वेषसे रहित होकर कर्म करना (गीता 3। 34) और (2) भगवान्के शरणमें चले जाना (गीता 18। 62)। यदि मोटर ठीक चलती है तो हम मोटरके वशमें नहीं हैं और यदि मोटर बिगड़ी हुई है तो हम हम मोटरके वशमें हैं। ऐसे ही ज्ञानी महापुरुष प्रकृतिके शुद्ध होनेके कारण प्रकृतिके वशमें नहीं होता और अज्ञानी पुरुष प्रकृतिके अशुद्ध होनेके कारण प्रकृतिके वशमें होता है।जिसकी बुद्धिमें जडता(सांसारिक भोग और संग्रह) का ही महत्त्व है ऐसा मनुष्य कितना ही विद्वान् क्यों न हो उसका पतन अवश्यम्भावी है। परन्तु जिसकी बुद्धिमें जडताका महत्त्व नहीं है और भगवत्प्राप्ति ही जिसका उद्देश्य है ऐसा मनुष्य विद्वान् न भी हो तो भी उसका उत्थान अवश्यम्भावी है। कारण कि जिसका उद्देश्य भोग और संग्रह न होकर केवल परमात्माको प्राप्त करना ही है उसके समस्त भाव विचार कर्म आदि उसकी उन्नतिमें सहायक हो जाते हैं। अतः साधकको सर्वप्रथम परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य बना लेना चाहिये फिर उस उद्देश्यकी सिद्धिके लिये रागद्वेषसे रहित होकर कर्तव्यकर्म करने चाहिये। रागद्वेषसेरहित होनेका सुगम उपाय है मिले हुए शरीरादि पदार्थोंको अपना और अपने लिये न मानते हुए दूसरोंकी सेवामें लगाना और बदलेमें दूसरोंसे कुछ भी न चाहना।प्रकृतिके वशमें होनेके लिये साधकको चाहिये कि वह किसी आदर्शको सामने रखकर कर्तव्यकर्म करे। आदर्श दो हो सकते हैं (1) भगवान्का मत (सिद्धान्त) और (2) श्रेष्ठ महापुरुषोंका आचरण। आदर्शको सामने रखकर कर्म करनेवाले मनुष्यकी प्रकृति शुद्ध हो जाती है और नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाता है। इसके विपरीत आदर्शको सामने न रखकर कर्म करनेवाला मनुष्य रागद्वेषपूर्वक ही सब कर्म करता है जिससे रागद्वेष पुष्ट हो जाते हैं और उसका पतन हो जाता है नष्टान् विद्धि (गीता 3।32)।जैसे नदीके प्रवाहको हम रोक तो नहीं सकते पर नहर बनाकर मोड़ सकते हैं ऐसे ही कर्मोंके प्रवाहको रोक तो नहीं सकते पर उसका प्रवाह मोड़ सकते हैं। निःस्वार्थभावसे केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करना ही कर्मोंके प्रवाहको मोड़ना है। अपने लिये किञ्चिन्मात्र भी कर्म करनेसे कर्मोंका प्रवाह मुड़ेगा नहीं। तात्पर्य यह कि केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे कर्मोंका प्रवाह संसारकी ओर हो जाता है और साधक कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है।सम्बन्ध प्रत्येक मनुष्यका अपनी प्रकृतिको साथ लेकर ही जन्म होता है अतः उसे अपनी प्रकृतिके अनुसार कर्म करने ही पड़ते हैं। इसलिये अब भगवान् आगेके श्लोकमें प्रकृतिको शुद्ध करनेका उपाय बताते हैं।
।।3.33।। जिस प्रकार के विचारों का चिन्तन हम करते हैं उनसे विचारों की दिशा निर्धारित होती है और वे स्थायी भाव का रूप लेते हैं इसको ही हमारा स्वभाव कहा जाता है। किसी समय मनुष्य का स्वभाव उसके मन में उठने वाले विचारों से निश्चित किया जाता है। यहाँ कहा गया है कि ज्ञानवान् पुरुष भी अपने स्वभाव के अनुसार ही कार्य करता है।यहाँ ज्ञानवान शब्द का अर्थ है वह पुरुष जिसने कर्मयोग के सिद्धान्त को भली भाँति समझ लिया है। यद्यपि वह सिद्धान्त को जानता है तथापि उसे कार्यान्वित करने में कठिनाई आती है क्योंकि उसका स्वभाव उसके कार्य में बाधा उत्पन्न करता है। पूर्वाजिर्त वासनाओं के कारण इस सरल से प्रतीत होने वाले सिद्धांत को मनुष्य अपने जीवन में नहीं उतार पाता। इसका एक मात्र कारण है प्राणिमात्र अपने स्वभाव का अनुसरण करते हैं। स्वभाव के शक्तिशाली होने पर किसी का निग्रह क्या करेगा यह अन्तिम वाक्य भगवान् के उपदेश में निराशा का उद्गार नहीं किन्तु उनकी परिपूर्ण दृष्टि का परिचायक है। वे वस्तु स्थिति से परिचित हैं कि प्रत्येक व्यक्ति जीवन के उच्च मार्ग पर चलने की क्षमता नहीं रखता। विकास के सोपान की सबसे निचली सीढ़ी पर खड़े असंख्य मनुष्यों के लिये इस मार्ग का अनुसरण कदापि सम्भव नहीं क्योंकि विषयों में आसक्ति तथा पाशविक प्रवृत्तियों से वे इस प्रकार बंधे होते हैं कि उन सबका एकाएक त्याग करना उन सबके लिये सम्भव नहीं होता। जिस मनुष्य में कर्म के प्रति उत्साह तथा जीवन में कुछ पाने की महत्त्वाकांक्षा है केवल वही व्यक्ति इस कर्मयोग का आचरण करके स्वयं को कृतार्थ कर सकता है। भगवान् का यह कथन उनकी विशाल हृदयता एवं सहिष्णुता का परिचायक है।प्रत्येक व्यक्ति का अपना निजी स्वभाव है यदि उसी के अनुसार कर्म करने को वह विवश है तो फिर पुरुषार्थ के लिये कोई अवसर ही नहीं रह जाता। इस कारण यह उपदेश भी निष्प्रयोजन हो जाता है। इस पर भगवान् कहते हैं
3.33 Even a man of wisdom behaves according to his own nature. Being follow (their) nature. What can restraint do?
3.33 Even a wise man acts in accordance with his own nature; beings will follow Nature; what can restraint do?
3.33. Even a man of knowledge acts in conformity to his own Prakrti, the elements go [back] to the Prakrti; [and] what will the restraint avail ?
3.33 सदृशम् in accordance? चेष्टते acts? स्वस्याः of his own? प्रकृतेः of nature? ज्ञानवान् a wise man? अपि even? प्रकृतिम् to nature? यान्ति follow? भूतानि beings? निग्रहः restraint? किम् what? करिष्यति will do.Commentary He who reads this verse will come to the conclusion that there is no scope for mans personal exertion. It is not so. Read the following verse. It clearly indicates that man can coner Nature if he rises above the sway of RagaDvesha (love and hatred).The passionate and ignorant man only comes under the sway of his natural propensities? and his lower nature. He cannot have any restraint over the senses and the two currents of likes and dislikes. The seeker after Truth who is endowed with the four means? and who is constantly practising meditation can easily control Nature. (Cf.II.60V.14XVIII.59).
3.33 Api, even; jnanavan, a man of wisdom-what to speak of a fool!; cestate, behaves; Sadrsam, according to;-what? svasyah, his own; prakrteh, nature. Nature means the impressions of virtue, vice, etc. [Also, knowledge, desires, and so on.] acired in the past (lives) and which become manifest at the commencement of the present life. All creatures (behave) according to that only. Therefore, bhutani, beings; yanti, follow; (their) prakrtim, nature. Nigrahah kim karisyati, what can restraint do, be it from Me or anybody else? If all beings behave only according to their own nature-and there is none without his nature-, then, since there arises the contingency of the scriptures becoming purposeless owing to the absence of any scope for personal effort, therefore the following is being stated:
3.33 Sadrsam etc. There is hardly any difference in the wordly activities like eating etc., of him who is a man of wisdom. But he too acts only in conformity to the Sattva, etc., just knowing in this manner : Because the elements like the Earth etc. get absorbed into the prakrti; and the Self is also a non-doer and ever-freed; therefore the erradication of birth etc., are for whose sake ? Then how can there be bondage at all [for a man of worldly life] ? That is as follows, it is said :
3.33 Such and such is the nature of the self, which is different from the Prakrti - this has to be always contemplated upon: thus declare the Sastras. Even a person who knows this, acts in relation to material objects only according to his own nature, i.e., guided by his old subtle impressions. How is this? All beings follow their nature. Beings in conjunction with non-conscient matter, all follow only subtle impressions which have continued to come from time immemorial. What can the control enjoined by Sastras, do to these beings who follow their subtle impressions? Sri Krsna expounds the way by which individuals are overpowered to follow their respective natures:
“Would they not be afraid of not following your instructions, the instructions of the Supreme Lord, or the instructions of a king?” “No, they are not afraid.” “Those who engage their senses for enjoyment, even if they are intelligent, cannot consider the orders of the king, the Supreme Lord. This is because of their nature.” The Lord explains this in this verse. If the person of knowledge engages in sin, he will receive hellish punishment, just as a king punishes. And he will also bear infamy. Still, even the person of discrimination performs actions : which yield a burden of suffering, following his previous sinful habits. Therefore all follow after their natures. The instructions oil scripture (nigrahah) made by me or the king, in the form oil niskama karma yoga, are able to purify and enlighten the impurel hearted, and in the form of jnana yoga, are able to purify and enlighten the pure hearted. But neither can purify the extremely impure (nigrahah kim karisyati). But bhakti yoga arising from my unpredictable mercy can deliver even those most sinful persons. As the Skanda Purana says: aho dhanyo ‘si devarse krpaya yasya te ksanat nico ‘py utpulako lebhe lubdhako ratim ucyate My dear friend Narada Muni, you are glorified as the sage among the demigods. By your mercy, even a lowborn person like this hunter immediately became ecstatic. This is called bhava or rati.
It may be submitted that if follow the teachings of Bhagavad-Gita yields so much why isnt everyone following their prescribed duties, free from desires and attachment. Lord Krishna answers that even a person of Vedic wisdom acts according to the nature received from samskara or impressions from past life actions. One always follows without fail their own disposition and nature. So it goes without saying that an ignorant person is even more dominated by their nature and will act ignorantly in all matters. So understanding in this light what can restraint of the senses accomplish with prakriti or material nature being so powerful? This is the meaning.
A question may be raised that if it is so beneficial to follow the teachings of the Bhagavad-Gita then why is not everyone following them. Lord Krishna explains that it is according to their own nature determined by samskaras or impressions from past lifetimes and because of the influence of prakriti or material nature interacting with the three gunas, or the modes of goodness, passion and nescience.
That person situated in jnana yoga or the cultivation of Vedic wisdom is very knowledgeable with the Vedic declarations regarding the distinct difference between the atma or soul and prakriti or material nature. Such a person is also completely aware of the fact that the atma should be the sole object of their contemplation and meditation. But despite this knowledge it is seen that due to the deep influence of samskaras or impressions from past life activities, they are carried along by their subsequent nature which forces them to be act in the current of their natural tendencies and they find themselves preoccupied with various material pursuits enjoying assorted material sense objects. The reason is that living entities become indoctrinated and content with whatever relationship they establish in their environment. In other words whatever habits they form from their association with prakriti they continue to maintain and persistently follow. With the overpowering influence of these deep rooted habits how can the words of the Vedic scriptures impose restraint on such a person? One is helplessly carried away by the forceful current of past life actions and impressions. The objects of the senses are perceived through the sense organs. For example hearing is perceived by the ears through sound, seeing is perceived by the eyes through sight, smelling is perceived by the nose through smells and so on. For each of the senses one has affection and the desire to enjoy through them. But the same senses operate depending upon attraction or aversion to sense objects. For sense objects that are pleasing one has attraction for pleasure and for sense objects that are displeasing one has aversion to displeasure. All these habits are conditioned from ancient predilections of past life reminisces. Such dualities of attraction and aversion obstructs one who would want to succeed in jnana yoga by subjugating their sense. These dualities which can be understood as different degrees of love and hate, hold a person in an iron grip and forcefully drive them to commit actions that are in conformance with the attributes of one of the three gunas of goodness, passion or nescience which ones nature adheres to from past life impressions. Thus one is being constantly diverted from the real purpose of human existence, that of atma tattva or realisation of the soul and their precious human life is wasted pursuing sense objects.
That person situated in jnana yoga or the cultivation of Vedic wisdom is very knowledgeable with the Vedic declarations regarding the distinct difference between the atma or soul and prakriti or material nature. Such a person is also completely aware of the fact that the atma should be the sole object of their contemplation and meditation. But despite this knowledge it is seen that due to the deep influence of samskaras or impressions from past life activities, they are carried along by their subsequent nature which forces them to be act in the current of their natural tendencies and they find themselves preoccupied with various material pursuits enjoying assorted material sense objects. The reason is that living entities become indoctrinated and content with whatever relationship they establish in their environment. In other words whatever habits they form from their association with prakriti they continue to maintain and persistently follow. With the overpowering influence of these deep rooted habits how can the words of the Vedic scriptures impose restraint on such a person? One is helplessly carried away by the forceful current of past life actions and impressions. The objects of the senses are perceived through the sense organs. For example hearing is perceived by the ears through sound, seeing is perceived by the eyes through sight, smelling is perceived by the nose through smells and so on. For each of the senses one has affection and the desire to enjoy through them. But the same senses operate depending upon attraction or aversion to sense objects. For sense objects that are pleasing one has attraction for pleasure and for sense objects that are displeasing one has aversion to displeasure. All these habits are conditioned from ancient predilections of past life reminisces. Such dualities of attraction and aversion obstructs one who would want to succeed in jnana yoga by subjugating their sense. These dualities which can be understood as different degrees of love and hate, hold a person in an iron grip and forcefully drive them to commit actions that are in conformance with the attributes of one of the three gunas of goodness, passion or nescience which ones nature adheres to from past life impressions. Thus one is being constantly diverted from the real purpose of human existence, that of atma tattva or realisation of the soul and their precious human life is wasted pursuing sense objects.
Sadrisham cheshtate swasyaah prakriter jnaanavaan api; Prakritim yaanti bhootaani nigrahah kim karishyati.
sadṛiśham—accordingly; cheṣhṭate—act; svasyāḥ—by their own; prakṛiteḥ—modes of nature; jñāna-vān—the wise; api—even; prakṛitim—nature; yānti—follow; bhūtāni—all living beings; nigrahaḥ—repression; kim—what; kariṣhyati—will do