इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।3.34।।
।।3.34।।इन्द्रियइन्द्रियके अर्थमें (प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें) मनुष्यके राग और द्वेष व्यवस्थासे (अनुकूलता और प्रतिकूलताको लेकर) स्थित हैं। मनुष्यको उन दोनोंके वशमें नहीं होना चाहिये क्योंकि वे दोनों ही इसके (पारमार्थिक मार्गमे विघ्न डालनेवाले) शत्रु हैं।
।।3.34।। इन्द्रियइन्द्रिय (अर्थात् प्रत्येक इन्द्रिय) के विषय के प्रति (मन में) रागद्वेष रहते हैं मनुष्य को चाहिये कि वह उन दोनों के वश में न हो क्योंकि वे इसके (मनुष्य के) शत्रु हैं।।
3.34।। व्याख्या इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें रागद्वेषको अलगअलग स्थित बतानेके लिये यहाँ इन्द्रियस्य पद दो बार प्रयुक्त हुआ है। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक इन्द्रिय(श्रोत्र त्वचा नेत्र रसना और घ्राण) के प्रत्येक विषय(शब्द स्पर्श रूप रस और गन्ध) में अनुकूलताप्रतिकूलताकी मान्यतासे मनुष्यके रागद्वेष स्थित रहते हैं। इन्द्रियके विषयमें अनुकूलताका भाव होनेपर मनुष्यका उस विषयमें राग हो जाता है और प्रतिकूलताका भाव होनेपर उस विषयमें द्वेष हो जाता है।वास्तवमें देखा जाय तो रागद्वेष इन्द्रियोंके विषयोंमें नहीं रहते। यदि विषयोंमें रागद्वेष स्थित होते तो एक ही विषय सभीको समानरूपसे प्रिय अथवा अप्रिय लगता। परन्तु ऐसा होता नहीं जैसे वर्षा किसानको तो प्रिय लगती है पर कुम्हारको अप्रिय। एक मनुष्यको भी कोई विषय सदा प्रिय या अप्रिय नहीं लगता जैसे ठंडी हवा गरमीमें अच्छी लगती है पर सरदीमें बुरी। इस प्रकार सब विषय अपने अनुकूलता या प्रतिकूलताके भावसे ही प्रिय अथवा अप्रिय लगते हैं अर्थात् मनुष्य विषयोंमें अपना अनुकूल या प्रतिकूल भाव करके उनको अच्छा या बुरा मानकर रागद्वेष कर लेता है। इसलिये भगवान्ने रागद्वेषको प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें स्थित बताया है।वास्तवमें रागद्वेष माने हुए अहम्(मैंपन) में रहते हैं (टिप्पणी प0 176)। शरीरसे माना हुआ सम्बन्ध हीअहम् कहलाता है। अतः जबतक शरीरसे माना हुआ सम्बन्ध रहता है तबतक उसमें रागद्वेष रहते हैं और वे ही रागद्वेष बुद्धि मन इन्द्रियों तथा इन्द्रियोंके विषयोंमें प्रतीत होते हैं। इसी अध्यायके सैंतीसवेंसे तैंतालीसवें श्लोकतक भगवान्ने इन्हीं रागद्वेषको काम और क्रोध के नामसे कहा है। राग और द्वेषके ही स्थूलरूप काम और क्रोध हैं। चालीसवें श्लोकमें बताया है कि यह काम इन्द्रियों मन और बुद्धिमें रहता है। विषयोंकी तरह इनमें (इन्द्रियों मन और बुद्धिमें) काम की प्रतीति होनेके कारण ही भगवान्ने इनको काम का निवासस्थान बताया है। जैसे विषयोंमें रागद्वेषकी प्रतीतिमात्र है ऐसे ही इन्द्रियों मन और बुद्धिमें भी रागद्वेषकी प्रतीतिमात्र है। ये इन्द्रियाँ मन और बुद्धि तो केवल कर्म करनेके करण (औजार) हैं। इनमें कामक्रोध अथवा रागद्वेष हैं ही कहाँ इसके सिवाय दूसरे अध्यायके उनसठवें श्लोकमें भगवान् कहते हैं कि इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंको ग्रहण न करनेवाले पुरुषके विषय तो निवृत्त हो जाते हैं पर उनमें रहनेवाला उसका राग निवृत्त नहीं होता। यह राग परमात्माका साक्षात्कार होनेपर निवृत्त हो जाता है।तयोर्न वशमागच्छेत् इन पदोंसे भगवान् साधकको आश्वासन देते हैं कि रागद्वेषकी वृत्ति उत्पन्न होनेपर उसे साधन और साध्यसे कभी निराश नहीं होना चाहिये अपितु रागद्वेषकी वृत्तिके वशीभूत होकर उसे किसी कार्यमें प्रवृत्त अथवा निवृत्त नहीं होना चाहिये। कर्मोंमें प्रवृत्ति या निवृत्ति शास्त्रके अनुसार ही होनी चाहिये (गीता 16।24)। यदि रागद्वेषको लेकर ही साधककी कर्मोंमें प्रवृत्ति या निवृत्ति होती है तो इसका तात्पर्य यह होता है कि साधक रागद्वेषके वशमें हो गया। रागपूर्वक प्रवृत्ति या निवृत्ति होनेसे राग पुष्ट होता है और द्वेषपूर्वक प्रवृत्ति या निवृत्ति होनेसे द्वेष पुष्ट होता है। इस प्रकार रागद्वेष पुष्ट होनेके फलस्वरूप पतन ही होता है।जब साधक संसारका कार्य छोड़कर भजनमें लगता है तब संसारकी अनेक अच्छी और बुरी स्फुरणाएँ उत्पन्न होने लगती हैं जिनसे वह घबरा जाता है। यहाँ भगवान् साधकको मानो आश्वासन देते हैं कि उसे इन स्फुरणाओंसे घबराना नहीं चाहिये। इन स्फुरणाओंकी वास्तवमें सत्ता ही नहीं है क्योंकि ये उत्पन्न होती हैं और यह सिद्धान्त है कि उत्पन्न होनेवाली वस्तु नष्ट होनेवाली होती है। अतः विचारपूर्वक देखा जाय तो स्फुरणाएँ आ नहीं रही हैं प्रत्युत जा रही हैं। कारण यह है कि संसारका कार्य करते समय अवकाश न मिलनेसे स्फुरणाएँ दबी रहती हैं और संसारका कार्य छोड़ते ही अवकाश मिलनेसे पुराने संस्कार स्फुरणाओंके रूपमें बाहर निकलने लगते हैं। अतः साधकको इन अच्छी या बुरी स्फुरणाओंसे भी रागद्वेष नहीं करना चाहिये प्रत्युत सावधानीपूर्वक इनकी उपेक्षा करते हुए स्वयं तटस्थ रहना चाहिये। इसी प्रकारउसे पदार्थ व्यक्ति विषय आदिमें भी रागद्वेष नहीं करना चाहिये।रागद्वेषपर विजय पानेके उपायरागद्वेषके वशीभूत होकर कर्म करनेसे रागद्वेष पुष्ट (प्रबल) होते हैं और अशुद्ध प्रकृति(स्वभाव) का रूप धारण कर लेते हैं। प्रकृतिके अशुद्ध होनेपर प्रकृतिकी अधीनता रहती है। ऐसी अशुद्ध प्रकृतिकी अधीनतासे होनेवाले कर्म मनुष्यको बाँधते हैं। अतः रागद्वेषके वशमें होकर कोई प्रवृत्ति या निवृत्ति नहीं होनी चाहिये यह उपाय यहाँ बताया गया। इससे पहले भगवान् कह चुके हैं कि जो मेरे मतका अनुसरण करता है वह कर्मबन्धनसे छूट जाता है (गीता 3। 31)। इसलिये रागद्वेषकी वृत्तिके वशमें न होकर भगवान्के मतके अनुसार कर्म करनेसे रागद्वेष सुगमतापूर्वक मिट जाते हैं। तात्पर्य यह कि साधक सम्पूर्ण कर्मोंको और अपनेको भी भलीभाँति भगवदर्पण कर दे और ऐसा मान ले कि कर्म मेरे लिये नहीं हैं प्रत्युत भगवान्के लिये ही हैं जिनसे कर्म होते हैं वे शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदि भी भगवान्के ही हैं और मैं भी भगवान्का ही हूँ। फिर निष्काम निर्मम और निःसन्ताप होकर कर्तव्यकर्म करनेसे रागद्वेष मिट जाते हैं। इस प्रकार भगवान्के मत अर्थात् सिद्धान्तको सामने रखकर ही किसी कार्यमें प्रवृत्त या निवृत्त होना चाहिये।सम्पूर्ण सृष्टि प्रकृतिका कार्य है और शरीर सृष्टिका एक अंश है। जबतक शरीरके प्रति ममता रहती है तभीतक रागद्वेष होते हैं अर्थात् मनुष्य रुचि या अरुचिपूर्वक वस्तुओंका ग्रहण और त्याग करता है। यह रुचिअरुचि ही रागद्वेषका सूक्ष्म रूप है। रागद्वेषपूर्वक प्रवृत्ति या निवृत्ति होनेसे रागद्वेष पुष्ट होते हैं परन्तु शास्त्रको सामने रखकर किसी कर्ममें प्रवृत्त या निवृत्त होनेसे रागद्वेष मिट जाते हैं। कारण कि शास्त्रके अनुसार चलनेसे अपनी रुचि और अरुचिकी मुख्यता नहीं रहती। यदि कोई मनुष्य शास्त्रको नहीं जानता तो उसके लिये महर्षि वेदव्यासजीके वचन हैं श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।। (पद्मपुराण सृष्टि0 19। 35556)C हे मनुष्यों तुमलोग धर्मका सार सुनो और सुनकर धारण करो कि जो हम अपने लिये नहीं चाहते उसको दूसरोंके प्रति न करें।जीवन्मुक्त महापुरुष भी शास्त्रमर्यादाको ही आदर देते हैं। इसीलिये श्राद्धमें पिण्डदान करते समय पिताजीका हाथ प्रत्यक्ष दिखायी देनेपर भी भीष्मपितामहने शास्त्रके आज्ञानुसार कुशोंपर ही पिण्डदान किया (महाभारत अनुशासन0 84। 1520)। अतः साधकको सम्पूर्ण कर्म शास्त्रके आज्ञानुसार ही करने चाहिये।रागद्वेष मिटानेके इच्छुक साधकोंके लिये तो कर्म करनेमें शास्त्रप्रमाणकी आवश्यकता रहती है पर रागद्वेषसे सर्वथा रहित महापुरुषका अन्तःकरण इतना शुद्ध निर्मल होता है कि उसमें स्वतः वेदोंका तात्पर्य प्रकट हो जाता है चाहे वह पढ़ालिखा हो या न हो। उसके अन्तःकरणमें जो बात आती है वह शास्त्रानुकूल ही होती है (टिप्पणी प0 178)। रागद्वेषका सर्वथा अभाव होनेके कारण उस महापुरुषके द्वारा शास्त्रनिषिद्ध क्रियाएँ कभी होती ही नहीं। उसका स्वभाव स्वतः शास्त्रके अनुसार बन जाता है। यही कारण है कि ऐसे महापुरुषके आचरण और वचन दूसरे मनुष्योंके लिये आदर्श होते हैं (गीता 3। 21)। अतः उस महापुरुषके आचरणों और वचनोंका अनुसरण करनेसे साधकके रागद्वेष भी मिट जाते हैं।कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि रागद्वेष अन्तःकरणके धर्म हैं अतः इनको मिटाया नहीं जा सकता। पर यह बात युक्तिसंगत नहीं दीखती। वास्तवमें रागद्वेष अन्तःकरणके आगन्तुक विकार हैं धर्म नहीं। यदि ये अन्तःकरणके धर्म होते तो जिस समय अन्तःकरण जाग्रत् रहता है उस समय रागद्वेष भी रहते अर्थात् इनकी सदा ही प्रतीति होती। परन्तु इनकी प्रतीति सदा न होकर कभीकभी ही होती है। साधन करनेपर रागद्वेष उत्तरोत्तर कम होते हैं यह साधकोंका अनुभव है। कम होनेवाली वस्तु मिटनेवाली होती है। इससे भी सिद्ध होता है कि रागद्वेष अन्तःकरणके धर्म नहीं हैं। भगवान्ने रागद्वेषकोमनोगत कहा है कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान् (गीता 2। 55) अर्थात् ये मनमें आनेवाले हैं सदा रहनेवाले नहीं। इसके अतिरिक्त भगवान्ने रागद्वेषको विकार कहा है (गीता 13। 6) और प्रियअप्रियकी प्राप्तिमें चित्तके सदा सम रहनेको साधन कहा है (गीता 13। 9)। यदि रागद्वेष अन्तःकरणके धर्म होते तो यह समचित्ततारूप साधन बन ही नहीं सकता। धर्म स्थायी रहता है और विकार अस्थायी अर्थात् आनेजानेवाले होते हैं। रागद्वेष अन्तःकरणमें आनेजानेवाले हैं अतः इनको मिटाया जा सकता है।प्रकृति (जड) और पुरुष (चेतन) दोनों भिन्नभिन्न हैं। इन दोनोंका विवेक स्वतःसिद्ध है। पुरुष इस विवेकको महत्त्व न देकर प्रकृतिजन्य शरीरसे एकता कर लेता है और अपनेको एकदेशीय मान लेता है। यह जडचेतनका तादात्म्य ही अहम् (मैं) कहलाता है और इसीमें रागद्वेष रहते हैं। तात्पर्य यह है कि अहंता(मैंपन) में रागद्वेष रहते हैं और रागद्वेषसे अहंता पुष्ट होती है। यही रागद्वेष बुद्धिमें प्रतीत होते हैं जिससे बुद्धिमें सिद्धान्त आदिको लेकर अपनी मान्यता प्रिय और दूसरोंकी मान्यता अप्रिय लगती है। फिर ये रागद्वेष मनमें प्रतीत होते हैं जिससे मनके अनुकूल बातें प्रिय और प्रतिकूल बातें अप्रिय लगती हैं। फिर यही रागद्वेष इन्द्रियोंमें प्रतीत होते हैं जिससे इन्द्रियोंके अनुकूल विषय प्रिय और प्रतिकूल विषय अप्रिय लगते हैं। यही रागद्वेष इन्द्रियोंके विषयों(शब्द स्पर्श रूप रस और गन्ध) में अपनी अनुकूल और प्रतिकूल भावनाको लेकर प्रतीत होते हैं। अतः जडचेतनकी ग्रन्थिरूप अहंता(मैंपन) के मिटनेपर रागद्वेषका सर्वथा अभाव हो जाता है क्योंकि अहंतापर ही रागद्वेष टिके हुए हैं।मैं सेवक हूँ मैं जिज्ञासु हूँ मैं भक्त हूँ ये सेवक जिज्ञासु और भक्त जिस मैं में रहते हैं उसी मैं में रागद्वेष भी रहते हैं। रागद्वेष न तो केवल जडमें रहते हैं और न केवल चेतनमें ही रहते हैं प्रत्युत जडचेतनके माने हुए सम्बन्धमें रहते हैं। जडचेतनके माने हुए सम्बन्धमें रहते हुए भी ये रागद्वेष प्रधानतः जडमें रहते हैं। जडचेतनके तादात्म्यमें जडका आकर्षण जडअंशमें ही होता है पर तादात्म्यके कारण वह चेतनमें दीखता है। जडका आकर्षण ही राग है। अतः जब साधक शरीर(जड) को ही अपना स्वरूप मान लेता है तब उसे रागद्वेषको मिटानेमें कठिनाई प्रतीत होती है। परन्तु अपने चेतनस्वरूपकी ओर दृष्टि रहनेसे उसे रागद्वेषको मिटानेमें कठिनाई प्रतीत नहीं होती। कारण कि रागद्वेष स्वतःसिद्ध नहीं हैं प्रत्युत जड(असत्) के सम्बन्धसे उत्पन्न होनेवाले हैं।यदि सत्सङ्ग भजन ध्यान आदिमें राग होगा तो संसारसे द्वेष होगा परन्तु प्रेम होनेपर संसारसे द्वेष नहीं होगा प्रत्युत संसारकी उपेक्षा (विमुखता) होगी (टिप्पणी प0 179)। संसारके किसी एक विषयमें राग होनेसे दूसरे विषयमें द्वेष होता है पर भगवान्में प्रेम होनेसे संसारसे वैराग्य होता है। वैराग्य होनेपर संसारसे सुख लेनेकी भावना समाप्त हो जाती है और संसारकी स्वतः सेवा होती है। इससे शरीर इन्द्रियाँ मन औरबुद्धिके साथ अहम् भी स्वतः संसारकी सेवामें लग जाता है। परिणामस्वरूप शरीरादिके साथसाथ अहम् से भी सम्बन्धविच्छेद होनेपर उसमें रहनेवाले रागद्वेष सर्वथा नष्ट हो जाते हैं।मनुष्यकी क्रियाएँ स्वभाव अथवा सिद्धान्तको लेकर होती हैं। केवल आध्यात्मिक उन्नतिके लिये कर्म करना सिद्धान्तको लेकर कर्म करना है। स्वभाव दो प्रकारका होता है रागद्वेषरहित (शुद्ध) और रागद्वेषयुक्त (अशुद्ध)। स्वभावको मिटा तो नहीं सकते पर उसे शुद्ध अर्थात् रागद्वेषरहित अवश्य बना सकते हैं। जैसे गङ्गा गङ्गोत्रीसे निकलती है गङ्गोत्री जितनी ऊँचाईपर है अगर उतना अथवा उससे अधिक ऊँचा बाँध बनाया जाय तो गङ्गाके प्रवाहको रोका जा सकता है। परन्तु ऐसा करना सरल कार्य नहीं है। हाँ गङ्गामें नहरें निकालकर उसके प्रवाहको बदला जा सकता है। इसी प्रकार स्वाभाविक कर्मोंके प्रवाहको मिटा तो नहीं सकते पर उसको बदल सकते हैं अर्थात् उसको रागद्वेषरहित बना सकते हैं यह गीताका मार्मिक सिद्धान्त है। रागद्वेषको लेकर जो क्रियाएँ होती हैं उनमें प्रवृत्ति और निवृत्ति उतनी बाधक नहीं है जितने कि रागद्वेष बाधक हैं। इसीलिये भगवान्ने रागद्वेषका त्याग करनेवालेको ही सच्चा त्यागी कहा है (गीता 18। 10)। रागद्वेषकी ओर प्रायः साधकका ध्यान नहीं जाता इसलिये उसकी प्रवृत्ति और निवृत्ति रागद्वेषपूर्वक होती है। अतः रागद्वेषसे रहित होनेके लिये साधकको सिद्धान्त सामने रखकर ही समस्त क्रियाएँ करनी चाहिये। फिर उसका स्वभाव स्वतः सिद्धान्तके अनुरूप और शुद्ध बन जायगा।रागद्वेषयुक्त स्फुरणाके उत्पन्न होनेपर उसके अनुसार कर्म करनेसे रागद्वेष पुष्ट होते हैं और उसके अनुसार कर्म न करके सिद्धान्तके अनुसार कर्म करनेसे रागद्वेष मिट जाते हैं।मनकी शुभ और अशुभ स्फुरणाओंमें रागद्वेष नहीं होने चाहिये। साधकको चाहिये कि वह मनमें होनेवाली स्फुरणाओंको स्वयंमें न मानकर उनसे किसी भी प्रकार सम्बन्ध न जोड़े उनका न समर्थन करे न विरोध करे।यदि साधक रागद्वेषको दूर करनेमें अपनेको असमर्थ पाता है तो उसे सर्वसमर्थ परम सुहृद् प्रभुकी शरणमें चले जाना चाहिये। फिर प्रभुकी कृपासे उसके रागद्वेष दूर हो जाते हैं (गीता 7। 14) और परमशान्तिकी प्राप्ति हो जाती है (गीता 18। 62)। माने हुए अहम्सहित शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि प्राण और सांसारिक पदार्थ सबकेसब भगवान्के ही हैं ऐसा मानना ही भगवान्के शरण होना है। फिर भगवान्की प्रसन्नताके लिये भगवान्की दी हुई सामग्रीसे भगवान्के ही जनोंकी केवल सेवा कर देनी है और बदलेमें अपने लिये कुछ नहीं चाहना है। बदलेमें कुछ भी चाहनेसे जडके साथ सम्बन्ध बना रहता है। निष्कामभावपूर्वक संसारकी सेवा करना रागद्वेषको मिटानेका अचूक उपाय है। अपने पास स्थूल सूक्ष्म और कारणशरीरसे लेकर माने हुए अहम् तक जो कुछ है उसे संसारकी ही सेवामें लगा देना है। कारण कि ये सब पदार्थ तत्त्वतः संसारसे अभिन्न हैं। इनको संसारसे भिन्न (अपना) मानना ही बन्धन है। स्थूलशरीरसे क्रियाओं और पदार्थोंका सुख सूक्ष्मशरीरसे चिन्तनका सुख और कारणशरीरसे स्थिरताका सुख नहीं लेना है। वास्तवमें मनुष्यशरीर अपने सुखके लिये है ही नहीं एहि तन कर फल बिषय न भाई। (मानस 7। 44। 1)दूसरी बात जिन शरीर इन्द्रियों मन बुद्धि पदार्थ आदिसे सेवा होती है वे सब संसारके ही अंश हैं। जब संसार ही अपना नहीं तो फिर उसका अंश अपना कैसे हो सकता है इन शरीरादि पदार्थोंको अपना माननेसे सच्ची सेवा हो ही नहीं सकती क्योंकि इससे ममता और स्वार्थभाव उत्पन्न हो जाता है। इसलिये इन पदार्थोंको उसीके मानने चाहिये जिसकी सेवा की जाय। जैसे भक्त पदार्थोंको भगवान्का ही मानकरभगवान्के अर्पण करता है त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये ऐसे ही कर्मयोगी पदार्थोंको संसारका ही मानकर संसारके अर्पण करता है।सेवासम्बन्धी मार्मिक बातसेवा वही कर सकता है जो अपने लिये कभी कुछ नहीं चाहता। सेवा करनेके लिये धनादि पदार्थोंकी चाह तो कामना है ही सेवा करनेकी चाह भी कामना ही है क्योंकि सेवाकी चाह होनेसे ही धनादि पदार्थोंकी कामना होती है। इसलिये अवसर प्राप्त हो और योग्यता हो तो सेवा कर देनी चाहिये पर सेवाकी कामना नहीं करना चाहिये।दूसरेको सुख पहुँचाकर सुखी होना मेरे द्वारा लोगोंको सुख मिलता है ऐसा भाव रखना सेवाके बदलेमें किञ्चित् भी मानबड़ाई चाहना और मानबड़ाई मिलनेपर राजी होना वास्तवमें भोग है सेवा नहीं। कारण कि ऐसा करनेसे सेवा सुखभोगमें परिणत हो जाती है अर्थात् सेवा अपने सुखके लिये हो जाते है। अगर सेवा करनेमें थोड़ा भी सुख लिया जाय तो वह सुख धनादि पदार्थोंमें महत्त्वबुद्धि पैदा कर देता है जिससे क्रमशः ममता और कामनाकी उत्पत्ति होती है।मैं किसीको कुछ देता हूँ ऐसा जिसका भाव है उसे यह बात समझमें नहीं आती तथा कोई उसे आसानीसे समझा भी नहीं सकता कि सेवामें लगनेवाले पदार्थ उसीके हैं जिसकी सेवा की जाती है। उसीकी वस्तु उसे ही दे दी तो फिर बदलेमें कुछ चाहनेका हमें अधिकार ही क्या है उसीकी धरोहर उसीको देनेमें एहसान कैसा अपने हाथोंसे अपना मुख धोनेपर बदलमें क्या हम कुछ चाहते हैं शङ्का सेवा तो धनादि वस्तुओंके द्वारा ही होती है। वस्तुओंके बिना सेवा कैसे हो सकती है अतः सेवा करनेके लिये भी वस्तुओंकी चाह न करनेसे क्या तात्पर्य है समाधान स्थूल वस्तुओंसे सेवा करना तो बहुत स्थूल बात है। वास्तवमें सेवा भाव है कर्म नहीं। कर्मसे बन्धन और सेवासे मुक्ति होती है। सेवाका भाव होनेसे अपने पास जो वस्तुएँ हैं वे स्वतः सेवामें लगती हैं। भाव होनेसे अपने पास जितनी वस्तुएँ हैं उन्हींसे पूर्ण सेवा हो जाती है इसलिये और वस्तुओंको चाहनेकी आवश्यकता ही नहीं है।वास्तविक सेवा वस्तुओंमें महत्त्वबुद्धि न रहनेसे ही हो सकती है। स्थूल वस्तुओंसे भी वही सेवा कर सकता है जिसकी वस्तुओंमें महत्त्वबुद्धि नहीं है। वस्तुओंमें महत्त्वबुद्धि रखते हुए सेवा करनेसे सेवाका अभिमान आ जाता है। जबतक अन्तःकरणमें वस्तुओंका महत्त्व रहता है तबतक सेवकमें भोगबुद्धि रहती ही है चाहे कोई जाने या न जाने।वास्तवमें सेवा भावसे होती है वस्तुओंसे नहीं। वस्तुओंसे कर्म होते हैं सेवा नहीं। अतः वस्तुओंको दे देना ही सेवा नहीं है। वस्तुएँ तो दूकानदार भी देता है पर साथमें लेनेका भाव रहनेसे उससे पुण्य नहीं होता। ऐसे ही प्रजा राजाको कररूपसे धन देती है पर वह दान नहीं होता। किसीको जल पिलानेपरमैंने उसे जल पिलाया तभी वह सुखी हुआ ऐसे भावका रहना दूकानदारी ही है। हम मानबड़ाई नहीं चाहते पर जल पिलानेसे पुण्य होगा अथवा दान करनेसे पुण्य होगा ऐसा भाव रहनेपर भी फलके साथ सम्बन्ध होनेके कारण अन्तःकरणमें जल धन आदि वस्तुओंका महत्त्व अङ्कित हो जाता है। वस्तुओंका महत्त्व अङ्कित होनेपर फिर वास्तविक सेवा नहीं होती प्रत्युत लेनेका भाव रहनेसे असत्के साथ सम्बन्ध बना रहता है चाहे जानें या न जानें। इसलिये वस्तुओंको दूसरोंकी सेवामें लगाकर दानपुण्य नहीं करना है प्रत्युत उन वस्तुओंसे अपना सम्बन्ध तोड़ना है।हमारे द्वारा वस्तु उसीको मिल सकती है जिसका उस वस्तुपर अधिकार है अर्थात् वास्तवमें जिसकी वह वस्तु है। उसे वस्तु देनेसे हमारा ऋण उतरता है। यदि दूसरेको किसी वस्तुकी हमसे अधिक आवश्यकता (भूख) है तो उस वस्तुका वही अधिकारी है। दूसरा अपने अधिकार(हक) की ही वस्तु लेता है। हमारे अधिकारकी वस्तु दूसरा ले ही नहीं सकता।एक बात खास ध्यान देनेकी है कि सच्चे हृदयसे दूसरोंकी सेवा करनेसे जिसकी वह सेवा करता है उस(सेव्य) के हृदयमें भी सेवाभाव जाग्रत् होता है यह नियम है। सच्चे हृदयसे सेवा करनेवाला पुरुष स्थूलदृष्टिसे तो पदार्थोंको सेव्यकी सेवामें लगाता है पर सूक्ष्मदृष्टिसे देखा जाय तो वह सेव्यके हृदयमेंसेवाभाव जाग्रत् करता है। यदि सेव्यके हृदयमें सेवाभाव जाग्रत् न हो तो साधकको समझ लेना चाहिये कि सेवा करनेमें कोई त्रुटि (अपने लिये कुछ पाने या लेनेकी इच्छा) है। अतः साधकको इस विषयमें विशेष सावधानी रखते हुए ही दूसरोंकी सेवा करना चाहिये और अपनी त्रुटियोंको खोजकर निकाल देना चाहिये। दूसरे मुझे अच्छा कहें ऐसा भाव सेवामें बिलकुल नहीं रखना चाहिये। ऐसा भाव आते ही उसे तुरंत मिटा देना चाहिये क्योंकि यह भाव अभिमान बढ़ानेवाला है।प्रत्येक साधकके लिये संसार केवल कर्तव्यपालनका क्षेत्र है सुखीदुःखी होनेका क्षेत्र नहीं। संसार सेवाके लिये है। संसारमें साधकको सेवाहीसेवा करनी है। सेवा करनेमें सबसे पहले साधकका यह भाव होना चाहिये कि मेरे द्वारा किसीका किञ्चिन्मात्र भी अहित न हो। संसारमें कुछ प्राणी दुःखी रहते हैं और कुछ प्राणी सुखी रहते हैं। दुःखी प्राणीको देखकर दुःखी हो जाना और सुखी प्राणीको देखकर सुखी हो जाना भी सेवा है क्योंकि इससे दुःखी और सुखी दोनों व्यक्तियोंको सुखका अनुभव होता है और उन्हें बल मिलता है कि हमारा भी कोई साथी है दूसरा दुःखी है तो उसके साथ हम भी हृदय से दुःखी हो जायँ कि उसका दुःख कैसे मिटे उससे प्रेमपूर्वक बात करें और सुनें। उससे कहें कि प्रतिकूल परिस्थिति आनेपर घबराना नहीं चाहिये ऐसी परिस्थिति तो भगवान् राम एवं राजा नल हरिश्चन्द्र आदि अनेक बड़ेबड़े पुरुषोंपर भी आयी है आजकल तो अनेक लोग तुम्हारेसे भी ज्यादा दुःखी हैं हमारे लायक कोई काम हो तो कहना आदि। ऐसी बातोंसे वह राजी हो जायगा। ऐसे ही सुखी व्यक्तिसे मिलकर हम भी हृदयसे सुखी हो जायँ कि बहुत अच्छा हुआ तो वह राजी हो जायगा। इस प्रकार हम दुःखी और सुखी दोनों व्यक्तियोंकी सेवा कर सकते हैं। दूसरेके दुःख और सुख दोनोंमें सहमत होकर हम दूसरोंको सुख पहुँचा सकते हैं। केवल दूसरोंके हितका भाव निरन्तर रहनेकी आवश्यकता है। जो दूसरोंके दुःखसे दुःखी और दूसरोंके सुखसे सुखी होते हैं वे सन्त होते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराजने संतोंके लक्षणोंमें कहा है पर दुख दुख सुख सुख देखे पर (मानस 7। 38। 1)यहाँ शङ्का होती है कि यदि हम दूसरोंके दुःखसे दुःखी होने लगें तो फिर हमारा दुःख कभी मिटेगा ही नहीं क्योंकि संसारमें दुःखी तो मिलते ही रहेंगे इसका समाधान यह है कि जैसे हमारे ऊपर कोई दुःख आनेसे हम उसे दूर करनेकी चेष्टा करते हैं ऐसे ही दूसरेको दुःखी देखकर अपनी शक्तिके अनुसार उसका दुःख दूर करनेकी चेष्टा होनी चाहिये। उसका दुःख दूर करनेकी सच्ची भावना होनी चाहिये। अतः दूसरेके दुःखसे दुःखी होनेका तात्पर्य उसके दुःखको दूर करनेका भाव तथा चेष्टा करनेमें है जिससे हमें प्रसन्नता ही होगी दुःख नहीं। दूसरेके दुःखसे दुःखी होनेपर हमारे पास शक्ति योग्यता पदार्थ आदि जो कुछ भी है वह सब स्वतः दूसरेका दुःख दूर करनेमें लग जायगा। दुःखी व्यक्तिको सुखी बना देना तो हमारे हाथकी बात नहीं है पर उसका दुःख दूर करनेके लिये अपनी सुखसामग्रीको उसकी सेवामें लगा देना हमारे हाथकी बात है। सुखसामग्रीके त्यागसे तत्काल शान्तिकी प्राप्ति होती है। सेवा करनेका अर्थ है सुख पहुँचाना। साधकका भाव मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् (किसीको किञ्चिन्मात्र भी दुःख न हो) होनेसे वह सभीको सुख पहुँचाता है अर्थात् सभीकी सेवा करता है। साधक भले ही सबको सुखीन कर सके पर वह ऐसा भाव तो बना ही सकता है। भाव बनानेमें सब स्वतन्त्र हैं कोई पराधीन नहीं। इसलिये सेवाकरनेमें धनादि पदार्थोंकी आवश्यकता नहीं है प्रत्युत सेवाभावकी ही आवश्यकता है। क्रियाएँ और पदार्थ चाहे जितने हों सीमित ही होते हैं। सीमित क्रियाओं और पदार्थोंसे सेवा भी सीमित ही होती है फिर सीमित सेवासे असीम तत्त्व(परमात्मा) की प्राप्ति कैसे हो सकती है परन्तु भाव असीम होता है। असीमभावसे सेवा भी असीम होती है और असीम सेवासे असीम तत्त्वकी प्राप्ति होती है। इसलिये सेवाभाववाले व्यक्तिकी क्रियाएँ और पदार्थ कम होनेपर भी उसकी सेवा कम नहीं समझनी चाहिये क्योंकि उसका भाव असीम होता है।यद्यपि साधकके कर्तव्यपालनका क्षेत्र सीमित ही होता है तथापि उसमें जिनजिनसे उसका व्यवहार होताहै उनमें वह सुखीको देखकर सुखी एवं दुःखीको देखकर दुःखी होता है। पदार्थ शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदिको जो अपना नहीं मानता वही दूसरोंके सुखमें सुखी एवं दुःखमें दुःखी हो सकता है। शरीर इन्द्रियाँ मन आदि अपने और अपने लिये हैं ही नहीं यह वास्तविकता है। देश काल वस्तु व्यक्ति योग्यता सामर्थ्य आदि कुछ भी व्यक्तिगत नहीं है। इन पदार्थोंमें भूलसे माने हुए अपनेपनका त्याग प्रत्येक मनुष्य कर सकता है चाहे वह दरिद्रसेदरिद्र हो अथवा धनीसेधनी पढ़ालिखा हो अथवा अनपढ़। इस त्यागमें सबकेसब स्वाधीन तथा समर्थ हैं।सच्चे सेवककी वृत्ति नाशवान् वस्तुओंपर जाती ही नहीं क्योंकि उसके अन्तःकरणमें वस्तुओंका महत्त्व नहीं होता। अन्तःकरणमें वस्तुओंका महत्त्व होनेपर ही वस्तुएँ व्यक्तिगत (अपनी) प्रतीत होती हैं। साधकको चाहिये कि वह पहलेसे ही ऐसा मान ले कि वस्तुएँ मेरी नहीं हैं और मेरे लिये भी नहीं हैं। वस्तुओंको अपनी और अपने लिये माननेसे भोग ही होता है सेवा नहीं। इस प्रकार वस्तुओंको अपनी और अपने लिये न मानकर सेव्यकी ही मानते हुए सेवामें लगा देनेसे रागद्वेष सुगमतापूर्वक मिट जाते हैं।तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ पारमार्थिक मार्गमें रागद्वेष ही साधककी साधनसम्पत्तिको लूटनेवाले मुख्य शत्रु हैं। परन्तु इस ओर प्रायः साधक ध्यान नहीं देता। यही कारण है कि साधन करनेपर भी साधककी जितनी आध्यात्मिक उन्नति होनी चाहिये उतनी होती नहीं। प्रायः साधकोंकी यह शिकायत रहती है कि मन नहीं लगता पर वास्तवमें मनका न लगना उतना बाधक नहीं है जितने बाधक रागद्वेष हैं। इसलिये साधक को चाहिये कि वह मनकी एकाग्रताको महत्त्व न दे और जहाँजहाँ रागद्वेष दिखायी दें वहाँवहाँसे उनको तत्काल हटा दे। रागद्वेष हटानेपर मन लगना भी सुगम हो जायगा।स्वाभाविक कर्मोंका त्याग करना तो हाथकी बात नहीं है पर उन कर्मोंको रागद्वेषपूर्वक करना या न करना बिलकुल हाथकी बात है। साधक जो कर सकता है वही करनेके लिये भगवान् आज्ञा देते हैं कि रागद्वेषयुक्त स्फुरणा उत्पन्न होनेपर भी उसके अनुसार कर्म मत करो क्योंकि वे दोनों ही पारमार्थिक मार्गके लुटेरे हैं। ऐसा करनेमें साधक स्वतन्त्र है। वास्तवमें रागद्वेष स्वतः नष्ट हो रहे हैं पर साधक उन रागद्वेषको अपनेमें मानकर उन्हें सत्ता दे देता है और उसके अनुसार कर्म करने लगता है। इसी कारण वे दूर नहीं होते। यदि साधक रागद्वेषको अपनेमें न मानकर उसके अनुसार कर्म न करे तो वे स्वतः नष्ट हो जायँगे। सम्बन्ध रागद्वेषके वशमें न होकर क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये इसका उत्तर भगवान् आगेके श्लोकमें देते हैं।
।।3.34।। पूर्व श्लोक में कहा गया था कि शास्त्राध्ययन करने वाला ज्ञानवान् पुरुष भी नैतिकता का उच्च जीवन जीने में अपने को असमर्थ पाता है क्योंकि उसकी कुछ निम्न स्तर की प्रवृत्तियाँ कभीकभी उससे अधिक शक्तिशाली सिद्ध होती हैं। सर्वत्र अनुपलब्ध औषधि का उपचार लिख देना रोग का निवारण करना नहीं कहलाता। दार्शनिक तत्त्ववेत्ता का यह कर्तव्य है कि वह केवल हमारे वर्तमान जीवन की दुर्बलताओं को ही नहीं दर्शाये बल्कि पूर्णत्व की स्थिति का ज्ञान कराकर उस साधन मार्ग को भी दिखाये जिससे हम दोषमुक्त होकर पूर्णस्वरूप में स्थित हो सकें। केवल ऐसा करके ही वह दार्शनिक तत्त्वविज्ञ पुरुष अपनी पीढ़ी को कृतार्थ कर सकता है।यह सत्य है कि प्रत्येक मनुष्य अपने स्वभावानुसार कार्य करता है परन्तु यह स्वभाव वह अपने कर्म एवं विचारों के द्वारा बनाता है और न कि किसी अन्य के कारण। अत यहाँ पुरुषार्थ के लिये अवसर है। उसी को यहाँ श्रीकृष्ण बता रहे हैं। प्रत्येक इन्द्रिय के विषय के प्रति प्रत्येक व्यक्ति के मन में राग अथवा द्वेष उत्पन्न होता है। शब्दस्पर्शादि इन्द्रियों के विषय स्वयं किसी भी प्रकार हमारे अन्तकरण में दुख या विक्षेप उत्पन्न नहीं कर सकते। विषयों के ग्रहण करके मन किसी के प्रति राग और किसी के प्रति द्वेष रखता है और मन के इन रागद्वेषों के कारण प्रिय या अप्रिय विषय के दर्शन अथवा प्राप्ति से मनुष्य को हर्ष या विषाद होता है। स्वयं रागद्वेष्ा को उत्पन्न करके मनुष्य का फिर प्रयत्न होता है प्रिय की प्राप्ति और अप्रिय का त्याग। विषयों के प्रति राग और द्वेष सदा परिवर्तित होते रहने के कारण वह सदा ही क्षुब्धचित्त बना रहता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये रागद्वेष ही लुटेरे हैं जो मन की शांति का हरण कर लेते हैं और जिनके कारण मनुष्य सच्चा जीवन नहीं जी पाता। वास्तव में यह दुख की बात है।वस्तुस्थिति को दर्शाकर भगवान् समस्त साधकों को उपदेश देते हैं कि मनुष्य को चाहिये कि वह इन दोनों के वश में न होवे।प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी भी रूप में बाह्य जगत् से पलायन करने का उपदेश गीता में कहीं पर भी नहीं मिलता। भगवान् का उपदेश तो यहाँ और अभी जीवन की उपलब्ध परिस्थितियों में शरीर मन और बुद्धि के माध्यम से सब अनुभवों को प्राप्त करते हुये जीने के लिये है। आग्रह केवल इस बात का है कि सभी परिस्थितियों में मनुष्य को मन आदि उपाधियों का स्वामी बनकर रहना चाहिये और न कि उनका दास बनकर। इस प्रकार के स्वामित्व को प्राप्त करने का उपाय राग और द्वेष से मुक्त हो जाना है।रागद्वेष से मुक्ति पाने के लिये मिथ्या अहंकार तथा तज्जनित अन्य प्रवृत्तियों को समाप्त करना चाहिये क्योंकि राग और द्वेष अहंकार से सम्बन्धित हैं। इसलिए अहंकाररहित कर्म करने पर वासनाओं का क्षय हो जाता है। वासनाओं से उत्पन्न होता है मन और वहीं पर अहंकार का खेल होता है। जैसेजैसे वासनायें क्षीण होती जाती हैं वैसेवैसे मन भी नष्ट हो जाता है। मन के नष्ट होने पर शुद्ध आत्मा का प्रतिबिम्ब रूप अहंकार भी नष्ट हो जाता है।भगवान् वासना क्षय का उपाय निम्न श्लोक में बताते हैं
3.34 Attraction and repulsion are ordained with regard to the objects of all the organs. One should not come under the sway of these two, because they are his adversaries.
3.34 Attachment and aversion for the objects of the senses abide in the senses; let none come under their sway; for, they are his foes.
3.34. [For a man of worldly life] there are likes and dislikes clearly fixed with regard to the objects of each of his sense organs. These are the obstacles for him. [The wise] would not come under the control of these.
3.34 इन्द्रियस्य इन्द्रियस्य of each sense? अर्थे in the object? रागद्वेषौ attachment and aversion? व्यवस्थितौ seated? तयोः of these two? न not? वशम् sway? आगच्छेत् should come under? तौ these two? हि verily? अस्य his? परिपन्थिनौ foes.Commentary Each sense has got attraction for a pleasant object and aversion for a disagreeable object. If one can control these two currents? viz.? attachment and aversion? he will not come under the sway of these two currents. Here lies the scope for personal exertion or Purushartha. Nature which contains the sum total of ones Samskaras or the latent selfproductive impressions of the past actions of merit and demerit draws a man to its course through the two currents? attachment and aversion. If one can control these two currents? if he can rise above the sway of love and hate through discrimination and Vichara or right eniry? he can coner Nature and attain immortality and eternal bliss. He willl no longer be subject to his own nature now. One should always exert to free himself from attachment and aversion to the objects of the senses.
3.34 Raga-dvesau, attraction and repulsion, in the following manner-attraction towards desirable things, and repulsion against undesirable things; (vyavasthitau, are ordained,) are sure to occur, arthe, with regard to objects such as sound etc.; indriyasya indriyasya, of all the organs, with regard to each of the organs. As to that, the scope of personal effort and scriptural purpose are being stated as follows: One who is engaged in the subject-matter of the scriptures should, in the very beginning, not come under the influence of love and hatred. For, that which is the nature of a person impels him to his actions, verily under the influence eof love and hatred. And then follow the rejection of ones own duty and the undertaking of somody elses duty. On the other hand, when a person controls love and hatred with the help of their opposites [Ignorance, the cause of love and hatred, has discrimination as its opposite.], then he becomes mindful only of the scriptural teachings; he ceases to be led by his nature. Therefore, na agacchet, one should not come; vasam, under the sway; tayoh, of these two, of love and hatred; hi because; tau, they; are asya, his, this persons pari-panthinau, adversaries, who, like robbers, put obstacles on his way to Liberation. This is the meaning. In this world, one impelled by love and hatred misinterprets even the teaching of the scriptures, and thinks that somody elses duty, too, has to be undertaken just because it is a duty! That is wrong:
3.34 See Comment under 3.35
3.34 An unavoidable attraction has been fixed for organs of sense like ear towards the objects like sound, and for organs of action like that of tongue towards their objects like tasty food. This longing is in the form of desire to experience these objects, which is caused by old subtle impressions. When their experience is thwarted, an unavoidable aversion is experienced. Thus, these two, attachment and aversion, bring under their control one who aspires to follow Jnana Yoga, and forcibly engage him in actions appropriate to them, in spite of his having established some sort of control over the senses. Such an aspirant fails to get the experience of the self, and therefore becomes completely lost. So no one practising Jnana Yoga should come under the sway of attachment and aversion, which are ruinous. These two, attachment and aversion, are indeed his unconerable foes that deter him from the practice of Jnana Yoga.
Since the rules and restrictions of scripture do not have effect upon those of evil nature, one should limit the senses, as much as one is not under the influence of sinful nature arising from past sinful habits. That is described in this verse. The word indriya is repeated to indicate each of the sense objects of each of the senses. Attachment (raga) for what is forbidden by scripture, such as giving gifts to other’s wives, or seeing or touching their bodies; or repulsion (dvesa) for what is prescribed by scripture, such as distributing gifts to, serving, seeing and touching the guru, the brahmana, the holy places and visitors, are firmly fixed (visesena avastithau) in all the sense objects (form, smell, taste, touch and sound). One should not be under the control (vasam) of attachment and repulsion. Another meaning is this. Attachment means seeing a woman (object of the eye) and hatred for those that obstruct that enjoyment. Therefore, the mind is attracted to what helps one attain one’s goals. The mind is attracted to tasty, tender rice as it is favorable for one’s goals, and the mind has dislike of tasteless hard rice, as it is against one’s goals. One has attachment to hearing and seeing one’s own sons, but dislikes seeing or hearing the sons of one’s enemies. One should not fall under the control of such attachment and repulsion.
If a persons inclination is dependent solely on their nature influenced by the three gunas or the modes of goodness, passion and nescience within prakriti or material nature then the question may arise what is the need for the injunctions and prohibitions in the Vedic scriptures? What Lord Krishna is emphasising here is that the attraction and aversion for each of the senses towards various sense objects is already established and fixed. This is why the word indriyasya is repeated twice to affirm this. Hence in accordance to this fixed relationship there is the inclination. Yet the Vedic scriptures declare that a person should not be influenced by dualities like attraction and aversion, agreeable and disagreeable because they are obstacles on the path of one seeking moksa or liberation. By stimulating attraction and aversion from the remembrance of various sense objects, prakriti forcibly engages an unwary person in sense gratification, like being dragged into a deep current. But the Vedic scriptures instruct one to offer all actions in yagna or worship to the Supreme Lord which will neutralise the dualities of attraction and aversion for sense objects and absolve one from all reactions. Exactly like a person safely taking refuge in a boat before entering a deep current.
The senses are constantly being motivated by the force of attraction and aversion. Although Lord Krishna is emphasising the effect of restraining the senses is known to be temporary only still by His mentioning it opens the possibility that restraint may have an influence in dampening desires if engaged in regularly with determination and it might develop a lasting effect. Of course samskaras or past life impressions have a deep rooted influence on all living entities even in the case of Brahma and others but there is still the possibility to modify the situation by practising restraint of the senses in a regulated manner.
Lord Krishna confirms that a person who embarks upon the path of jnana yoga or the cultivation of Vedic wisdom should never fall again under the influence of dualities as they work against one and undermines all one efforts. The dualities of love and hate, attraction and aversion are a persons most invincible enemies and they completely frustrate all ones attempts for success and higher understanding.
Lord Krishna confirms that a person who embarks upon the path of jnana yoga or the cultivation of Vedic wisdom should never fall again under the influence of dualities as they work against one and undermines all one efforts. The dualities of love and hate, attraction and aversion are a persons most invincible enemies and they completely frustrate all ones attempts for success and higher understanding.
Indriyasyendriyasyaarthe raagadweshau vyavasthitau; Tayor na vasham aagacchet tau hyasya paripanthinau.
indriyasya—of the senses; indriyasya arthe—in the sense objects; rāga—attachment; dveṣhau—aversion; vyavasthitau—situated; tayoḥ—of them; na—never; vaśham—be controlled; āgachchhet—should become; tau—those; hi—certainly; asya—for him; paripanthinau—foes