श्री भगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।।3.37।।
।।3.37।। श्रीभगवान् ने कहा रजोगुण में उत्पन्न हुई यह कामना है यही क्रोध है यह महाशना (जिसकी भूख बड़ी हो) और महापापी है इसे ही तुम यहाँ (इस जगत् में) शत्रु जानो।।
।।3.37।। यह काम यह क्रोध काम अर्थात् इच्छा ही मनुष्य के ह्रदय में स्थित राक्षस है। आत्म अज्ञान ही बुद्धि में इच्छा रूप में व्यक्त होता है। इस श्लोक में काम और क्रोध इन दोनों को भिन्न नहीं समझना चाहिये। किसी परिस्थिति विशेष में काम ही क्रोध का रूप ले लेता है। मन का वह विक्षेप जो किसी वस्तु को प्राप्त करने की अत्यन्त अधीरता के रूप में व्यक्त होता है काम कहलाता है। सामान्यत इच्छा अपने से भिन्न किसी अप्राप्त वस्तु के लिये ही होती हैं। जगत् में असंख्य व्यक्तियों और परिस्थितियों के मध्य सदैव इच्छा का पूर्ण होना सम्भव नहीं होता और इस प्रकार हमारे और इच्छित वस्तु के बीच कोई विघ्न आता है तो प्रतिहत इच्छा ही क्रोध का रूप ले लेती है।इस प्रकार काम अथवा क्रोध ही वह राक्षस है जो हमें परिस्थितियों के साथ समझौता करने को विवश कर देता है। आदर्शों को भुलाकर हमें पापाचरण में प्रवृत्त करता है। हमारी निम्न कोटि की इच्छायें जितनी प्रबल होगी उतना ही पापपूर्णं हमारा जीवन होगा। कामनाएं हमारे विवेक को आच्छादित कर देती हैं। काम के उत्पन्न होने पर उससे ही असंख्य प्रकार की दुखदायक वृत्तियां उत्पन्न होती हैं। इन सब के वश में होना अज्ञान और उनके ऊपर शासन करना ज्ञान है।अब भगवान् दृष्टांतों के द्वारा समझाते हैं कि किस प्रकार हमारा शत्रु यह काम हमारे विवेक को आच्छादित करता है