न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।3.4।।
।।3.4।।मनुष्य न तो कर्मोंका आरम्भ किये बिना निष्कर्मताको प्राप्त होता है और न कर्मोंके त्यागमात्रसे सिद्धिको ही प्राप्त होता है।
।।3.4।। कर्मों के न करने से मनुष्य नैर्ष्कम्य को प्राप्त नहीं होता और न कर्मों के संन्यास से ही वह सिद्धि (पूर्णत्व) प्राप्त करता है।।
।।3.4।। व्याख्या न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते कर्मयोगमें कर्म करना अत्यन्त आवश्यक है। कारण कि निष्कामभावसे कर्म करनेपर ही कर्मयोगकी सिद्धि होती है (टिप्पणी प0 117)। यह सिद्धि मनुष्यको कर्म किये बिना नहीं मिल सकती।मनुष्यके अन्तःकरणमें कर्म करनेका जो वेग विद्यमान रहता है उसे शान्त करनेके लिये कामनाका त्याग करके कर्तव्यकर्म करना आवश्यक है। कामना रखकर कर्म करनेपर यह वेग मिटता नहीं प्रत्युत बढ़ता है।नैष्कर्म्यम् अश्नुते पदोंका आशय है कि कर्मयोगका आचरण करनेवाला मनुष्य कर्मोंको करते हुए ही निष्कर्मताको प्राप्त होता है। जिस स्थितिमें मनुष्यके कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् बन्धनकारक नहीं होते उस स्थितिकोनिष्कर्मता कहते हैं।कामनासे रहित होकर किये गये कर्मोंमें फल देनेकी शक्तिका उसी प्रकार सर्वथा अभाव हो जाता है जिस प्रकार बीजको भूनने या उबालनेपर उसमें पुनः अंकुर देनेकी शक्ति सर्वथा नष्ट हो जाती है। अतः निष्काम मनुष्यके कर्मोंमें पुनः जन्ममरणके चक्रमें घुमानेकी शक्ति नहीं रहती।कामनाका त्याग तभी हो सकता है जब सभी कर्म दूसरोंकी सेवाके लिये किये जायँ अपने लिये नहीं। कारण कि कर्ममात्रका सम्बन्ध संसारसे है और अपना (स्वरूपका) सम्बन्ध परमात्मासे है। अपने साथ कर्मका सम्बन्ध है ही नहीं। इसलिये जबतक अपने लिये कर्म करेंगे तबतक कामनाका त्याग नहीं होगा और जबतक कामनाका त्याग नहीं होगा तबतक निष्कर्मताकी प्राप्ति नहीं होगी।न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति इस श्लोकके पूर्वार्धमें भगवान्ने कर्मयोगकी दृष्टिसे कहा कि कर्मोंका आरम्भ किये बिना कर्मयोगीको निष्कर्मताकी प्राप्ति नहीं होती। अब श्लोकके उत्तरार्धमें सांख्ययोगकी दृष्टिसे कहते हैं कि केवल कर्मोंका स्वरूपसे त्याग कर देनेसे सांख्ययोगीको सिद्धि अर्थात् निष्कर्मताकी प्राप्ति नहीं होती। सिद्धिकी प्राप्ति के लिये उसे कर्तापन(अहंता) का त्याग करना आवश्यक है। अतः सांख्ययोगीके लिये कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करना मुख्य नहीं है प्रत्युत अहंताका त्याग ही मुख्य है।सांख्ययोगमें कर्म किये भी जा सकते हैं औ किसी सीमातक कर्मोंका त्याग भी किया जा सकता है परन्तु कर्मयोगमें सिद्धिप्राप्तिके लिये कर्म करना आवश्यक होता है (गीता 6। 3)।मार्मिक बातश्रीमद्भगवद्गीता मनुष्यको व्यवहारमें परमार्थसिद्धिकी कला सिखाती है। उसका आशय कर्तव्यकर्म करानेमें है छुड़ानेमें नहीं। इसलिये भगवान् कर्मयोग और ज्ञानयोग दोनों ही साधनोंमें कर्म करनेकी बात कहते हैं।यह एक स्वाभाविक बात है कि जब साधक अपना कल्याण चाहता है तब वह सांसारिक कर्मोंसे उकताने लगता है और उन्हें छोड़ना चाहता है। इसी कारण अर्जुन भी कर्मोंसे उकताकर भगवान्से पूछते हैं कि जब कर्मयोग और ज्ञानयोग दोनों प्रकारके साधनोंका तात्पर्य समतासे है तो फिर कर्म करनेकी बात आप क्यों कहते हैं मुझे युद्धजैसे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं परन्तु भगवान्ने दोनों ही प्रकारके साधनोंमें अर्जुनको कर्म करनेकी आज्ञा दी है जैसे कर्मयोगमें योगस्थः कुरु कर्माणि (गीता 2। 48) और सांख्ययोगमें तस्माद्युध्यस्व भारत (गीता 2। 18)। इससे सिद्ध होता है कि भगवान्का अभिप्राय कर्मोंको स्वरूपसे छुड़ानेमें नहीं प्रत्युत कर्म करानेमें है। हाँ भगवान् कर्मोंमें जो जहरीला अंश कामना ममता और आसक्ति है उसका त्याग करके ही कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं।कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेकी अपेक्षा साधकको उनसे अपना सम्बन्धविच्छेद करना चाहिये। कर्मयोगी निःस्वार्थभावसे कर्म करते हुए शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि पदार्थ आदिको संसारकी वस्तु मानकर संसारकी सेवामें लगाता है और कर्मों तथा पदार्थोंके साथ अपना कोई सम्बन्ध नहीं मानता (गीता 5। 11)। ज्ञानयोगमें सत्असत्के विवेककी प्रधानता रहती है। अतएव ज्ञानयोगी ऐसा मानता है कि गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं अर्थात् शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदिसे ही कर्म हो रहे हैं। मेरा कर्मोंके साथ किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है (गीता 3। 28 5। 89)।प्रायः सभी साधकोंके अनुभवकी बात है कि कल्याणकी उत्कट अभिलाषा जाग्रत् होते ही कर्म पदार्थ और व्यक्ति(परिवार) से उनकी अरुचि होने लगती है। परन्तु वास्तवमें देहके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होनेसे यह आरामविश्रामकी इच्छा ही है जो साधककी उन्नतिमें बाधक है। साधकोंके मनमें ऐसा भाव रहता कि कर्म पदार्थ और व्यक्तिका स्वरूपसे त्याग करनेपर ही हम परमार्थमार्गमें आगे बढ़ सकते हैं। परन्तु वास्तवमें इनका स्वरूपसे त्याग न करके इनमें आसक्तिका त्याग करना ही आवश्यक है। सांख्ययोगमें उत्कट वैराग्यके बिना आसाक्तिका त्याग करना कठिन होता है। परन्तु कर्मयोगमें वैराग्यकी कमी होनेपर भी केवल दूसरोंके लिये कर्म करनेसे आसक्तिका त्याग सुगमतापूर्वक हो जाता है।गीताने एकान्तमें रहकर साधन करनेका भी आदर किया है परन्तु एकान्तमें सात्त्विक पुरुष तो साधनभजनमें अपना समय बिताता है पर राजस पुरुष संकल्पविकल्पमें तामस पुरुष निद्राआलस्यप्रमादमें अपना समय बिताता है जो पतन करनेवाला है। इसलिये साधककी रुचि तो एकान्तकी ही रहनी चाहिये अर्थात् सांसारिक कर्मोंका त्याग करके पारमार्थिक कार्य करनेमें ही उसकी प्रवृत्ति रहनी चाहिये परन्तु कर्तव्यरूपसे जो कर्म सामने आ जाय उसको वह तत्परतापूर्वक करे। उस कर्ममें उसका राग नहीं होना चाहिये। राग न तो जनसमुदायमें होना चाहिये और न अकर्मण्यतामें ही। कहीं भी राग न रहनेसे साधका बहुत जल्दी कल्याण हो जाता है। वास्तवमें शरीरको एकान्तमें ले जानेको ही एकान्त मान लेना भूल है क्योंकि शरीर संसारका ही एक अंश है। अतः शरीरसे सम्बन्धविच्छेद होना अर्थात् उसमें अहंताममता न रहना ही वास्तविक एकान्त है।
।।3.4।। अपने आत्मस्वरूप की दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति परिपूर्ण है। इस पूर्णत्व के अज्ञान के कारण हमारी बुद्धि में अनेक इच्छायें सुख को पाने के लिये उत्पन्न होती हैं। यह सब जानते हैं कि हम केवल उन्हीं वस्तुओं की इच्छा करते हैं जो पहले से हमारे पास पूर्ण रूप में अथवा पर्याप्त मात्रा में नहीं होतीं। जैसी इच्छायें वैसी ही विचार वृत्तियाँ मन में उठती हैं। मन में उठने वाली ये वृत्तियाँ विक्षेप कहलाती हैं। प्रत्येक क्षण इन वृत्तियों के गुणधर्म इच्छाओं के अनुरूप ही होते हैं। ये विचार ही शरीर के स्तर पर बाह्य जगत् में मनुष्य के कर्म के रूप में व्यक्त होते हैं। इस प्रकार अविद्या जनित इच्छा विक्षेप और कर्म की श्रृंंखला में हम बँधे पड़े हुए हैं।इस पर और अधिक गहराई से विचार करने पर ज्ञात होगा कि वास्तव में यह सब भिन्नभिन्न न होकर एक आत्म अज्ञान के ही अनेक रूप हैं। यह अज्ञान बुद्धि मन और शरीर के स्तर पर क्रमश इच्छा विचार और कर्म के रूप में व्यक्त होता है। अत स्वाभाविक है कि यदि परम तत्त्व की परिभाषा अज्ञान के परे का अनुभव है तो यह भी सत्य है कि इच्छा शून्य या विचार शून्य या कर्म शून्य स्थिति ही आत्मस्वरूप है। कर्मशून्यत्व को यहाँ नैर्ष्कम्य कहा है।इस प्रकार विचार करने से ज्ञात होता है कि नैर्ष्कम्य का वास्तविक अर्थ पूर्णत्व है। अत भगवान् कहते हैं कि कर्मों के संन्यास मात्र से नैर्ष्कम्य सिद्धि नहीं मिलती। जीवनसंघर्षों से पलायन व्यक्ति के विकास के सर्वोच्च लक्ष्य की प्राप्ति का मार्ग नहीं है। अर्जुन का विचार रणभूमि से पलायन करने का था और इसीलिए उसे वैदिक संस्कृति के सम्यक् ज्ञान की पुन शिक्षा देना आवश्यक था। भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा दिव्य गीतोपदेश का यही प्रयोजन भी था।कर्मयोग से अन्तकरण शुद्धि और तत्पश्चात् ज्ञानयोग से आत्मानुभूति संक्षेप में यह है आत्मविकास की साधना जिसका संकेत इस श्लोक में किया गया है। इसलिए हिन्दू धर्म पर लिखने वाले सभी महान् लेखक इस श्लोक को प्राय उद्धृत करते हैं।ज्ञान के बिना केवल कर्मसंन्यास से ही नैर्ष्कम्य अथवा पूर्णत्व क्यों नहीं प्राप्त होता कारण यह है कि