तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।3.41।।
।।3.41।। इसलिये हे अर्जुन तुम पहले इन्द्रियों को वश में करके ज्ञान और विज्ञान के नाशक इस कामरूप पापी को नष्ट करो।।
।।3.41।। जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है श्रीकृष्ण बिना पर्याप्त तर्क दिये किसी सत्य का प्रतिपादन मात्र नहीं करते। अब वे यहाँ भी युक्तियुक्त विवेचन के पश्चात् इन्द्रियों को वश में करने का उपदेश देते हैं जिसके सम्पादन से अन्तकरण में स्थित कामना को नष्ट किया जा सकता है।इच्छा को यहाँ पापी कहने का कारण यह है कि वह अपने स्थूल रूप में हमें अत्यन्त निम्न स्तर के जीवन को जीने के लिए विवश कर देती है। धुएँ के समान सात्त्विक इच्छा होने पर भी हमारा शुद्ध अनन्तस्वरूप पूर्णरूप से प्रगट नहीं हो पाता। अत सभी प्रकार की इच्छाएँ कमअधिक मात्रा में पापयुक्त ही कही गयी हैं।चिकित्सक को किसी रोगी के लिए औषधि लिख देना सरल है परन्तु यदि वह औषधि आकाशपुष्प से बनायी जाती हो तो रोगी कभी स्वस्थ नहीं हो सकता इसी प्रकार गुरु का शिष्य को इन्द्रिय संयम का उपदेश देना तो सरल है परन्तु जब तक वे उसका कोई साधन नहीं बताते तब तक उनका उपदेश आकाश पुष्प से बनी औषधि के समान ही असम्भव समझा जायेगा।हम किस वस्तु का आश्रय लेकर इस इच्छा का त्याग करें इस प्रश्न का उत्तर है