एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।3.43।।
।।3.43।। इस प्रकार बुद्धि से परे (शुद्ध) आत्मा को जानकर आत्मा (बुद्धि) के द्वारा आत्मा (मन) को वश में करके हे महाबाहो तुम इस दुर्जेय (दुरासदम्) कामरूप शत्रु को मारो।।
।।3.43।। इस श्लोक के साथ न केवल यह अध्याय समाप्त होता है किन्तु अर्जुन द्वारा मांगी गयी निश्चित सलाह भी इसमें दी गई है। आत्मानुभव रूप ज्ञान के द्वारा ही हम आत्मअज्ञान को नष्ट कर सकते हैं। अज्ञान का ही परिणाम है इच्छा जिसके निवास स्थान हैं इन्द्रियाँ मन और बुद्धि। ध्यान के अभ्यास से जब हम अपना ध्यान बाह्य विषय शरीर मन और बुद्धि से विलग करके स्वस्वरूप में स्थिर करते हैं तब इच्छा की जननी बुद्धि ही समाप्त हो जाती है।शरीर मन आदि उपाधियों के साथ जब तक हमारा तादात्म्य बना रहता है तब तक हम अपने शुद्ध दिव्य स्वरूप को पहचान ही नहीं पाते। इतना ही नहीं बल्कि सदैव दुखी बद्ध परिच्छिन्न अहंकार को ही अपना स्वरूप समझते हैं। स्वस्वरूप के वैभव का साक्षात् अनुभव कर लेने पर हम अपने मन को पूर्णतया वश में रख सकेंगे। गौतम बुद्ध के समान ज्ञानी पुरुष का मन किसी भी प्रकार उसके अन्तकरण में क्षोभ उत्पन्न नहीं कर सकता क्योंकि वह मन ज्ञानी पुरुष के पूर्ण नियन्त्रण में रहता है।यहाँ ध्यान देने की बात है कि गीता में प्रतिपादित तत्त्वज्ञान जीवन की विधेयात्मक संरचना करने की शिक्षा देता है न कि जीवन की सम्भावनाओं की उपेक्षा अथवा उनका नाश। कामना एक पीड़ादायक घाव है जिसको ठीक करने के लिए ज्ञानरूपी लेप का उपचार यहाँ बताया गया है। इस ज्ञान के उपयोग से सभी अन्तरबाह्य परिस्थितियों के स्वामी बनकर हम रह सकते हैं। जो इस लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है वही साधक ईश्वरीय पुरुष ऋषि या पैगम्बर कहलाता हैconclusionँ़ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगाशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुन संवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णर्जुन संवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रस्वरूप श्रीभगवद्गीतोपनिषद् का कर्मयोग नामक तीसरा अध्याय समाप्त होता है।इस अध्याय का नाम है कर्मयोग। योग शब्द का अर्थ है आत्मविकास की साधना द्वारा अपर निकृष्ट वस्तु को पर और उत्कृष्ट वस्तु के साथ संयुक्त करना। जिस किसी साधना के द्वारा यह लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है उसे ही योग कहते हैं।