कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।3.6।।
।।3.6।।जो कर्मेन्द्रियों(सम्पूर्ण इन्द्रियों) को हठपूर्वक रोककर मनसे इन्द्रियोंके विषयोंका चिन्तन करता रहता है वह मूढ़ बुद्धिवाला मनुष्य मिथ्याचारी (मिथ्या आचरण करनेवाला) कहा जाता है।
।।3.6।। जो मूढ बुद्धि पुरुष कर्मेन्द्रियों का निग्रह कर इन्द्रियों के भोगों का मन से स्मरण (चिन्तन) करता रहता है वह मिथ्याचारी (दम्भी) कहा जाता है।।
3.6।। व्याख्या कर्मेन्द्रियाणि संयम्य ৷৷. मिथ्याचारः स उच्यते यहाँ कर्मेन्द्रियाणि पदका अभिप्राय पाँच कर्मेन्द्रियों (वाक् हस्त पाद उपस्थ और गुदा) से ही नहीं है प्रत्युत इनके साथ पाँच ज्ञानेन्द्रियों (श्रोत्र त्वचा नेत्र रसना और घ्राण) से भी है क्योंकि ज्ञानेन्द्रियोंके बिना केवल कर्मेन्द्रियोंसे कर्म नहीं हो सकते। इसके सिवाय केवल हाथ पैर आदि कर्मेन्द्रियोंको रोकनेसे तथा आँख कान आदि ज्ञानेन्द्रियोंको न रोकनेसे पूरा मिथ्याचार भी सिद्ध नहीं होता।गीतामें कर्मेन्द्रियोंके अन्तर्गत ही ज्ञानेन्द्रियाँ मानी गयी हैं। इसलिये गीतामें कर्मेन्द्रिय शब्द तो आता है पर ज्ञानेन्द्रिय शब्द कहीं नहीं आता। पाँचवें अध्यायके आठवेंनवें श्लोकोंमें देखना सुनना स्पर्श करना आदि ज्ञानेन्द्रियोंकी क्रियाओंको भी कर्मेन्द्रियोंकी क्रियाओंके साथ सम्मिलित किया गया है जिससे सिद्ध होता है कि गीता ज्ञानेन्द्रियोंको भी कर्मेन्द्रियाँ ही मानती है। गीता मनकी क्रियाओंको भी कर्म मानती है शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः (18। 15)। तात्पर्य यह है कि मात्र प्रकृति क्रियाशील होनेसे प्रकृतिका कार्यमात्र क्रियाशील है।यद्यपि संयम्य पदका अर्थ होता है इन्द्रियोंका अच्छी तरहसे नियमन अर्थात् उन्हें वशमें करना तथापि यहाँ इस पदका अर्थ इन्द्रियोंको वशमें करना न होकर उन्हें हठपूर्वक बाहरसे रोकना ही है। कारण कि इन्द्रियोंके वशमें होनेपर उसे मिथ्याचार कहना नहीं बनता।मूढ़ बुद्धिवाला (सत्असत्के विवेकसे रहित) मनुष्य बाहरसे तो इन्द्रियोंकी क्रियाओंको हठपूर्वक रोक देता है पर मनसे उन इन्द्रियोंके विषयोंका चिन्तन करता रहता है और ऐसी स्थितिको क्रियारहित मान लेता है। इसलिये वह मिथ्याचारी अर्थात् मिथ्या आचरण करनेवाला कहा जाता है।यद्यपि उसने इन्द्रियोंके विषयोंको बाहरसे त्याग दिया है और ऐसा समझता है कि मैं कर्म नहीं करता हूँ तथापि ऐसी अवस्थामें भी वह वस्तुतः कर्मरहित नहीं हुआ है। कारण कि बाहरसे क्रियारहित दीखनेपर भी अहंता ममता और कामनाके कारण रागपूर्वक विषयचिन्तनके रूपमें विषयभोगरूप कर्म तो हो ही रहा है।सांसारिक भोगोंको बाहरसे भी भोगा जा सकता है और मनसे भी। बाहरसे रागपूर्वक भोगोंको भोगनेसे अन्तःकरणमें भोगोंके जैसे संस्कार पड़ते हैं वैसे ही संस्कार मनसे भोगोंको भोगनेसे अर्थात् रागपूर्वक भोगोंका चिन्तन करनेसे भी पड़ते हैं। बाहरसे भोगोंका त्याग तो मनुष्य विचारसे लोकलिहाजसे और व्यवहारमें गड़बड़ी आनेके भयसे भी कर सकता है पर मनसे भोग भोगनेमें बाहरसे कोई बाधा नहीं आती। अतः वह मनसे भोगोंको भोगता रहता है और मिथ्या अभिमान करता है कि मैं भोगोंका त्यागी हूँ। मनसे भोग भोगनेसे विशेष हानि होती है क्योंकि इसके सेवनका विशेष अवसर मिलता है। अतः साधकको चाहिये कि जैसे वह बाहरके भोगोंसे अपनेको बचाता है उनका त्याग करता है ऐसे ही मनसे भोगोंके चिन्तनका भी विशेष सावधानीसे त्याग करे।अर्जुन भी कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करना चाहते हैं और भगवनान्से पूछते हैं कि आप मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं इसके उत्तरमें यहाँ भगवान् कहते हैं कि जो मनुष्य अहंता ममता आसक्ति कामना आदि रखते हुए केवल बाहरसे कर्मोंका त्याग करके अपनेको क्रियारहित मानता है उसका आचरण मिथ्या है। तात्पर्य यह है कि साधकको कर्मोंका स्वरूपसे त्याग न करके उन्हें कामनाआसक्तिसे रहित होकर तत्परतापूर्वक करते रहना चाहिये। सम्बन्ध चौथे श्लोकमें भगवान्ने कर्मयोग और सांख्ययोग दोनोंकी दृष्टिसे कर्मोंका त्याग अनावश्यक बताया। फिर पाँचवें श्लोकमें कहा कि कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता। छठे श्लोकमें हठपूर्वक इन्द्रियोंकी क्रियाओंको रोककर अपनेको क्रियारहित मान लेनेवालेका आचरण मिथ्या बताया। इससे सिद्ध हुआ कि कर्मोंका स्वरूपसे त्याग कर देनेमात्रसे उनका वास्तविक त्याग नहीं होता। अतः आगेके श्लोकमें भगवान् वास्तविक त्यागकी पहचान बताते हैं।
।।3.6।। शरीर से निष्क्रिय होकर कहीं भी नहीं पहुँचा जा सकता फिर पूर्णत्व की स्थिति के विषय में क्या कहना। जिसने कर्मेन्द्रियों के निग्रह के साथ ही मन और बुद्धि को विषयों के चिन्तन से बुद्धिमत्तापूर्वक निवृत्त नहीं किया हो तो ऐसे साधक की आध्यात्मिक उन्नति निश्चय ही असुरक्षित और आनन्दरहित होगी।मनोविज्ञान की आधुनिक पुस्तकों मे उपर्युक्त वाक्य का सत्यत्व सिद्ध होता है। शरीर से अनैतिक और अपराध पूर्ण कर्म करने की अपेक्षा मन से उनका चिन्तन करते रहना अधिक हानिकारक है। मन का स्वभाव है एक विचार को बारंबार दोहराना। इस प्रकार एक ही विचार के निरन्तर चिन्तन से मन में उसका दृढ़ संस्कार (वासना) बन जाता है और फिर जो कोई विचार हमारे मन में उठता है उनका प्रवाह पूर्व निर्मित दिशा में ही होता है। विचारो की दिशा निश्चित हो जाने पर वही मनुष्य का स्वभाव बन जाता है जो उसके प्रत्येक कर्म में व्यक्त होता है। अत निरन्तर विषयचिन्तन से वैषयिक संस्कार मन में गहराई से उत्कीर्ण हो जाते हैं और फिर उनसे प्रेरित विवश मनुष्य संसार में इसी प्रकार के कर्म करते हुये देखने को मिलता है।जो व्यक्ति बाह्य रूप से नैतिक और आदर्शवादी होने का प्रदर्शन करते हुये मन में निम्न स्तर की वृत्तियों में रहता है वास्तव में वह अध्यात्म का सच्चा साधक नहीं वरन् जैसा कि यहाँ कहा गया है विमूढ और मिथ्याचारी है हम सब जानते हैं कि शारीरिक संयम होने पर भी मन की वैषयिक वृत्तियों को संयमित करना सामान्य पुरुष के लिये कठिन होता है।यह समझते हुये कि सामान्य पुरुष अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों से स्वयं को सुरक्षित रखने का उपाय नहीं जान सकता इसलिये भगवान कहते हैं
3.6 One, who after withdrawing the organs of action, sits mentally recollecting the objects of the senses, that one, of deluded mind, is called a hypocrite.
3.6 He who, restraining the organs of action, sits thinking of the sense-objects in mind, he of deluded understanding is called a hypocrite.
3.6. Controlling organs of actions, whosoever sits with his mind, pondering over the sense objects-that person is a man of deluded soul and [he] is called a man of deluded action.
3.6 कर्मेन्द्रियाणि organs of action? संयम्य restraining? यः who? आस्ते sits? मनसा by the mind? स्मरन् remembering? इन्द्रियार्थान् senseobjects? विमूढात्मा of deluded understanding? मिथ्याचारः hypocrite? सः he? उच्यते is called.Commentary The five organs of action? Karma Indriyas? are Vak (organ of speech)? Pani (hands)? Padam (feet)? Upastha (genitals) and Guda (anus). They are born of the Rajasic portion of the five Tanmatras or subtle elements Vak from the Akasa Tanmatra (ether)? Pani from the Vayu Tanmatra (air)? Padam from the Agni Tanmatra (fire)? Upastha from the Apas Tanmatra (water)? and Guda from the Prithivi Tanmatra (earth). That man who? restraining the organs of action? sits revolving in his mind thoughts regarding the objects of the senses is a man of sinful conduct. He is selfdeluded. He is a veritable hypocrite.The organs of action must be controlled. The thoughts should also be controlled. The mind should be firmly fixed on the Lord. Only then will you become a true Yogi. Only then will you attain to Selfrealisation.
3.6 Yah, one who; samyamya, after withdrawing; karma-indriyani, the organs of action-hands etc.; aste, sits; manasa, mentally; smaran, recollecting, thinking; indriya-arthan, the objects of the senses; sah, that one; vimudha-atma, of deluded mind; ucyate, is called; mithya-acarah, a hypocrite, a sinful person.
3.6 Karmendriyani etc. If he does not act with his organs of action, then he necessarily acts with his mind. At the same time he is the man of deluded action; For, the mental actions can never be avoided totally.
3.6 He whose inner and outer organs of senses are not conered because of his sins not being annulled but is none the less struggling for winning knowledge of the self, whose mind is forced to turn away from the self by reason of it being attached to sense objects, and who conseently lets his minds dwell on them - he is called a hypocrite, because his actions are at variance with his professions. The meaning is that by practising the knowledge of the self in this way, he becomes perverted and lost.
But we see some such sannyasis, devoid of actions of the senses, with closed eyes.” This verse answers. He who controls the senses of action such as speech or hands (karmendriyani) but remains remembering the objects of the senses, under the pretense of meditating, is a cheater (mithyacarah).
The unqualified renunciate who in ignorance attempts to perform jnana yoga the cultivation of spiritual knowledge is being censored now. In a strong sense Lord Krishna states: that fool who by forcefully restraining the senses under the pretext of meditation but is inwardly reflecting on the objects of the senses is a cheat and a charlatan. Being impure the mind of such an impostor lacks the tranquillity and lucidity to practice such meditation.
There is no commentary for this verse.
Whosoever without first unburdening themselves of all their sins, who without having first gained mastery of their senses and without having first achieved self-control of the mind. If such a person pretends to strives for atma-tattva or self-realisation of the soul, with their thoughts dwelling on sense objects due to attachment for them instead of focusing on the eternal soul. Then the conduct of such a one is duplicious and false and they are a charlatan. Any person acting in this way is only deceiving themselves by their own deception and surely will never succeed in realising the eternal soul. Bhagavad-Gita
Whosoever without first unburdening themselves of all their sins, who without having first gained mastery of their senses and without having first achieved self-control of the mind. If such a person pretends to strives for atma-tattva or self-realisation of the soul, with their thoughts dwelling on sense objects due to attachment for them instead of focusing on the eternal soul. Then the conduct of such a one is duplicious and false and they are a charlatan. Any person acting in this way is only deceiving themselves by their own deception and surely will never succeed in realising the eternal soul. Bhagavad-Gita
Karmendriyaani samyamya ya aaste manasaa smaran; Indriyaarthaan vimoodhaatmaa mithyaachaarah sa uchyate.
karma-indriyāṇi—the organs of action; sanyamya—restrain; yaḥ—who; āste—remain; manasā—in the mind; smaran—to remember; indriya-arthān—sense objects; vimūḍha-ātmā—the deluded; mithyā-āchāraḥ—hypocrite; saḥ—they; uchyate—are called