कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।3.6।।
।।3.6।। जो मूढ बुद्धि पुरुष कर्मेन्द्रियों का निग्रह कर इन्द्रियों के भोगों का मन से स्मरण (चिन्तन) करता रहता है वह मिथ्याचारी (दम्भी) कहा जाता है।।
।।3.6।। शरीर से निष्क्रिय होकर कहीं भी नहीं पहुँचा जा सकता फिर पूर्णत्व की स्थिति के विषय में क्या कहना। जिसने कर्मेन्द्रियों के निग्रह के साथ ही मन और बुद्धि को विषयों के चिन्तन से बुद्धिमत्तापूर्वक निवृत्त नहीं किया हो तो ऐसे साधक की आध्यात्मिक उन्नति निश्चय ही असुरक्षित और आनन्दरहित होगी।मनोविज्ञान की आधुनिक पुस्तकों मे उपर्युक्त वाक्य का सत्यत्व सिद्ध होता है। शरीर से अनैतिक और अपराध पूर्ण कर्म करने की अपेक्षा मन से उनका चिन्तन करते रहना अधिक हानिकारक है। मन का स्वभाव है एक विचार को बारंबार दोहराना। इस प्रकार एक ही विचार के निरन्तर चिन्तन से मन में उसका दृढ़ संस्कार (वासना) बन जाता है और फिर जो कोई विचार हमारे मन में उठता है उनका प्रवाह पूर्व निर्मित दिशा में ही होता है। विचारो की दिशा निश्चित हो जाने पर वही मनुष्य का स्वभाव बन जाता है जो उसके प्रत्येक कर्म में व्यक्त होता है। अत निरन्तर विषयचिन्तन से वैषयिक संस्कार मन में गहराई से उत्कीर्ण हो जाते हैं और फिर उनसे प्रेरित विवश मनुष्य संसार में इसी प्रकार के कर्म करते हुये देखने को मिलता है।जो व्यक्ति बाह्य रूप से नैतिक और आदर्शवादी होने का प्रदर्शन करते हुये मन में निम्न स्तर की वृत्तियों में रहता है वास्तव में वह अध्यात्म का सच्चा साधक नहीं वरन् जैसा कि यहाँ कहा गया है विमूढ और मिथ्याचारी है हम सब जानते हैं कि शारीरिक संयम होने पर भी मन की वैषयिक वृत्तियों को संयमित करना सामान्य पुरुष के लिये कठिन होता है।यह समझते हुये कि सामान्य पुरुष अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों से स्वयं को सुरक्षित रखने का उपाय नहीं जान सकता इसलिये भगवान कहते हैं