वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः।।4.10।।
।।4.10।।राग भय और क्रोधसे सर्वथा रहित मेरेमें ही तल्लीन मेरे ही आश्रित तथा ज्ञानरूप तपसे पवित्र हुए बहुतसे भक्त मेरे भाव(स्वरूप) को प्राप्त हो चुके हैं।
।।4.10।। राग भय और क्रोध से रहित मनमय मेरे शरण हुए बहुत से पुरुष ज्ञान रुप तप से पवित्र हुए मेरे स्वरुप को प्राप्त हुए हैं।।
4.10।। व्याख्या वीतरागभयक्रोधाः परमात्मासे विमुख होनेपर नाशवान् पदार्थोंमें राग हो जाता है। रागसे फिर प्राप्तमें ममता और अप्राप्तकी कामना उत्पन्न होती है। रागवाले (प्रिय) पदार्थोंकी प्राप्ति होनेपर तो लोभ होता है पर उनकी प्राप्तिमें बाधा पहुँचनेपर (बाधा पहुँचानेवालेपर) क्रोध होता है। यदि बाधा पहुँचानेवाला व्यक्ति अपनेसे अधिक बलवान् हो और उसपर अपना वश न चल सकता हो तथासमयपर वह हमारा अनिष्ट कर देगा ऐसी सम्भावना हो तो भय होता है। इस प्रकार नाशवान् पदार्थोंके रागसे ही भय क्रोध लोभ ममता कामना आदि सभी दोषोंकी उत्पत्ति होती है। रागके मिटनेपर ये सभी दोष मिट जाते हैं। पदार्थोंको अपना और अपने लिये न मानकर दूसरोंका और दूसरोंके लिये मानकर उनकी सेवा करनेसे राग मिटता है। कारण कि वास्तवमें पदार्थ और क्रियासे हमारा सम्बन्ध है ही नहीं।अपना कोई प्रयोजन न रहनेपर भी भगवान् केवल हमारे कल्याणके लिये ही अवतार लेते हैं। कारण कि वे प्राणीमात्रके परम सुहृद् हैं और उनकी सम्पूर्ण क्रियाएँ मात्र जीवोंके कल्याणके लिये ही होती हैं। इस प्रकार भगवान्की परम सुहृत्तापर दृढ़ विश्वास होनेसे भगवान्में आकर्षण हो जाता है। भगवान्में आकर्षण होनेसे संसारका आकर्षण (राग) स्वतः मिट जाता है। जैसे बचपनमें बालकोंका कंकड़पत्थरोंमें आकर्षण होता है और उनसे वे खेलते हैं। खेलमें वे कंकड़पत्थरोंके लिये लड़ पड़ते हैं। एक कहता है कि यह मेरा है और दूसरा कहता है कि यह मेरा है। इस प्रकार गलीमें पड़े कंकड़पत्थरोंमें ही उन्हें महत्ता दीखती है। परन्तु जब वे बड़े हो जाते हैं तब कंकड़पत्थरोंमें उनका आकर्षण मिट जाता है और रुपयोंमें आकर्षण हो जाता है। रुपयोंमें आकर्षण होनेपर उन्हें कंकड़पत्थरोंमें अथवा खिलौनोंमें कोई महत्ता नहीं दीखती। ऐसे ही जब मनुष्यकी परमात्मामें लगन लग जाती है तब उसके लिये संसारके रुपये और सब पदार्थ आकर्षक न रहकर फीके पड़ जाते हैं। उसका संसारमें आकर्षण या राग मिट जाता है। राग मिटते ही भय और क्रोध दोनों मिट जाते हैं क्योंकि ये दोनों रागके ही आश्रित रहते हैं।मन्मयाः भगवान्के जन्म और कर्मकी दिव्यताको तत्त्वसे जाननेसे मनुष्योंकी भगवान्में प्रियता हो जाती है प्रियता होनेसे वे भगवान्के ही शरण हो जाते हैं और शरण होनेसे वे स्वयं मन्मयाः अर्थात् भगवन्मय हो जाते हैं।सांसारिक भोगोंमें आकर्षणवाले मनुष्य भोगोंकी कामनाओंमें तन्मय हो जाते हैं कामात्मानः (गीता 2। 43) और भगवान्में आकर्षणवाले मनुष्य भगवान्में तन्मय हो जाते हैं तन्मयाः (नारदभक्तिसूत्र 70)। वे हर समय भगवान्में ही तल्लीन रहते हैं। उनके विचारों आचरणों आदिमें भगवान्की ही मुख्यता रहती है। प्रेमकी अधिकताके कारण वे भगवत्स्वरूप बन जाते हैं मानो उनकी अपनी कोई अलग सत्ता ही न हो (टिप्पणी प0 230.1)।मामुपाश्रिताः वीतरागभयक्रोधाः में संसारसे स्वयंका सम्बन्धविच्छेद है और मन्मयाः माम् उपाश्रिताः में भगवान्की तल्लीनता है।किसीनकिसीका आश्रय लिये बिना मनुष्य रह ही नहीं सकता। भगवान्का अंश जीव भगवान्से विमुख होकर दूसरेका आश्रय लेता है तो वह आश्रय टिकता नहीं प्रत्युत मिटता जाता है। धनादि नाशवान् पदार्थोंका आश्रय पतन करनेवाला होता है। इतना ही नहीं शुभकर्मोंको करनेमें बुद्धिका भगवत्प्राप्तिके साधनोंका तथा भोग और संग्रहके त्यागका आश्रय लेनेपर भी भगवत्प्राप्तिमें देरी लगती है। जबतक मनुष्य स्वयं (स्वरूपसे) भगवान्के आश्रित नहीं हो जाता तबतक उसकी पराधीनता मिटती नहीं और वह दुःख पाता ही रहता है।संसारके पदार्थोंमें मनुष्यका आकर्षण और आश्रय अलगअलग होता है जैसे मनुष्यका आकर्षण तो स्त्री पुत्र आदिमें होता है और आश्रय बड़ोंका होता है। परन्तु भगवान्में लगे हुए मनुष्यका भगवान्में ही आकर्षण होता है और भगवान्का ही आश्रय होता है क्योंकि प्रियसेप्रिय भी भगवान् हैं और बड़ेसेबड़े भी भगवान् हैं।बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः यद्यपि ज्ञानयोग(सांख्यनिष्ठा) से भी मनुष्य पवित्र हो सकता है तथापि यहाँ भगवान्के जन्म और कर्मकी दिव्यताको तत्त्वसे जाननेको ज्ञान कहा गया है। इस ज्ञानसे मनुष्य पवित्र हो जाता है क्योंकि भगवान् पवित्रोंसे भी पवित्र हैं पवित्राणां पवित्रं यः। भगवान्का ही अंश होनेसे जीवमें भी स्वतःस्वाभाविक पवित्रता है चेतन अमल सहज सुख रासी (मानस 7। 117। 1)। नाशवान् पदार्थोंको महत्त्व देनेसे उनको अपना माननेसे ही यह अपवित्र होता है क्योंकि नाशवान् पदार्थोंकी ममता ही मल (अपवित्रता) है (टिप्पणी प0 230.2)। भगवान्के जन्मकर्मके तत्त्वको जाननेसे जब नाशवान् पदार्थोंका आकर्षण उनकी ममता सर्वथा मिट जाती है तब सब मलिनता नष्ट हो जाती है और मनुष्य परम पवित्र हो जाता है।कर्मयोगका प्रसङ्ग होनेसे उपर्युक्त पदोंमें आये ज्ञान शब्दका अर्थ कर्मयोगका ज्ञान भी माना जा सकता है। कर्मयोगका ज्ञान है शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि पद योग्यता अधिकार धन जमीन आदि मिली हुई मात्र वस्तुएँ संसारकी और संसारके लिये ही हैं अपनी और अपने लिये नहीं हैं। कारण कि स्वयं (स्वरूप) नित्य है अतः उसके साथ अनित्य वस्तु कैसे रह सकती है तथा उसके काम भी कैसे आ सकती है शरीरादि वस्तुएँ जन्मसे पहले भी हमारे साथ नहीं थीं और मरनेके बाद भी नहीं रहेंगी तथा इस समय भी उनका प्रतिक्षण हमसे सम्बन्धविच्छेद हो रहा है। इन मिली हुई वस्तुओंका सदुपयोग करनेका ही अधिकार है अपनी माननेका अधिकार नहीं। ये वस्तुएँ संसारकी ही हैं अतः इन्हें संसारकी ही सेवामें लगाना है। यही इनका सदुपयोग है। इनको अपनी और अपने लिये मानना ही वास्तवमें बन्धन या अपवित्रता है।इस प्रकार नाशवान् वस्तुओंको अपनी और अपने लिये न मानना ज्ञानतप है जिससे मनुष्य परम पवित्र हो जाता है। जितने भी तप हैं उन सबसे बढ़कर ज्ञानतप है। इस ज्ञानतपसे जडके साथ माने हुए सम्बन्धका सर्वथा विच्छेद हो जाता है। जबतक मनुष्य जडके साथ अपना सम्बन्ध मानता रहता है तबतक दूसरी तपस्यासे उसकी उतनी पवित्रता नहीं होती जितनी पवित्रता ज्ञानतपसे जडका सम्बन्धविच्छेद करनेसे होती है। इस ज्ञानतपसे पवित्र होकर मनुष्य भगवान्के भाव(सत्ता) को अर्थात् सच्चिदानन्दघन परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो जाता है। तात्पर्य है कि जैसे भगवान् नित्यनिरन्तर रहते हैं ऐसे वह भी उनमें नित्यनिरन्तर रहता है जैसे भगवान् निर्लिप्तनिर्विकार रहते हैं ऐसे वह भी निर्लिप्तनिर्विकार रहता है जैसे भगवान्के लिये कुछ भी करना शेष नहीं है ऐसे ही उसके लिये भी कुछ करना शेष नहीं रहता। ज्ञानमार्गसे भी मनुष्य इसी प्रकार भगवान्के भावको प्राप्त हो जाता है (गीता 14। 19)।पहले भी बहुतसे भक्त ज्ञानतपसे पवित्र होकर भगवान्को प्राप्त हो चुके हैं। अतः साधकोंको वर्तमानमें ही ज्ञानतपसे पवित्र होकर भगवान्को प्राप्त कर लेना चाहिये। भगवान्को प्राप्त करनेमें सभी स्वतन्त्र हैं कोई भी परतन्त्र नहीं है। कारण कि मानवशरीर भगवत्प्राप्तिके लिये ही मिला है। सम्बन्ध जन्मकी दिव्यताका वर्णन तो हो गया अब कर्मोंकी दिव्यता क्या होती है इस विषयका आरम्भ करते हैं।
।।4.10।। इस श्लोक में अध्यात्म साधना एवं साध्य दोनों को ही स्पष्टरूप से बताया गया है किसी भी साधक के लिये राग और उसके कार्यों का त्याग किये बिना कोई उन्नति करना संभव नहीं क्योंकि वे सदैव उसके मार्ग में बाधा उत्पन्न करते रहते हैं। एक बार मन इनसे उत्पन्न विक्षेपों से रहित होकर शान्त और स्थिरचित्त हो जाता है तब पूर्णत्व की स्थिति उसके जीवन का एक मात्र लक्ष्य होती है जो उसे आगे बढ़ने के लिये उत्साहित करती है। आत्मविकास की इस स्थिति पर पहुँचने पर उस साधक को शास्त्राध्ययन की योग्यता प्राप्त होती है।उपनिषदों में वर्णित आत्मप्राप्ति की साधना इस प्रकार है (क) गुरु के चरणों के पास बैठकर वेदान्त का श्रवण (ख) श्रवण किये हुए विषय पर युक्ति पूर्वक मनन और (ग) इस प्रकार जाने हुए आत्मतत्त्व का निदिध्यासन अर्थात् ध्यान। वेदान्त के सिद्धान्त का अध्ययन और उस ज्ञान के अनुसार जीवन में आचरण करने को ही इस श्लोक में ज्ञानतप कहा गया।कुछ व्याख्याकारों के मतानुसार इस श्लोक में कर्म भक्ति एवं ज्ञान इन तीनों योगों के समुच्चय का उपदेश दिया गया है। कैसे उनके अनुसार कर्मयोग की भावना से अपने कार्य क्षेत्र में कर्म किये बिना राग भय और क्रोध निवृत्ति नहीं हो सकती। मन्मया और मामुपाश्रिता अर्थात् मुझमें स्थित और मेरे शरण हुए इन शब्दों में भक्तियोग का संकेत है क्योंकि ईश्वर की शरण में गया हुआ भक्त भगवान् के साथ में एकरूप हो जाता है। आत्मानात्मविवेक करके आत्मा के साथ तादात्म्य रखने के प्रयत्न को ज्ञानयोग कहते हैं जिसे यहाँ ज्ञानतप कहा गया है। इन सबका निष्कर्ष यह है कि भिन्नभिन्न प्रतीत होने वाले साधना मार्गों का अनुसरण करने पर साघकगण मुझ परमात्मा को ही प्राप्त होते हैं।वास्तव में देखा जाय तो ये समस्त साधनामार्ग मन को साधन सम्पन्न बनाने के लिये ही हैं जिसे शास्त्रीय भाषा में अन्तकरण शुद्धि कहते हैं। हममें से कुछ लोगों का अपनी देह के साथ अत्यधिक तादात्म्य होता है। कुछ व्यक्ति अधिक भावुक होते हैं तो अन्य लोग बुद्धिवादी। इन सबके लिये एक ही प्रकार के साधन का उपदेश करने पर इस बात की सम्भावना रहती है कि उसे सार्वभौमिक स्वीकृति न मिले तथा सबके लिये उसकी उपयोगिता सिद्ध न हो सके।यह स्पष्ट है कि साधना मार्गों में विविधता होने पर भी सभी साधकों का आत्मानुभव एक ही है। यह एक विवादरहित तथ्य है क्योंकि विश्व के आध्यात्मिक साहित्य के अध्ययन करने पर ऐसा प्रतीत होता है मानो प्रत्येक सन्त ने अपने पूर्वकालीन साहित्य से विचारों को लेकर उनकी नयी प्रति प्रस्तुत कर दी हो इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान् रागद्वेषवान् हैं क्योंकि वे किसी को मोक्ष प्रदान करते हैं और अन्यों को नहीं। इस पर कहते हैं
4.10 Many who were devoid of attachment, fear and anger, who were absorbed in Me, who had taken refuge in Me, and were purified by the austerity of Knowledge, have attained My state.
4.10 Freed from attachment, fear and anger, absorbed in Me, taking refuge in Me, purified by the fire of knowledge, many have attained to My Being.
4.10. Many persons, who are free from passion, fear and anger; are full of Me; take refuge in Me; and have become pure by the austerity of wisdom-they have come to My being.
4.10 वीतरागभयक्रोधाः freed from attachment? fear and anger? मन्मयाः absorbed in Me? माम् Me? उपाश्रिताः taking refuge in? बहवः many? ज्ञानतपसा by the fire of knowledge? पूताः purified? मद्भावम् My Being? आगताः have attained.Commentary When one gets knowledge of the Self? attachment to senseobjects ceases. When he realises he is the constant? indestructible? eternal Self and that change is simply a ality of the body? then he becomes fearless. When he becomes desireless? when he is free from selfishness? when he beholds the Self only everywhere? how can anger arise in himHe who takes refuge in Brahman or the Absolute becomes firmly devoted to Him. He becomes,absorbed in Him (Brahmalina or Brahmanishtha). Jnanatapas is the fire of wisdom. Just as fire burns cotton? so also this Jnanatapas burns all the latent tendencies (Vasanas)? cravings (Trishnas)? mental impressions (Samskaras)? sins and all actions? and purifies the aspirants. (Cf.II.56IV.19to37).
4.10 Bahavah, many; vita-raga-bhaya-krodhah, who were devoid of attachment, fear and anger; manmayah, who were absorbed in Me, who were knowers of Brahman, who were seers of (their) identity with God; mam upasrithah, who had taken refuge only in Me, the supreme God, i.e. who were steadfast in Knowledge alone; and were putah, purified, who had become supremely sanctified; jnana-tapasa, by the austerity of Knowledge-Knowledge itself, about the supreme Reality, being the austerity; becoming sanctified by that austerity of Knowledge-; agatah, have attained; madbhavam, My state, Goodhood, Liberation. The particular mention of the austerity of Knowledge is to indicate that steadfastness in Knowledge does not depend on any other austerity. In that case, You have love and aversion, because of which You grant the state of identity with Yourself only to a few but not to others? The answer is:
4.10 Vita-etc. Therefore many persons, who realise in this manner are free anger etc., because they have [all] their desires completely fulfilled, due to their being full of Me; and who perform actions which are to be performed and which do not yield any fruit [for them] - they have attained My own nature. For-
4.10 Purified by the austerity called knowledge of the truth of My life and deeds, many have become transformed in this manner. The Sruti says to the same effect: The wise know well the manner in which He is born (Tai. A., 3.13.1). Dhiras means the foremost among the wise. The meaning is the wise know the manner of His birth thus. It is not that I protect only those who resort to Me in incarnations in the shapes of gods, men etc.
Not only at the present time can one attain me just by knowing about the nature of my present birth and activities, but in ancient times also in previous kalpas when I appeared, people attained me by knowing the nature of my birth and activities. That is the purport of this verse. Regarding the meaning of jnana tapasa, Ramanujacarya says, “They became purified by the austerity of realization about the nature of my birth and activities as previously stated.” Or the meaning can be: “They, having attained realization of the eternal nature of my birth and activities, became purified by austerity in the form of tolerating the burning poison of wrong ideas, wrong logic and wrong arguments.” Ramanujacarya quotes the following sruti in this regard. tasya dhirah parijananti yonim The wise men know about the Lord’s method of birth. Taittiriya Aranyaka 3.13.1 Such wise persons have given up attachment to or affection for persons who speak nonsense ideas (vita ragah). My devotees have no fear of them, nor anger towards them. Why? Because they are preoccupied with meditating on, thinking of, hearing and singing about my birth and activities (man maya). They attained prema for me (mad bhavam).
It may be enquired how may one be elevated to attaining Lord Krishna merely by knowledge of His appearances and pastimes? This is answered by the instruction: being completely freed from passion, fear and anger then if those persons understand that due to Lord Krishnas magnanimous compassion He incarnates into His material creation through pure sattva or goodness to protect the principles of sanatan dharma or eternal righteousness and having no attachments and desires thus with no distractions focus their attentions to meditating on Him, fixed in Him, taking sole refuge in Him alone. These rare beings are naturally purified from the dross of ignorance and its products in prakriti or material nature by their own wisdom and penance consisting of performing prescribed Vedic activities according to ones order and station in life. This by the divine grace of the Supreme Lord through the medium of the bonafide guru exclusively the development of spiritual knowledge commences. The compound word jnana-tapasya means by knowledge and austerities. This knowledge and austerity is taught by the bonafide spititual master and is the procedure for one to receive the divine grace of the Supreme Lord. As all activities of the Supreme Lord are sublimely eternal the bestowal of this grace whenever it is received indicates that it is not newly inculcated but is given eternally as well. The Vedic dictum of that and thou referring to the Supreme Lord and the living entity are spoken of only in the context of the individual consciousness as being distinct from the ultimate consciousness. The individual consciousness as the living entity having numerous limitations and the ultimate consciousness as the Supreme Lord having no limitations. The Supreme Lord being free from ignorance and ever pure while the living entity is purified by degrees by renouncing ignorance through knowledge gained by the divine grace of the Supreme Lord through the mercy of the spiritual master in disciplic succession from one of the four Vedic sampradayas or authorised Vedic channel of disciplic succession.
By completely renouncing passion, fear and anger and subsequently adoring the Supreme Lord many attained moksa or liberation. Man-maya means complete abidance and refuge in the Lord in all situations. Now begins the summation. Mayam means making the Lord the central focus of ones life as the primary objective. One who knows the Supreme Primacy of the Lords position becomes eventually aware of His transcendental integral form. Only those who know the Supreme Resplendent Lord thus are qualified for liberation and no others. Being aware of His integral form indicates attaining their eternal spiritual form similar to His in quality but not quantity.
What Lord Krishna is confirming is that legions of human beings over the ages have attained true realisation of His avatar forms or incarnations and His lilas or divine pastimes through jnana yoga or the cultivation of Vedic knowledge and purifying themselves attained moksa or liberation and entered the abode of the Supreme Lord. The spiritually advanced in Vedic wisdom know something of the truth about the Supreme Lord appearances and pastimes. But it is only the Vaisnava devotees of the Supreme Lord, who desire Him alone and who serve Him with love and devotion, only they can truly comprehend the sublime transcendental mystery of His divine appearances, pastimes, forms, abode and nature.
What Lord Krishna is confirming is that legions of human beings over the ages have attained true realisation of His avatar forms or incarnations and His lilas or divine pastimes through jnana yoga or the cultivation of Vedic knowledge and purifying themselves attained moksa or liberation and entered the abode of the Supreme Lord. The spiritually advanced in Vedic wisdom know something of the truth about the Supreme Lord appearances and pastimes. But it is only the Vaisnava devotees of the Supreme Lord, who desire Him alone and who serve Him with love and devotion, only they can truly comprehend the sublime transcendental mystery of His divine appearances, pastimes, forms, abode and nature.
Veetaraagabhayakrodhaa manmayaa maam upaashritaah; Bahavo jnaana tapasaa pootaa madbhaavam aagataah.
vīta—freed from; rāga—attachment; bhaya—fear; krodhāḥ—and anger; mat-mayā—completely absorbed in me; mām—in me; upāśhritāḥ—taking refuge (of); bahavaḥ—many (persons); jñāna—of knowledge; tapasā—by the fire of knowledge; pūtāḥ—purified; mat-bhāvam—my divine love; āgatāḥ—attained