काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।।4.12।।
।।4.12।। (सामान्य मनुष्य) यहाँ (इस लोक में) कर्मों के फल को चाहते हुये देवताओं को पूजते हैं क्योंकि मनुष्य लोक में कर्मों के फल शीघ्र ही प्राप्त होते हैं।।
।।4.12।। सुकर्म अथवा दुष्कर्म करने के लिये आत्म चैतन्य अथवा ईश्वर की शक्ति की समान रूप से आवश्यकता है और वह उपलब्ध भी है। परन्तु मन की प्रवृत्ति बहिर्मुखी ही बनी रहने के कारण है इन्द्रियों का विषयों के साथ सम्पर्क होने पर निम्न स्तर के सुख की संवेदनाओं में उसकी आसक्ति। इस प्रकार के सुख सरलता से प्राप्त भी हो जाते हैं।अनेक प्रयत्नों के बावजूद हम वैषयिक सुख में ही रमते हैं जिसका कारण भगवान् बताते हैं मनुष्य लोक में कर्म की सिद्धि शीघ्र ही होती है।इस जगत् में विषयोपभोग के द्वारा सुख पाना सामान्य मनुष्य के लिये सरल प्रतीत होता है। वह सुख निकृष्ट होने पर भी बिना किसी प्रतिरोध के मिलता है और इस कारण सुख शान्ति की इच्छा करने वाला पुरुष अपनी आध्यात्मिक शक्ति को व्यर्थ ही इन वस्तुओं की प्राप्ति और भोग करने में खो देता है। इस कथन के सत्यत्व का हम सबको अनुभव है।उपर्युक्त विवरण का सम्बन्ध केवल लौकिक सामान्य भोगों में ही सीमित नहीं वरन् हमारी अन्य उपलब्धियों से भी है। वनस्पति एवं पशु जगत् की अपेक्षा हम सुनियोजित कर्मों के द्वारा प्रकृति को अपने लिये अधिक सुख प्रदान करने को बाध्य कर सकते हैं।जीवन के उत्कृष्ट एवं निकृष्ट मार्गों का अनुसरण करने वाले लोगों को हम उनकी अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी प्रवृत्तियों के आधार पर विभाजित कर सकते हैं इन बहिर्मुखी लोगों का फिर चार प्रकार से वर्गीकरण किया जा सकता है जिसका आधार है उनके विचार (गुण) और कर्म।