कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।4.18।।
।।4.18।। जो पुरुष कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है वह मनुष्यों में बुद्धिमान है वह योगी सम्पूर्ण कर्मों को करने वाला है।।
।।4.18।। वेदान्त के वर्णनानुसार दीर्घकाल तक जब मनुष्य कर्तव्य कर्मों का पालन करता है तब सभी सच्चे साधकों के मन में एक प्रश्न उठता है कि उन्हें कैसे ज्ञात हो कि उन्होंने पूर्णत्व की स्थिति प्राप्त कर ली है। इस श्लोक में श्रीकृष्ण उस स्थिति का वर्णन कर रहे हैं।शारीरिक कर्म बुद्धि में स्थित किसी ज्ञात अथवा अज्ञात इच्छा की केवल स्थूल अभिव्यक्ति है। पूर्ण नैर्ष्कम्य की स्थिति का अर्थ निष्कामत्व की स्थिति होनी चाहिए इसे ही पूर्ण ईश्वरत्व की स्थिति कहते हैं। परन्तु यहाँ बताया हुआ लक्ष्य अनन्तस्वरूप पूर्णत्व न होकर ज्ञान की तीर्थयात्रा के मध्य पड़ने वाला एक स्थान है। विवेकी पुरुष सहजता से अवलोकन कर सकता है कि शरीर से अकर्म होने पर भी उसके मन और बुद्धि पूर्ण वेग से कार्य कर रहे होते हैं। वह यह भी अनुभव करता है कि शरीर द्वारा निरन्तर कर्म करते रहने पर भी वह शान्त और स्थिर रहकर केवल द्रष्टाभाव से उन्हें स्वयं अकर्म में रहते हुए देख सकता है यह अकर्म सात्त्विक गुण की चरम्ा सीमा है।ऐसा व्यक्ति समत्व की महान् स्थिति को प्राप्त हुआ समझना चाहिये जो ध्यानाभ्यास की सफलता के लिए अनिवार्य है। जैसा कि अनेक लोगों का विश्वास है कि कर्तव्य कर्म ही हमें पूर्णत्व की प्राप्ति करा देंगे ऐसा यहाँ नहीं कहा गया है। यह सर्वथा असंभव है। कर्म स्वयं ही इच्छा का शिशु है और कर्मों के द्वारा हम वस्तुओं को उत्पन्न कर सकते हैं और कोई भी उत्पन्न की हुई वस्तु स्वभाव से ही परिच्छिन्न विनाशी होती है। इस प्रकार कर्मों के द्वारा प्राप्त किया ईश्वरत्व रविवासरीय ईश्वरत्व होगा जो आगामी सोमवार को हम से विलग हो जायेगा श्री शंकराचार्य और अन्य आचार्यवृन्द पुनपुन यह दोहराते हैं कि कर्तव्य पालन से शुद्धान्तकरण वाले व्यक्ति में वह सार्मथ्य आ जाती है कि वह स्वयं के मन में तथा बाहर होने वाली क्रियाओं को साक्षी भाव से देख सकता है। जब वह यह जान लेता है कि उसके कर्म विश्व में हो रहे कर्मों के ही भाग हैं तब उसे एक अनिर्वचनीय समता का भाव प्राप्त हो जाता है जो ध्यान के अभ्यास के लिए आवश्यक है।किसी व्यक्ति के शान्त बैठे रहने मात्र से उसे निष्क्रिय नहीं कहा जा सकता। शारीरिक निष्क्रियता (अकर्म) किसी व्यक्ति के क्रियाहीन होने का मापदण्ड नहीं हो सकता। यह एक सुविदित तथ्य है कि जब कभी हम गम्भीर निर्माणकारी विचारों में मग्न होते हैं तो हम केवल शारीरिक दृष्टि से बिल्कुल शान्त और निष्क्रिय हो जाते हैं। इसलिए जीवन के पादमार्ग (फुटपाथ) पर ही चलने वाले लोगों की दृष्टि से जो व्यक्ति क्रियाहीन कहलाता है उसके हृदय में गम्भीर विचारों की क्रिया का चलना सम्भव हो सकता है। बोधि वृक्ष के नीचे बैठे हुए बुद्ध वाद्यों के समीप एक संगीतज्ञ हाथ में लेखनी लिए एक लेखक इन सब में कभीकभी निष्क्रयता देखी जाती है परन्तु वह निष्क्रियता सत्त्वगुण की है तमोगुण की नहीं। इन शान्त क्षणों के बाद ही वे अपनी श्रेष्ठ कलाकृति प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार जिस पुरुष में आत्मनिरीक्षण की क्षमता है वह अकर्म में कर्म को पहचान सकता है।एक विवेकी पुरुष जब जगत् में क्रियाशील रहता है उस समय मानो अपने आपको सब उपाधियों से अलग करके साक्षीभाव से स्वयं अकर्म में रहते हुए वह सब कर्मों को होते हुए देख सकता है।जब मैं इन शब्दों को लिख रहा हूँ तब मेरा ही कोई भाग मानों द्रष्टाभाव से देख सकता है कि हाथ में पकड़ी हुई लेखनी कागज पर शब्दों को लिख रही है। इसी प्रकार सभी कर्मों में स्वयं अकर्म में रहते हुए कर्मों को देखने की क्षमता दुर्लभ नहीं है। जो कोई पुरुष इसका उपयोग करेगा वह स्पष्ट रूप से सब कर्मों में इस द्रष्टा को अकर्म रूप से पहचान सकता है।रेल चलती है वाष्प नहीं। पंखा घूमता है विद्युत नहीं। इसी प्रकार ईंधन जलता है अग्नि नहीं। शरीर मन और बुद्धि कार्य करते है परन्तु चैतन्य आत्मा नहीं।इस प्रकार कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखने वाले पुरुष को सब मनुष्यों में बुद्धिमान कहा जाता है। उसे यहाँ आत्मानुभवी नहीं कहा गया है। निसन्देह वह मनुष्यों में श्रेष्ठ है और आत्मप्राप्ति के अत्यन्त समीपस्थ है।संक्षेप में निष्कर्ष यह है कि निस्वार्थ भाव तथा अर्पण की भावना से कर्माचरण करने पर चित्त शुद्ध होता है और बुद्धि में कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखने की क्षमता आती है। यह क्षमता दैवी और श्रेष्ठ है क्योंकि इसके द्वारा ही हम अपने आप को सांसारिक बन्धनों से मुक्त कर सकते हैं।उपर्युक्त ज्ञान की प्रशंसा अगले श्लोकों में की गयी है