यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।4.19।।
।।4.19।। जिसके समस्त कार्य कामना और संकल्प से रहित हैं ऐसे उस ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा भस्म हुये कर्मों वाले पुरुष को ज्ञानीजन पण्डित कहते हैं।।
।।4.19।। जिस पुरुष के सभी कर्म कामना और फलों के संकल्प (आसक्ति) से रहित होते हैं वह पुरुष सन्त या आत्मानुभवी कहलाता है। भविष्य में विषयोपभोग के द्वारा सुख पाने की बुद्धि की योजना को कामना कहते हंै। यह योजना बनाना स्वयं की स्वतन्त्रता को सीमित करना ही है। कामना करने का अर्थ है कि परिस्थितियों को अपने अनुकूल होने का आग्रह करना। इस प्रकार प्राप्त परिस्थितियों से सदा असन्तुष्ट रहते हुये भविष्य में उन्हें अनुकूल बनाने के प्रयत्न में हम अपने आप को भ्रमित करके अनेक विघ्नों का सामना करते रहते हैं। कर्म करने की यह पद्धति कर्त्ता के आनन्द और प्रेरणा का हरण कर लेती है।हम इस पर पहले ही विचार कर चुके हैं कि फलासक्ति किस प्रकार हमारी शक्तियों को नष्ट कर देती है। कर्मफल सदैव भविष्य में मिलता है इसलिए उसकी चिन्ता करने का तात्पर्य वर्तमान से पलायन करके अनुत्पन्न भविष्य में जीना है। यह नियम है कि कारणों अर्थात् कर्मों के अनुरूप ही कर्मफल मिलता है अत निश्चित रूप से सफलता पाने का एक मात्र उपाय है वर्तमान काल में पूरी लगन से कार्य करना।यहाँ कहा गया है कि ज्ञानी पुरुष के सब कर्म काम और संकल्प से रहित होते हैं। प्रकरण के सन्दर्भ में इन दो शब्दों को ठीक से समझने की आवश्यकता है क्योंकि केवल शाब्दिक अर्थ लेने से यह कथन अत्यन्त अनुपयुक्त होगा। भगवान् के कथन से कोई यह न समझ ले कि समत्व में स्थित ज्ञानी पुरुष अपने स्फूर्त कर्मों में इष्ट फल पाने के लिए अपनी बुद्धि का उपयोग नहीं करता है। इसका आशय इतना ही है कि वह कर्म करते समय काल्पनिक भय चिन्ता आदि में अपने मन की शक्ति विनष्ट नहीं करता। वेदान्त मनुष्य की बुद्धि की उपेक्षा नहीं करता है। गीता में उपदिष्ट जीवन यापन का मार्ग तो हमें वह साधन प्रदान करता है कि हम अधिकाधिक कुशलतापूर्वक कर्म करके अपनी क्षमताओं का पूर्ण उपयोग करते हुए अपने कार्य क्षेत्र में सर्वोच्च सफलता प्राप्त करें।जो व्यक्ति बुद्धिमत्तापूर्वक जीने और कुशलतापूर्वक काम करने की कला को सीख लेता है वह कर्म करने में ही आनन्द को पाकर उसी में रम जाता है। किसी दिव्य और श्रेष्ठ लक्ष्य के अभाव के कारण ही हमारा मन अनेक चिन्ताओं से ग्रस्त रहता है। ज्ञानी पुरुष का मन दिव्य चैतन्यस्वरूप में स्थित रहने के कारण जगत् में सब प्रकार के कर्म करते हुए भी वह आनन्द का ही अनुभव करता है।ज्ञानी पुरुष की मनस्थिति के वर्णन का प्रयोजन अर्जुन जैसे साधकों के लिए साधन मार्ग का निर्देश करना है। अर्जुन के निमित्त दिया भगवान् श्रीकृष्ण का यह उपदेश सभी कालों के साधकों के लिए भी अनुकरणीय है।यदि हमारा पुत्र चिकित्सक बनना चाहता है तो हम उसे अन्य चिकित्सकों के संघर्ष की कहानी बताते हैं जिससे उत्तम चिकित्सक बनने के लिए आवश्यक गुणों को वह अर्जित कर सके। इसी प्रकार यहाँ ज्ञानी पुरुष के स्वाभाविक लक्षण बताकर भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को साधन मार्ग में प्रवृत्त करते हैं जिससे वह जीवन के लक्ष्य तक पहुँच सके।उपर्युक्त लक्षणों से युक्त ज्ञानी पुरुष समाज के लिए कर्म करता हुआ भी वास्तव में कुछ कर्म नहीं करता है। उसके कर्म अकर्म तुल्य ही हैं क्योंकि ज्ञानाग्नि से उसके कर्म (अर्थात् बन्धन के कारणभूत अहंकार और स्वार्थ) भस्म हो चुके होते हैं यह सात्त्विक स्थिति की चरम सीमा है। भगवान् कहते हैं