यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।4.19।।
।।4.19।।जिसके सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भ संकल्प और कामनासे रहित हैं तथा जिसके सम्पूर्ण कर्म ज्ञानरूपी अग्निसे जल गये हैं उसको ज्ञानिजन भी पण्डित (बुद्धिमान्) कहते हैं।
।।4.19।। व्याख्या यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः (टिप्पणी प0 245) विषयोंका बारबार चिन्तन होनेसे उनकी बारबार याद आनेसे उन विषयोंमें ये विषय अच्छे हैं काममें आनेवाले हैं जीवनमें उपयोगी हैं और सुख देनेवाले हैं ऐसी सम्यग्बुद्धिका होना संकल्प है और ये विषयपदार्थ हमारे लिये अच्छे नहीं हैं हानिकारक हैं ऐसी बुद्धिका होना विकल्प है। ऐसे संकल्प और विकल्प बुद्धिमें होते रहते हैं। जब विकल्प मिटकर केवल एक संकल्प रह जाता है तब ये विषयपदार्थ हमें मिलने चाहिये ये हमारे होने चाहिये इस तरह अन्तःकरणमें उनको प्राप्त करनेकी जो इच्छा पैदा हो जाती है उसका नाम काम (कामना) है। कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुषमें संकल्प और कामना दोनों ही नहीं रहते अर्थात् उसमें न तो कामनाओंका कारण संकल्प रहता है और न संकल्पोंका कार्य कामना ही रहती है। अतः उसके द्वारा जो भी कर्म होते हैं वे सब संकल्प और कामनासे रहित होते हैं।संकल्प और कामना ये दोनों कर्मके बीज हैं। संकल्प और कामना न रहनेपर कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् कर्म बाँधनेवाले नहीं होते। सिद्ध महापुरुषमें भी संकल्प और कामना न रहनेसे उसके द्वारा होनेवाले कर्म बन्धनकारक नहीं होते। उसके द्वारा लोकसंग्रहार्थ कर्तव्यपरम्परासुरक्षार्थ सम्पूर्ण कर्म होते हुए भी वह उन कर्मोंसे स्वतः सर्वथा निर्लिप्त रहता है।भगवान्ने कहींपर संकल्पोंका (6। 4) कहींपर कामनाओंका (2। 55) और कहींपर संकल्प तथा कामना दोनोंका (6। 24 25) त्याग बताया है। अतः जहाँ केवल संकल्पोंका त्याग बताया गया है वहाँ कामनाओंका और जहाँ केवल कामनाओंका त्याग बताया गया है वहाँ संकल्पोंका त्याग भी समझ लेना चाहिये क्योंकि संकल्प कामनाओंका कारण है और कामना संकल्पोंका कार्य है। तात्पर्य है कि साधकको सम्पूर्ण संकल्पों और कामनाओंका त्याग कर देना चाहिये।मोटरकी चार अवस्थाएँ होती हैं 1 मोटर गैरेजमें खड़ी रहनेपर न इंजन चलता है और न पहिये चलते हैं। 2 मोटर चालू करनेपर इंजन तो चलने लगता है पर पहिये नहीं चलते। 3 मोटरको वहाँसे रवाना करनेपर इंजन भी चलता है और पहिये भी चलते हैं। 4 निरापद ढलवाँ मार्ग आनेपर इंजनको बंद कर देते हैं और पहिये चलते रहते हैं। इसी प्रकार मनुष्यकी भी चार अवस्थाएँ होती हैं 1 न कामना होती है और न कर्म होता है। 2 कामना होती है पर कर्म नहीं होता। 3 कामना भी होती है और कर्म भी होता है। 4 कामना नहीं होती और कर्म होता है।मोटरकी सबसे उत्तम (चौथी) अवस्था यह है कि इंजन न चले और पहिये चलते रहें अर्थात् तेल भी खर्च न हो और रास्ता भी तय हो जाय। इसी तरह मनुष्यकी सबसे उत्तम अवस्था यह है कि कामना न हो और कर्म होते रहें। ऐसी अवस्थावाले मनुष्यको ज्ञानिजन भी पण्डित कहते हैं।समारम्भाः (टिप्पणी प0 246.1) पदका यह भाव है कि कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषके द्वारा हरेक कर्म सुचारुरूपसे साङ्गोपाङ्ग और तत्परतापूर्वक होता है। दूसरा एक भाव यह भी है कि उसके कर्म शास्त्रसम्मत होते हैं। उसके द्वारा करनेयोग्य कर्म ही होते हैं। जिससे किसीका अहित होता हो वह कर्म उससे कभी नहीं होता।सर्वे पदका यह भाव है कि उसके द्वारा होनेवाले सबकेसब कर्म संकल्प और कामनासे रहित होते हैं। कोईसा भी कर्म संकल्पसहित नहीं होता। प्रातः उठनेसे लेकर रातमें सोनेतक शौचस्नान खानापीना पाठपूजा जपचिन्तन ध्यानसमाधि आदि शरीरनिर्वाहसम्बन्धी सम्पूर्ण कर्म संकल्प और कामनासे रहित ही होते हैं।ज्ञानाग्निदग्धकर्माणम् कर्मोंका सम्बन्ध पर(शरीरसंसार) के साथ है स्व(स्वरूप) के साथ नहीं क्योंकि कर्मोंका आरम्भ और अन्त होता है पर स्वरूप सदा ज्योंकात्यों रहता है इस तत्त्वको ठीकठीक जानना ही ज्ञान है। इस ज्ञानरूप अग्निसे सम्पूर्ण कर्म भस्म हो जाते हैं अर्थात् कर्मोंमें फल देनेकी (बाँधनेकी) शक्ति नहीं रहती (गीता 4। 16 32)।वास्तवमें शरीर और क्रिया दोनों संसारसे अभिन्न हैं पर स्वयं सर्वथा भिन्न होता हुआ भी भूलसे इनके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है। जब महापुरुषका अपने कहलानेवाले शरीरके साथ भी कोई सम्बन्ध नहीं रहता तब जैसे संसारमात्रसे सब कर्म होते हैं ऐसे ही उसके कहलानेवाले शरीरसे सब कर्म होते हैं। इस प्रकार कर्मोंसे निर्लिप्तताका अनुभव होनेपर उस महापुरुषके वर्तमान कर्म ही नष्ट नहीं होते प्रत्युत संचित कर्म भी सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। प्रारब्धकर्म भी केवल अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितिके रूपमें उसके सामने आकर नष्ट हो जाते हैं परन्तु फलसे असङ्ग होनेके कारण वह उनका भोक्ता नहीं बनता अर्थात् किञ्चिन्मात्र भी सुखी या दुःखी नहीं होता। इसलिये प्रारब्धकर्म भी अस्थायी परिस्थितिमात्र उत्पन्न करके नष्ट हो जाते हैं।तमाहुः पण्डितं बुधाः जो कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके परमात्मामें लगा हुआ है उस मनुष्यको समझना तो सुगम है पर जो कर्मोंसे किञ्चिन्मात्र भी लिप्त हुए बिना तत्परतापूर्वक कर्म कर रहा है उसे समझना कठिन है। सन्तोंकी वाणीमें आया है त्यागी शोभा जगतमें करता है सब कोय। हरिया गृहस्थी संतका भेदी बिरला होय।।तात्पर्य यह है कि संसारमें (बाहरसे त्याग करनेवाले) त्यागी पुरुषकी महिमा तो सब गाते हैं पर गृहस्थमें रहकर सब कर्तव्यकर्म करते हुए भी जो निर्लिप्त रहता है उस (भीतरका त्याग करनेवाले) पुरुषको समझनेवाला कोई बिरला ही होता है।जैसे कमलका पत्ता जलमें ही उत्पन्न होकर और जलमें रहते हुए भी जलसे लिप्त नहीं होता ऐसे ही कर्मयोगी कर्मयोनि(मनुष्यशरीर) में ही उत्पन्न होकर और कर्ममय जगत्में रहकर कर्म करते हुए भी कर्मोंसे लिप्त नहीं होता (टिप्पणी प0 246.2)। कर्मोंसे लिप्त न होना कोई साधारण बुद्धिमानीका काम नहीं है। पीछेके अठारहवें श्लोकमें भगवान्ने ऐसे कर्मयोगीको मनुष्योंमें बुद्धिमान् कहा है और यहाँ कहा है कि उसे ज्ञानिजन भी पण्डित अर्थात् बुद्धिमान् कहते हैं। भाव यह है कि ऐसा कर्मयोगी पण्डितोंका भी पण्डित ज्ञानियोंका भी ज्ञानी है (टिप्पणी प0 246.3)।