एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।4.2।।
।।4.2।।हे परंतप इस तरह परम्परासे प्राप्त इस योगको राजर्षियोंने जाना। परन्तु बहुत समय बीत जानेके कारण वह योग इस मनुष्यलोकमें लुप्तप्राय हो गया।
।।4.2।। इस प्रकार परम्परा से प्राप्त हुये इस योग को राजर्षियों ने जाना (परन्तु) हे परन्तप वह योग बहुत काल (के अन्तराल) से यहाँ (इस लोक में) नष्टप्राय हो गया।।
।।4.2।। व्याख्या एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः सूर्य मनु इक्ष्वाकु आदि राजाओंने कर्मयोगको भलीभाँति जानकर उसका स्वयं भी आचरण किया और प्रजासे भी वैसा आचरण कराया। इस प्रकार राजर्षियोंमें इस कर्मयोगकी परम्परा चली। यह राजाओं(क्षत्रियों) की खास (निजी) विद्या है इसलिये प्रत्येक राजाको यह विद्या जाननी चाहिये। इसी प्रकार परिवार समाज गाँव आदिके जो मुख्य व्यक्ति हैं उन्हें भी यह विद्या अवश्य जाननी चाहिये।प्राचीनकालमें कर्मयोगको जाननेवाले राजालोग राज्यके भोगोंमें आसक्त हुए बिना सुचारुरूपसे राज्यका संचालन करते थे। प्रजाके हितमें उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति रहती थी। सूर्यवंशी राजाओंके विषयमें महाकवि कालिदास लिखते हैं प्रजानामेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिमग्रहीत्।सहस्रगुणमुत्स्रष्टुमादत्ते हि रसं रविः।।(रघुवंश 1। 18)वे राजालोग अपनी प्रजाके हितके लिये प्रजासे उसी प्रकार कर लिया करते थे जिस प्रकार सहस्रगुना बनाकर बरसानेके लिये ही सूर्य पृथ्वीसे जल लिया करते हैं।तात्पर्य यह कि वे राजालोग प्रजासे कर आदिके रूपमें लिये गये धनको प्रजाके ही हितमें लगा देते थे अपने स्वार्थमें थोड़ा भी खर्च नहीं करते थे। अपने जीवननिर्वाहके लिये वे अलग खेती आदि काम करवाते थे। कर्मयोगका पालन करनेके कारण उन राजाओंको विलक्षण ज्ञान और भक्ति स्वतः प्राप्त थी। यही कारण था कि प्राचीनकालमें बड़ेबड़े ऋषि भी ज्ञान प्राप्त करनेके लिये उन राजाओंके पास जाया करते थे। श्रीवेदव्यासजीके पुत्र शुकदेवजी भी ज्ञानप्राप्तिके लिये राजर्षि जनकके पास गये थे। छान्दोग्योपनिषद्के पाँचवें अध्यायमें भी आता है कि ब्रह्मविद्या सीखनेके लिये छः ऋषि एक साथ महाराज अश्वपतिके पास गये थे (टिप्पणी प0 210.1)।तीसरे अध्यायके बीसवें श्लोकमें जनक आदि राजाओंको और यहाँ सूर्य मनु इक्ष्वाकु आदि राजाओंको कर्मयोगी बताकर भगवान् अर्जुनको मानो यह लक्ष्य कराते हैं कि गृहस्थ और क्षत्रिय होनेके नाते तुम्हें भी अपने पूर्वजोंके (वंशपरम्पराके) अनुसार कर्मयोगका पालन अवश्य करना चाहिये (गीता 4। 15)। इसके अलावा अपने वंशकी बात (कर्मयोगकी विद्या) अपनेमें आनी सुगम भी है इसलिये आनी ही चाहिये।स कालेनेह महता योगो नष्टः परमात्मा नित्य हैं और उनकी प्राप्तिके साधन कर्मयोग ज्ञानयोग भक्तियोग आदि भी परमात्माके द्वारा निश्चित किये होनेसे नित्य हैं। अतः इनका कभी अभाव नहीं होता नाभावो विद्यते सतः (गीता 2। 16)। ये आचरणमें आते हुए न दीखनेपर भी नित्य रहते हैं। इसीलिये यहाँ आये नष्टः पदका अर्थ लुप्त अप्रकट होना ही है अभाव होना नहीं।पहले श्लोकमें कर्मयोगको अव्ययम् अर्थात् अविनाशी कहा गया है। अतः यहाँ नष्टः पदका अर्थ यदि कर्मयोगका अभाव माना जाय तो दोनों ओरसे विरोध उत्पन्न होगा कि यदि कर्मयोग अविनाशी है तो उसका अभाव कैसे हो गया और यदि उसका अभाव हो गया तो वह अविनाशी कैसे इसके सिवाय आगेके (तीसरे) श्लोकमें भगवान् कर्मयोगको पुनः प्रकट करनेकी बात कहते हैं। यदि उसका अभाव हो गया होता तो पुनः प्रकट नहीं होता। भगवान्के वचनोंमें विरोध भी नहीं आ सकता। इसलिये यहाँ इह नष्टः पदोंका तात्पर्य यह है कि इस अविनाशी कर्मयोगके तत्त्वका वर्णन करनेवाले ग्रन्थोंका और इसके तत्त्वको जाननेवाले तथा उसे आचरणमें लानेवाले श्रेष्ठ पुरुषोंका इस लोकमें अभावसा हो गया है।जहाँसे जो बात कही जाती है वहाँसे वह परम्परासे जितनी दूर चली जाती है उतना ही उसमें स्वतः अन्तर पड़ता चला जाता है यह नियम है। भगवान् कहते हैं कि कल्पके आदिमें मैंने यह कर्मयोग सूर्यसे कहा था फिर परम्परासे इसे राजर्षियोंने जाना। अतः इसमें अन्तर पड़ता ही गया और बहुत समय बीत जानेसे अब यह योग इस मनुष्यलोकमें लुप्तप्राय हो गया है। यही कारण है कि वर्तमानमें इस कर्मयोगकी बात सुनने तथा देखनेमें बहुत कम आती है।कर्मयोगका आचरण लुप्तप्राय होनेपर भी उसका सिद्धान्त (अपने लिये कुछ न करना) सदैव रहता है क्योंकि इस सिद्धान्तको अपनाये बिना किसी भी योग(ज्ञानयोग भक्तियोग आदि) का निरन्तर साधन नहीं हो सकता। कर्म तो मनुष्यमात्रको करने ही पड़ते हैं। हाँ ज्ञानयोगी विवेकके द्वारा कर्मोंको नाशवान् मानकर कर्मोंसे सम्बन्धविच्छेद करता है और भक्तियोगी कर्मोंको भगवान्के अर्पण करके कर्मोंसे सम्बन्धविच्छेद करता है। अतः ज्ञानयोगी और भक्तियोगीको कर्मयोगका सिद्धान्त तो अपनाना ही पड़ेगा भले ही वे कर्मयोगका अनुष्ठान न करें। तात्पर्य यह कि वर्तमानमें कर्मयोग लुप्तप्राय होनेपर भी सिद्धान्तके रूपमें विद्यमानही है।वास्तवमें देखा जाय तो कर्मयोगमें कर्म लुप्त नहीं हुए हैं प्रत्युत (कर्मोंका प्रवाह अपनी ओर होनेसे) योग ही लुप्त हुआ है। तात्पर्य यह है कि जैसे संसारके पदार्थ कर्म करनेसे मिलते हैं ऐसे ही परमात्मा भी कर्म करनेसे मिलेंगे यह बात साधकोंके अन्तःकरणमें इतनी दृढ़तासे बैठ गयी है कि परमात्मा नित्यप्राप्त हैं इस वास्तविकताकी ओर उनका ध्यान ही नहीं जा रहा है। कर्म सदैव संसारके लिये होते हैं और योग सदैव अपने लिये होता है। योग के लिये कर्म करना नहीं होता वह तो स्वतःसिद्ध है (टिप्पणी प0 210.2)। अतः योग के लिये यह मान लेना कि वह कर्म करनेसे होगा यही योग का लुप्त होना है।मनुष्यशरीर कर्मयोगका पालन करनेके लिये अर्थात् दूसरोंकी निःस्वार्थ सेवा करनेके लिये ही मिला है। परन्तु आज मनुष्य रातदिन अपनी सुखसुविधा सम्मान आदिकी प्राप्तिमें ही लगा हुआ है। स्वार्थके अधिक बढ़ जानेके कारण दूसरोंकी सेवाकी तरफ उसका ध्यान ही नहीं है। इस प्रकार जिसके लिये मनुष्यशरीर मिला है उसे भूल जाना ही कर्मयोगका लुप्त होना है।मनुष्य सेवाके द्वारा पशुपक्षीसे लेकर मनुष्य देवता पितर ऋषि सन्तमहात्मा और भगवान्तकको अपने वशमें कर सकता है। परन्तु सेवाभावको भूलकर मनुष्य स्वयं भोगोंके वशमें हो गया जिसका परिणाम नरकोंमें तथा चौरासी लाख योनियोंमें पड़ जाना है। यही कर्मयोगका छिपना है।
।।4.2।। वेदों में प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्गों का उपदेश है। इस योग का परम्परागत रूप से राजर्षियों को ज्ञान था परन्तु लगता है इस योग का भी अपना दुर्भाग्य और सौभाग्य है इतिहास के किसी काल में मानव मात्र की सेवा के लिये यह ज्ञान उपलब्ध होता है और किसी अन्य समय अनुपयोगी सा बनकर निरर्थक हो जाता है तब अध्यात्म का स्वर्ण युग समाप्त होकर भोगप्रधान आसुरी जीवन का अन्धा युग प्रारम्भ होता है किन्तु आसुरी भौतिकवाद से ग्रस्त काल में भी वह पीढ़ी अपने ही अवगुणों से पीड़ित होने के लिये उपेक्षित नहीं रखी जाती। क्योंकि उस समय कोई महान् गुरु अध्यात्म क्षितिज पर अवतीर्ण होकर तत्कालीन पीढ़ी को प्रेरणा साहस उत्स्ााह और आवश्यक नेतृत्व प्रदान करके दुख पूर्ण पगडंडी से बाहर सांस्कृतिक पुनरुत्थान के राजमार्ग पर ले आता है।महाभारत काल का उचित मूल्यांकन करते हुए श्रीकृष्ण भगवान् ठीक ही कहते हैं कि दीर्घकाल के अन्तराल से वह योग यहाँ नष्ट हो गया है।यह देखकर कि इन्द्रिय संयम से रहित दुर्बल व्यक्तियों के हाथों में जाकर यह योग नष्टप्राय हो गया जिसके बिना जीवन का परम् पुरुषार्थ प्राप्त नहीं किया जा सकता। भगवान् आगे कहते हैं
4.2 The king-sages knew this (yoga) which was received thus in regular succession. That Yoga, O destroyer of foes, in now lost owing to a long lapse of time.
4.2 This, handed down thus in regular succession, the royal sages knew. This Yoga, by long lapse of time, has been lost here, O Parantapa (burner of the foes).
4.2. Thus the regal sages knew this, received in regualr succession. By the passage of long time, this Yoga has been however lost, O scorcher of enemies !
4.2 एवम् thus? परम्पराप्राप्तम् handed down in regular succession? इमम् this? राजर्षयः the royal sages? विदुः knew? सः this? कालेन by lapse of time? इह here? महता by long? योगः Yoga? नष्टः destroyed? परन्तप O Parantapa.Commentary The royal sages Men who were kings and at the same time sages also? learnt this Yoga.Arjuna could burn or harass his foes? like the sun? by the heat of his valour and power. Hence the name Parantapa.
4.2 Rajarsayah, the king-sages, those who were kings and sages (at the same time); viduh, knew; imam, this Yoga; which was evam parampara-praptam, received thus through a regular succession of Ksatriyas. Sah, that; yogah, Yoga; nastah, is lost, has go its traditional line snapped; iha, now; mahata kalena, owing to a long lapse of time. parantapa, O destroyer of foes. By para are meant those against oneself. He who, like the sun, scorches (tapayati) them by the rays of the heat of his prowess is parantapa, i.e. scorcher of antagonists. Noticing that the Yoga has got lost by reaching people who are weak and have no control of their organs, and that the world has become associated with goals that do not lead to Liberation,
4.2 See Comment under 4.3
4.1 - 4.2 The Lord said This Karma Yoga declared to you should not be considered as having been taught now merely, for creating encouragement in you for war. I Myself had taught this Yoga to Vivasvan at the commencement of Manus age as a means for all beings to attain release, which is mans supreme end. Vivasvan taught it to Manu, and Manu to Iksvaku. The royal sages of old knew this Yoga transmitted by tradition. Because of long lapse of time and because of the dullness of the intellect of those who heard it, it has been almost lost.
No commentary by Sri Visvanatha Cakravarti Thakur.
This eternal yoga or the science of the individual consciousness attaining communion with the ultimate consciousness. The saintly kings such as King Nimi as well as royal sages at court all were knowledgeable of this yoga as instructed by their ancestors Ishvaktu and others. The reason why the kings of the day were not knowledgeable of this yoga was because it was lost to parampara or authorised disciplic succession due to great passage of time.
There is no commentary for this verse.
There is no commentary for this verse.
Thus was transmitted from Lord Krishna a distinguished parampara or disciplic succession from illustrious father to illustrious son. This knowledge was passed onto the saintly kings and royal sages like Nimi and Sagara; but its origins are without beginning because its roots are in the eternal Vedas. By great efflux of time and degradation of human intelligence limiting qualified recipients this great knowledge disappeared into oblivion due to a break in parampara causing a discontinuation of the tradition in this world.
Evam paramparaa praaptam imam raajarshayo viduh; Sa kaaleneha mahataa yogo nashtah parantapa.
evam—thus; paramparā—in a continuous tradition; prāptam—received; imam—this (science); rāja-ṛiṣhayaḥ—the saintly kings; viduḥ—understood; saḥ—that; kālena—with the long passage of time; iha—in this world; mahatā—great; yogaḥ—the science of Yog; naṣhṭaḥ—lost; parantapa—Arjun, the scorcher of foes