त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः।।4.20।।
।।4.20।।जो कर्म और फलकी आसक्तिका त्याग करके आश्रयसे रहित और सदा तृप्त है वह कर्मोंमें अच्छी तरहसे लगा हुआ भी वास्तवमें कुछ भी नहीं करता।
4.20।। व्याख्या त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गम् जब कर्म करते समय कर्ताका यह भाव रहता है कि शरीरादि कर्मसामग्री मेरी है मैं कर्म करता हूँ कर्म मेरा और मेरे लिये है तथा इसका मेरेको अमुक फल मिलेगा तब वह कर्मफलका हेतु बन जाता है। कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषको प्राकृत पदार्थोंसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेदका अनुभव हो जाता है इसलिये कर्म करनेकी सामग्रीमें कर्ममें तथा कर्मफलमें किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति न रहनेके कारण वह कर्मफलका हेतु नहीं बनता।सेना विजयकी इच्छासे युद्ध करती है। विजय होनेपर विजय सेनाकी नहीं प्रत्युत राजाकी मानी जाती है क्योंकि राजाने ही सेनाके जीवननिर्वाहका प्रबन्ध किया है उसे युद्ध करनेकी सामग्री दी है और उसे युद्ध करनेकी प्रेरणा की है और सेना भी राजाके लिये ही युद्ध करती है। इसी प्रकार शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदि कर्मसामग्रीके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे ही जीव उनके द्वारा किये गये कर्मोंके फलका भागी होता है।कर्मसामग्रीके साथ किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध न होनेके कारण महापुरुषका कर्मफलके साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता।वास्तवमें कर्मफलके साथ स्वरूपका सम्बन्ध है ही नहीं। कारण कि स्वरूप चेतन अविनाशी और निर्विकार है परन्तु कर्म और कर्मफल दोनों जड तथा विकारी हैं और उनका आरम्भ तथा अन्त होता है। सदा स्वरूपके साथ न तो कोई कर्म रहता है तथा न कोई फल ही रहता है। इस तरह यद्यपि कर्म और फलसे स्वरूपका कोई सम्बन्ध नहीं है तथापि जीवने भूलसे उनके साथ अपना सम्बन्ध मान लिया है। यह माना हुआ सम्बन्ध ही बन्धनका कारण है। अगर यह माना हुआ सम्बन्ध मिट जाय तो कर्म और फलसे उसकी स्वतःसिद्ध निर्लिप्तताका बोध हो जाता है।निराश्रयः देश काल वस्तु व्यक्ति परिस्थिति आदिका किञ्चिन्मात्र भी आश्रय न लेना ही निराश्रय अर्थात् आश्रयसे रहित होना है। कितना ही बड़ा धनी राजामहाराजा क्यों न हो उसको देश काल आदिका आश्रय लेना ही पड़ता है। परन्तु कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुष देश काल आदिका कोई आश्रय नहीं मानता। आश्रय मिले या न मिले इसकी उसे किञ्चिन्मात्र भी परवाह नहीं होती। इसलिये वह निराश्रय होता है।नित्यतृप्तः जीव (आत्मा) परमात्माका सनातन अंश होनेसे सत्स्वरूप है। सत्का कभी अभाव नहीं होता नाभावो विद्यते सतः (गीता 2। 16)। परन्तु जब वह असत्के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है तब उसे अपनेमें अभाव अर्थात् कमीका अनुभव होने लगता है। उस कमीकी पूर्ति करनेके लिये वह सांसारिक वस्तुओंकी कामना करने लगता है। इच्छित वस्तुओंके मिलनेसे एक तृप्ति होती है परन्तु वह तृप्ति ठहरती नहीं वह क्षणिक होती है। कारण कि संसारकी प्रत्येक वस्तु व्यक्ति परिस्थिति आदि प्रतिक्षण अभावकी ओर जा रही है अतः उनके आश्रित रहनेवाली तृप्ति स्थायी कैसे रह सकती है सत्वस्तुकी तृप्ति असत् वस्तुसे हो ही कैसे सकती है अतः जीव जबतक उत्पत्तिविनाशशील क्रियाओँ और पदार्थोंसे अपना सम्बन्ध मानता है तथा उनके आश्रित रहता है तबतक उसे स्वतःसिद्ध नित्यतृप्तिका अनुभव नहीं होता।कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुष निराश्रय अर्थात् संसारके आश्रयसे सर्वथा रहित होता है इसलिये उसे स्वतःसिद्ध नित्यतृप्तिका अनुभव हो जाता है। तीसरे अध्यायके सत्रहवें श्लोकमें आत्मतृप्तः पदसे भी इसी नित्यतृप्तिकी बात आयी है।कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः अभिप्रवृत्तः पदका तात्पर्य है कि कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषके द्वारा होनेवाले सब कर्म साङ्गोपाङ्ग रीतिसे होते हैं क्योंकि कर्मफलमें उसकी किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति नहीं होती। उसके सम्पूर्ण कर्म केवल संसारके हितके लिये होते हैं।जिसकी कर्मफलमें आसक्ति होती है वह साङ्गोपाङ्ग रीतिसे कर्म नहीं कर सकता क्योंकि फलके साथ सम्बन्ध होनेसे कर्म करते हुए बीचबीचमें फलका चिन्तन होनेसे उसकी शक्ति व्यर्थ खर्च हो जाती है जिससे उसकी शक्ति पूरी तरह कर्म करनेमें नहीं लगती।अपि पदका तात्पर्य है कि साङ्गोपाङ्ग रीतिसे सब कर्म करते हुए भी वह वास्तवमें किञ्चिन्मात्र भी कोई कर्म नहीं करता क्योंकि सर्वथा निर्लिप्त होनेके कारण कर्मका स्पर्श ही नहीं होता। उसके सब कर्म अकर्म हो जाते हैं।जब वह कुछ भी नहीं करता तब वह कर्मफलसे बँध ही कैसे सकता है इसीलिये अठारहवें अध्यायके बारहवें श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि कर्मफलका त्याग करनेवाले कर्मयोगीको कर्मोंका फल कहीं भी नहीं मिलता न तु संन्यासिनां क्वचित्।प्रकृति निरन्तर क्रियाशील है। अतः जबतक प्रकृतिके गुणों(क्रिया और पदार्थ) से सम्बन्ध है तबतक कर्म न करते हुए भी मनुष्यका कर्मोंके साथ सम्बन्ध हो जाता है। प्रकृतिके गुणोंसे सम्बन्ध न रहनेपर मनुष्य कर्म करते हुए भी कुछ नहीं करता। कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषका प्रकृतिजन्य गुणोंसे कोई सम्बन्ध नहीं रहता इसलिये वह लोकहितार्थ सब कर्म करते हुए भी वास्तवमें कुछ नहीं करता। सम्बन्ध उन्नीसवेंबीसवें श्लोकोंमें कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषकी कर्मोंसे निर्लिप्तताका वर्णन करके अब भगवान् इक्कीसवें श्लोकमें निवृत्तिपरायण और बाईसवें श्लोकमें प्रवृत्तिपरायण कर्मयोगके साधककी कर्मोंसे निर्लिप्तताका वर्णन करते हैं।