गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते।।4.23।।
।।4.23।।जिसकी आसक्ति सर्वथा मिट गयी है जो मुक्त हो गया है जिसकी बुद्धि स्वरूपके ज्ञानमें स्थित है ऐसे केवल यज्ञके लिये कर्म करनेवाले मनुष्यके सम्पूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैं।
।।4.23।। जो आसक्तिरहित और मुक्त है जिसका चित्त ज्ञान में स्थित है यज्ञ के लिये आचरण करने वाले ऐसे पुरुष के समस्त कर्म लीन हो जाते हैं।।
4.23।। व्याख्या कर्मयोगीके सम्पूर्ण कर्मोंके विलीन होनेकी बात गीताभरमें केवल इसी श्लोकमें आयी है इसलिये यह कर्मयोगका मुख्य श्लोक है। इसी प्रकार चौथे अध्यायका छत्तीसवाँ श्लोक ज्ञानयोगका और अठारहवें अध्यायका छाछठवां श्लोक भक्तियोगका मुख्य श्लोक है।गतसङ्गस्य क्रियाओँका पदार्थोंका घटनाओंका परिस्थितियोंका व्यक्तियोंका जो सङ्ग है इनके साथ जो हृदयसे लगाव है वही वास्तवमें बाँधनेवाला अर्थात् जन्ममरण देनेवाला है (गीता 13। 21)। स्वार्थभावको छोड़कर केवल लोगोंके हितके लिये लोकसंग्रहार्थ कर्म करते रहनेसे कर्मयोगी क्रियाओँ पदार्थों आदिसे असङ्ग हो जाता है अर्थात् उसकी आसक्ति सर्वथा मिट जाती है।वास्तवमें मनुष्य स्वरूपसे असङ्ग ही है असङ्गो ह्ययं पुरुषः (बृहदारण्यक0 4। 3। 15)। किंतु असङ्ग होते हुए भी यह शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि पदार्थ परिस्थिति व्यक्ति आदिसे सम्बन्ध मानकर सुखकी इच्छासे उनमें आबद्ध हो जाता है। मेरी मनचाही हो अर्थात् जो मैं चाहता हूँ वही हो और जो मैं नहीं चाहता वह नहीं हो ऐसा भाव जबतक रहता है तबतक यह सङ्ग बढ़ता ही रहता है। वास्तवमें होता वही है जो होनेवाला है। जो होनेवाला है उसे चाहें या न चाहें वह होगा ही और जो नहीं होनेवाला है उसे चाहें या न चाहें वह नहीं होगा। अतः अपनी मनचाही करके मनुष्य व्यर्थमें (बिना कारण) फँसता है और दुःख पाता है।कर्मयोगी संसारसे मिली हुई शरीरादि वस्तुओंको अपनी और अपने लिये न मानकर उन्हें संसारकी ही मानकर संसारकी सेवामें अर्पण कर देता है। इससे वस्तुओं और क्रियाओंका प्रवाह संसारकी ओर ही हो जाता है और अपना असङ्ग स्वरूप ज्योंकात्यों रह जाता है।कर्मयोगीका अहम् भी सेवामें लग जाता है। तात्पर्य यह है कि उसके भीतर मैं सेवक हूँ यह भाव भी नहीं रहता। यह भाव तो मनुष्यको सेवकपनेके अभिमानसे बाँध देता है। सेवकपनेका अभिमान तभी होता है जब सेवासामग्रीके साथ अपनापन होता है। सेवाकी वस्तु उसीकी थी उसीको दे दी तो सेवा क्या हुई हम तो उससे उऋण हुए। इसलिये सेवक न रहे केवल सेवा रह जाय। यह भाव रहे कि सेवाके बदलेमें धन मान बड़ाई पद अधिकार आदि कुछ भी लेना नहीं है क्योंकि उसपर हमारा हक ही नहीं लगता। उसे स्वीकार करना तो अनधिकार चेष्टा है। लोग मेरेको सेवक कहें ऐसा भाव भी न रहे और यदि वे कहें तो उसमें राजी भी न हो। इस प्रकार संसारकी वस्तुओँको संसारकी सेवामें सर्वथा लगा देनेसे अन्तःकरणमें एक प्रसन्नता होती है। उस प्रसन्नताका भी भोग न किया जाय तो स्वतःसिद्ध असङ्गताका अनुभव हो जाता है।मुक्तस्य जो अपने स्वरूपसे सर्वथा अलग हैं उन क्रियाओँ और शरीरादि पदार्थोंसे अपना सम्बन्ध न होते हुए भी कामना ममता और आसक्तिपूर्वक उनसे अपना सम्बन्ध मान लेनेसे मनुष्य बँध जाता है अर्थात् पराधीन हो जाता है। कर्मयोगका अनुष्ठान करनेसे जब माना हुआ (अवास्तविक) सम्बन्ध मिट जाता है तब कर्मयोगी सर्वथा असङ्ग हो जाता है। असङ्ग होते ही वह सर्वथा मुक्त हो जाता है अर्थात् स्वाधीन हो जाताहै।ज्ञानावस्थितचेतसः जिसकी बुद्धिमें स्वरूपका ज्ञान नित्यनिरन्तर जाग्रत् रहता है वह ज्ञानावस्थितचेतसः है। स्वरूपज्ञान होते ही उसकी स्वरूपमें स्थिति हो जाती है जो वास्तवमें पहलेसे ही थी।वास्तवमें ज्ञान संसारका ही होता है। स्वरूपका ज्ञान नहीं होता क्योंकि स्वरूप स्वतःज्ञानस्वरूप है। क्रिया और पदार्थ ही संसार है। क्रिया और पदार्थका विभाग अलग है तथा स्वरूपका विभाग अलग है अर्थात् क्रिया और पदार्थका स्वरूपके साथ किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है। क्रिया और पदार्थ जड हैं तथा स्वरूप चेतन है। क्रिया और पदार्थ प्रकाश्य हैं तथा स्वरूप प्रकाशक है। इस प्रकार क्रिया और पदार्थकी स्वरूपसे भिन्नताका ठीकठीक ज्ञान होते ही क्रिया और पदार्थरूप संसारसे सम्बन्धविच्छेद होकर स्वतःसिद्ध असङ्ग स्वरूपमें स्थितिका अनुभव हो जाता है।यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते कर्ममें अकर्म देखनेका ही एक प्रकार है यज्ञार्थ कर्म अर्थात् यज्ञके लिये कर्म करना। निःस्वार्थभावसे केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करना यज्ञ है। जो यज्ञके लिये ही सम्पूर्ण कर्म करता है वह कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है और जो यज्ञके लिये कर्म नहीं करता अर्थात् अपने लिये कर्म करता है वह कर्मोंसे बँध जाता है यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः (गीता 3। 9)।प्रकृतिका कार्य है क्रिया और पदार्थ। इन दोनोंमें क्रियाका भी आदि और अन्त होता है तथा पदार्थका भी आदि और अन्त होता है। क्रिया आरम्भ होनेसे पहले भी नहीं थी और समाप्त होनेके बाद भी नहीं रहेगी इसलिये बीचमें भी वह नहीं है ऐसा सिद्ध हुआ। इसी प्रकार पदार्थ उत्पन्न होनेसे पहले भी नहीं था और नष्ट होनेके बाद भी नहीं रहेगा इसलिये बीचमें भी वह नहीं है यह सिद्ध हुआ क्योंकि यह सिद्धान्त है कि जो वस्तु आदि और अन्तमें नहीं होती वह मध्य (वर्तमान) में भी नहीं होती (टिप्पणी प0 252)। परन्तु चेतन स्वरूपका आदि और अन्त नहीं होता वह सदा अक्रियरूपसे ज्योंकात्यों रहता है। वह चेतनतत्त्व क्रिया और पदार्थ दोनोंका प्रकाशक है। इस प्रकार क्रिया और पदार्थके साथ किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध न होते हुए भी जब वह इनके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है तब वह बँध जाता है। इस बन्धनसे छूटनेका उपाय है फलेच्छाका त्याग करके केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करना।संसारमें अनेक प्रकारकी क्रियाएँ हो रही हैं और अनेक प्रकारके पदार्थ विद्यमान हैं। परन्तु मनुष्य जिन क्रियाओँ और पदार्थोंसे आसक्ति ममता और कामनापूर्वक अपना सम्बन्ध मानता है उन्हीं क्रियाओँ और पदार्थोंसे वह बँधता है। जब मनुष्य कामना ममता और आसक्तिका त्याग करके केवल दूसरोंके हितके लिये सम्पूर्ण कर्म करता है और मिले हुए पदार्थोंको दूसरोंका ही मानकर उनकी सेवामें लगाता है तब कर्मयोगीके सम्पूर्ण (क्रियमाण सञ्चित और प्रारब्ध) कर्म विलीन हो जाते हैं अर्थात् उसे कर्मोंके साथ अपनी स्वतःसिद्ध असङ्गताका अनुभव हो जाता है।विशेष बात(1) कर्ता करण और कर्म इन तीनोंके मिलनेसे कर्मोंका संचय होता है (गीता 18। 18)। यदि कर्तापन न रहे तो कर्मोंका संग्रह नहीं होता क्योंकि करण और कर्म दोनों कर्ताके ही अधीन हैं। अतः कर्मसंचयका मुख्य हेतु कर्तापन ही है।विचारपूर्वक देखा जाय तो कुछनकुछ पानेकी इच्छासे ही करनेकी इच्छा उत्पन्न होती है जिससे कर्तापन उत्पन्न होता है। कर्तापनसे बन्धन होता है जिससे कर्तापन उत्पन्न होता है। कर्तापनसे बन्धन होता है। जबमनुष्य पानेकी इच्छासे अपने लिये कर्म करता है तब उसका कर्तापन दृढ़ हो जाता है। जब कर्मयोगी पानेकी इच्छाका त्याग करके केवल यज्ञके लिये अर्थात् दूसरोंके हितके लिये कर्म करता है तब उसका कर्तापन दूसरोंके लिये होता है इससे उसे अपनी असङ्गताका अनुभव हो जाता है। इसलिये उसके द्वारा होनेवाले कर्मोंका संचय नहीं होता। कारण कि जब आधार (कर्तापन) ही नहीं रहा तब कर्म टिकेंगे ही कहाँकर्मयोगमें ममता(मेरापन) का त्याग और ज्ञानयोगमें अहंता(मैंपन) का त्याग मुख्य है। ममताका त्याग होनेसे अहंताका और अहंताका त्याग होनेसे ममताका त्याग स्वतः हो जाता है। इसलिये कर्मयोगमें पहले ममता मिटती है फिर अहंता स्वतः मिट जाती है (टिप्पणी प0 253.1) और ज्ञानयोगमें पहले अहंता मिटती है फिर ममता स्वतः मिट जाती है। अहंता और ममताके मिटनेपर कर्तापन और भोक्तापन भी मिट जाते हैं।कर्मयोगी अपने लिये कोई कर्म करता ही नहीं और कुछ चाहता ही नहीं अतः वह कर्मोंके फलका भोक्ता नहीं बनता। जैसे एक व्यक्तिको यहाँ कई दण्ड भोगने हैं। परन्तु वह मर जाय तो यहाँ उसके सभी दण्ड समाप्त हो जाते हैं क्योंकि जब भोगनेवाला व्यक्ति ही नहीं रहा तब दण्ड भोगेगा ही कौन ऐसे ही जब कर्मयोगीका भोक्तपन मिट जाता है तब उसके सभी कर्म समाप्त हो जाते हैं क्योंकि जब भोक्ता ही नहीं रहा तब कर्मोंका फल भोगेगा ही कौन(2) इसी अध्यायके नवें श्लोकमें भगवान्ने कहा कि मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं इस प्रकार जो मनुष्य तत्त्वसे जान लेता है वह मेरेको प्राप्त होता है। जन्म तो केवल भगवान्के ही दिव्य होते हैं पर कर्म मनुष्यमात्रके भी (यदि वे करना चाहें तो) दिव्य हो सकते हैं। अतः इसी अध्यायके चौदहवें श्लोकमें भगवान् अपने कर्मोंकी दिव्यताका कारण बताते हैं कि कर्मोंके फलमें मेरी स्पृहा नहीं है इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते अर्थात् मेरे कर्म अकर्म हो जाते हैं। इस प्रकार कर्मोंका तत्त्व जानकर जो कर्म करता है उसके भी कर्म अकर्म हो जाते हैं। फिर पंद्रहवें श्लोकमें भगवान्ने कहा कि मुमुक्षुओंने भी इसी प्रकार जानकर कर्म किये हैं। इसके बाद सोलहवें श्लोकमें भगवान् कर्मोंका तत्त्व कहनेकी प्रतिज्ञा करते हैं और सत्रहवें श्लोकमें कहते हैं कि कर्म विकर्म और अकर्म तीनोंका तत्त्व जानना चाहिये। फिर अठारहवें श्लोकमें भगवान्ने मुख्यरूपसे कर्मोंका तत्त्व (अकर्म अथवा निर्लिप्तता) बतलाया।कामनासे कर्म होते हैं कामनाके बढ़नेपर विकर्म होते हैं और कामनाका अत्यन्त अभाव होनेसे अकर्म होता है। मूलमें इस (सोलहवेंसे बत्तीसवें श्लोकतकके) प्रकरणका तात्पर्य अकर्म का वर्णन करना ही है। इसीलिये भगवान्ने कर्म और विकर्म दोनोंके मूल कारण कामना के त्यागका तथा अकर्मका वर्णन उन्नीसवेंसे तेईसवें श्लोकतक प्रत्येक श्लोकमें किया है (टिप्पणी प0 253.2) और अन्तमें बत्तीसवें श्लोकमें इस प्रकरणका उपसंहार किया है। सम्बन्ध पूर्वश्लोकमें भगवान्ने बताया कि यज्ञके लिये कर्म करनेसे सम्पूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैं। साधकोंकी रुचि विश्वास और योग्यताकी भिन्नताके कारण साधन भी भिन्नभिन्न प्रकारके होते हैं। इसलिये अब आगेके सात श्लोकोंमें (चौबीसवेंसे तीसवें श्लोकतक) भगवान् भिन्नभिन्न प्रकारके साधनोंका यज्ञ रूपसे वर्णन करते हैं।
।।4.23।। इस श्लोक में ज्ञानी पुरुष के लक्षणों का वर्णन करके जिस क्रम में उसके गुणों को बताया गया है वह स्वयं साधना मार्ग की ओर संकेत करता है। उपदेश को सूत्ररूप में वर्णन करने की सभी शास्त्रीय ग्रन्थों की एक विशेष शैली होती है। उसमें भी प्रतीक शब्दों के चयन के प्रति शास्त्रज्ञ अधिक सजग रहते हैं और उन शब्दों को एक विशेष क्रम देने में भी उन्हें आनन्द का अनुभव होता है। विचाराधीन श्लोक इसका एक उदाहरण है।गतसंगस्य जिस दैवी स्वरूप को ऋषियों ने प्राप्त किया वह कोई अज्ञात स्थल से प्राप्त की हुई नवीन उपलब्धि नहीं थी। यह पूर्णत्व तो सबका स्वयं सिद्ध स्वरूप ही है जिसे उन्होंने केवल पहचाना। बाह्य विषयों के साथ आसक्ति के कारण हमने अपने आपको स्वस्वरूप के राज्य के बाहर निष्कासित कर लिया है। ज्ञानी पुरुष वह है जो परिच्छिन्न जगत् की आसक्ति से पूर्णतया मुक्त है।मुक्तस्य अधिकांश साधकों को मुक्ति के संबंध में स्पष्ट ज्ञान नहीं होता। हम अपने आप ही अपने लिये बंधन उत्पन्न कर लेते हैं। अनेक प्रकार के बन्धनों का कारण है विषयों के साथ हमारी आसक्ति। विषयोपभोग में ही यह जीव सुखसन्तोष का अनुभव करता है। यही कारण है कि वह उसमें आसक्त हो जाता है। इस प्रकार शरीर मन और बुद्धि की दृष्टि से वह क्रमश बाह्य विषयों भावनाओं एवं विचारों के साथ बंध जाता है। ज्ञानी पुरुष इन सबसे मुक्त होता है।ज्ञानावस्थितचेतस नित्यानित्यवस्तु के विवेक के द्वारा नित्य स्वरूप को पहचान कर उसमें प्राप्त की हुई स्थिति के द्वारा ही विषयासक्ति के बंधन से मुक्ति हो सकती है।विवेकजनित विज्ञान के प्रकाश में अविद्या से उत्पन्न आसक्ति के नष्ट होने पर वह पूर्णत्व प्राप्त पुरुष वैषयिक प्रवृत्ति और अनैतिकता की शृंखलाओं से मुक्त हो जाता है। ऐसा पुरुष यज्ञ की अर्थात् निस्वार्थ सेवा और अर्पण की भावना से जीवन पर्यन्त कर्म करता रहता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि यज्ञ के लिये कर्म करने वाले पुरुष के सब कर्म लीन हो जाते हैं। अर्थात् वे नई वासनाएँ नहीं उत्पन्न करते।वेदों में प्रयुक्त यज्ञ शब्द को लेकर भगवान् श्रीकृष्ण ने यहाँ उसके अर्थ को और अधिक व्यापक रूप दिया है जिससे सम्पूर्ण विश्व में उसकी उपादेयता सिद्ध हो सके। केवल यज्ञयागादि ही नहीं बल्कि वे सब कर्म जो अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित न होकर सेवाभाव पूर्वक किये गये हों यज्ञ कर्म में ही समाविष्ट हैं।आगे के 6 श्लोकों में लगभग 12 प्रकार के यज्ञों का वर्णन किया गया है जिसका आचरण प्रत्येक व्यक्ति सर्वत्र सभी परिस्थितियों में और अपने कार्यक्षेत्र में कर सकता है।क्या कारण है कि ज्ञानी पुरुष के कर्म प्रतिक्रया उत्पन्न किये बिना लीन हो जाते हैं इसका कारण बताते हुए कहते हैं
4.23 Of the liberated person who has got rid of attachment, whose mind is fixed in Knowledge, actions undertaken for a sacrifice get totally destroyed.
4.23 To one who is devoid of attchment, who is liberated, whose mind is established in knowledge, who works for the sake of sacrifice (for the sake of God), the whole action is dissolved.
4.23. The action gets dissolved completely in the case of the person who undertakes it for the sake of sacrifice; who is rid of attachment and is freed; and who has his mind fixed in wisdom.
4.23 गतसङ्गस्य one who is devoid of attachment? मुक्तस्य of the liberated? ज्ञानावस्थितचेतसः whose mind is established in knowledge? यज्ञाय for sacrifice? आचरतः acting? कर्म action? समग्रम् whole? प्रविलीयते is dissolved.Commentary One who is free from attachment? who is liberated from the bonds of Karma? whose mind is centred and rooted in wisdom? who performs actions for the sake of sacrifice? in order to please the Lord -- all his actions with their results melt away. His actions are reduced to nothing. They are? in fact? no actions at all.
4.23 Muktasya, of the liberated person who has become relieved of such bondages as righteousness and unrighteousness, etc.; gatasangasya, who has got rid of attachment, who has become detached from everything; jnana-avasthita-cetasah, whose mind is fixed in Knowledge only; his karma, actions; acaratah, undertaken; yajnaya, for a sacrifice, to accomplish a sacrifice [A.G. takes yajna to mean Visnu. So, yajnaya will mean for Visnu. Sankaracarya also interprets this word similarly in 3.9.-Tr.]; praviliyate, gets destroyed; samagram, totally-saha (together) agrena (with its conseence, result). This is the meaning. For what reason, again, does an action that is underway get destroyed totally without producing its result? This is being answered: Because,
4.23 Gatasangasya etc. For sacrifice (yajnaya) : The singular number is to be construed with the class [yajnatva]. [Hence the meaning is] : The sacrifice that are being defined in the seel. It has been said for the sake of sacrifice etc. Now their general nature, [the Lord] describes :
4.23 Of a person whose attachment to all objects is gone because of his mind being established in the knowledge of the self, who is therefore liberated from accepting all worldly possessions and who is engaged in the performance of sacrifices etc., as described above - in the case of such a person his beginningless load of Karma, which is the cause of his bondgae, is completely dissolved, i.e., destroyed without leaving any residue. So far the nature of Karma as having the form of knowledge has been described as emerging from constant contemplation on the nature of the self as different from Prakrti. And now Sri Krsna says that all actions together with their ancillaries, have the form of knowledge because of constant contemplation by the aspirant on the Supreme Person who is the Supreme Brahman, as being his soul.
For one who performs actions for the purpose of yajna which will now be described, karma dissolves. The state of non-action or no reactions to work is attained by this.
One who is desireless, free from attraction and repulsion, who performs every action as an act of yagnaya or as offering and worship to the Supreme Lord Krishna. For one situated in karma yoga or the performance of prescribed Vedic activities all their actions become inaction and all reactions along with any impressions are dissolved. For one situated in jnana yoga or the cultivation of Vedic knowledge who has already attained atma tattva or realisation of the soul; the word yagnaya denotes worshipping the Supreme Lord to set an exemplary example in society.
Now Lord Krishna summarises the conclusion of the previous five verses. The compound words gata- sangasya means being freed from desires for rewards. The word muktasya means being free from bodily vanity. The words jnanavasthita.cetasah means one who has communion with the ultimate consciousness residing in the heart. Now begins the summation. Being free from all dependence means to take complete refuge in the Supreme Lord and to be totally under His protection. Liberated means to be free from all sense of pride.
By ones mind being entirely engrossed in atma tattva or soul realisation the attachment to worldly things has naturally been withdrawn. So automatically conceptions of ownership proprietorship are abandoned and realising the reality of the Supreme Being and the importance of propitiation to Him one lives their life in such a way that every action they perform is a yagna or worship and offering to the Supreme Lord Krishna. All past accumulated reactions resulting from previous actions which bind one so terribly to the material existence are completely evaporated without any residue. The spiritual intelligence of performing all actions in the perspective of the atma or soul rather than from the perspective of being immersed within the sense gardens of material nature has explained. The next verse reveals the even higher perspective of comprehending that spirit behind all activities and their factors of performance is the Supreme Spirit the Supreme Lord.
By ones mind being entirely engrossed in atma tattva or soul realisation the attachment to worldly things has naturally been withdrawn. So automatically conceptions of ownership proprietorship are abandoned and realising the reality of the Supreme Being and the importance of propitiation to Him one lives their life in such a way that every action they perform is a yagna or worship and offering to the Supreme Lord Krishna. All past accumulated reactions resulting from previous actions which bind one so terribly to the material existence are completely evaporated without any residue. The spiritual intelligence of performing all actions in the perspective of the atma or soul rather than from the perspective of being immersed within the sense gardens of material nature has explained. The next verse reveals the even higher perspective of comprehending that spirit behind all activities and their factors of performance is the Supreme Spirit the Supreme Lord.
Gatasangasya muktasya jnaanaavasthitachetasah; Yajnaayaacharatah karma samagram pravileeyate.
gata-saṅgasya—free from material attachments; muktasya—of the liberated; jñāna-avasthita—established in divine knowledge; chetasaḥ—whose intellect; yajñāya—as a sacrifice (to God); ācharataḥ—performing; karma—action; samagram—completely; pravilīyate—are freed