श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति।।4.26।।
।।4.26।।अन्य योगीलोग श्रोत्रादि समस्त इन्द्रियोंका संयमरूप अग्नियोंमें हवन किया करते हैं और दूसरे योगीलोग शब्दादि विषयोंका इन्द्रियरूप अग्नियोंमें हवन किया करते हैं।
।।4.26।। अन्य (योगीजन) श्रोत्रादिक सब इन्द्रियों को संयमरूप अग्नि में हवन करते हैं और अन्य (लोग) शब्दादिक विषयों को इन्द्रियरूप अग्नि में हवन करते हैं।।
।।4.26।। व्याख्या श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति यहाँ संयमरूप अग्नियोंमें इन्द्रियोंकी आहुति देनेको यज्ञ कहा गया है। तात्पर्य यह है कि एकान्तकालमें श्रोत्र त्वचा नेत्र रसना और घ्राण ये पाँचों इन्द्रियाँ अपनेअपने विषयों (क्रमशः शब्द स्पर्श रूप रस और गन्ध) की ओर बिलकुल प्रवृत्त न हों। इन्द्रियाँ संयमरूप ही बन जायँ।पूरा संयम तभी समझना चाहिये जब इन्द्रियाँ मन बुद्धि तथा अहम् इन सबमेंसे रागआसक्तिका सर्वथा अभाव हो जाय (गीता 2। 58 59 68)।शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति शब्द स्पर्श रूप रस और गन्ध ये पाँच विषय हैं। विषयोंका इन्द्रियरूप अग्नियोंमें हवन करनेसे वह यज्ञ हो जाता है। तात्पर्य यह है कि व्यवहारकालमें विषयोंका इन्द्रियोंसे संयोग होते रहनेपर भी इन्द्रियोंमें कोई विकार उत्पन्न न हो (गीता 2। 64 65)। इन्द्रियाँ रागद्वेषसे रहित हो जायँ। इन्द्रियोंमें रागद्वेष उत्पन्न करनेकी शक्ति विषयोंमें रहे ही नहीं।इस श्लोकमें कहे गये दोनों प्रकारके यज्ञोंमें रागआसक्तिका सर्वथा अभाव होनेपर ही सिद्धि (परमात्मप्राप्ति) होती है। रागआसक्तिको मिटानेके लिये ही दो प्रकारकी प्रक्रियाका यज्ञरूपसे वर्णन किया गया है पहली प्रक्रियामें साधक एकान्तकालमें इन्द्रियोंका संयम करता है। विवेकविचार जपध्यान आदिसे इन्द्रियोंका संयम होने लगता है। पूरा संयम होनेपर जब रागका अभाव हो जाता है तब एकान्तकाल और व्यवहारकाल दोनोंमें उसकी समान स्थिति रहती है।दूसरी प्रक्रियामें साधक व्यवहारकालमें रागद्वेषरहित इन्द्रियोंसे व्यवहार करते हुए मन बुद्धि और अहम्से भी रागद्वेषका अभाव कर देता है। रागका अभाव होनेपर व्यवहारकाल और एकान्तकाल दोनोंमें उसकी समान स्थिति रहती है।
।।4.26।। सुपरिचित वैदिक यज्ञ के रूपक के द्वारा यहां सब यज्ञों अर्थात् साधनाओं का निरूपण अर्जुन के लिये किया गया है। यज्ञ विधि में देवताओं का अनुग्रह प्राप्त करने के लिये अग्नि में आहुतियाँ दी जाती थीं। इस रूपक के द्वारा यह दर्शाया गया है कि इस विधि में न केवल आहुति भस्म हो जाती है बल्कि उसके साथ ही देवता का आशीर्वाद भी प्राप्त होता है। आत्मज्ञानी पुरुष अथवा साधकगण श्रोत्रादि इन्द्रियों की आहुति संयमाग्नि में देते हैं अर्थात् वे आत्मसंयम का जीवन जीते हैं। इस प्रकार इन्द्रियों की बहिर्मुखी प्रवृत्ति भस्म हो जाती है और साधक को आन्तरिक स्वातन्त्र्य का आनन्द भी प्राप्त होता है। यह एक सुविदित तथ्य है कि इन्द्रियों को जितना अधिक सन्तुष्ट रखने का प्रयत्न हम करते हैं वे उतनी ही अधिक प्रमथनशील होकर हमारी शान्ति को लूट ले जाती हैं। आत्मसंयम की साधना के अभ्यास के द्वारा ही साधक को ध्यान की योग्यता प्राप्त होती हैं।इस श्लोक की प्रथम पंक्ति में इन्द्रिय संयम का उपदेश है तो दूसरी पंक्ति में मनसंयम का। इन्द्रियों के द्वारा बाह्य विषयों की संवेदनाएं प्राप्त करके ही मन का अस्तित्व बना रहता है। जहां शब्दस्पर्शादि पाँच विषयों का ग्रहण नहीं होता वहां मन कार्य कर ही नहीं सकता। इसलिये विषयों से मन को अप्रभावित रखने की साधना यहां बतायी गयी है जिसके अभ्यास से ध्यानाभ्यास के लिये आवश्यक मन की स्थिरता प्राप्त की जा सकती है। जिस पुरुष ने मन को पूर्ण रूप से संयमित कर लिया है उसके विषय में भगवान् कहते हैं अन्य (साधक) शब्दादिक विषयों को इन्द्रियाग्नि में आहुति देते हैं।प्रथम विधि में विषयों की संवेदनाओं को इन्द्रियों के प्रवेश द्वार पर ही संयमित किया जाता है जबकि दूसरी विधि में (अभ्यांतर में ) मन के सूक्ष्मतर स्तर पर उन्हें नियन्त्रित करने की साधना है।और भी दूसरे प्रकार के यज्ञ बताते हुए भगवान् कहते हैं